Explainer: जब राजशाही से निकला लोकतंत्र का सूरज, ऐसे हुआ राजस्थान का एकीकरण

सरदार वल्लभभाई पटेल ने जिस दिन राजस्थान का एकीकरण किया था, वह चैत्र शुक्ल प्रतिपदा ही थी. इसलिए अब हर साल इसी दिन राजस्थान दिवस मनाया जाएगा.

विज्ञापन
Read Time: 14 mins
रियासत कालीन राजाओं के साथ सरदार वल्लभ भाई पटेल. (Photo Credit- Eternal Mewar)

Rajasthan Diwas: 12 मार्च को राजस्थान विधानसभा में वित्त एवं विनियोग विधेयक पर चर्चा के दौरान मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा ने भारतीय परम्परा के अनुसार हर साल चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को राजस्थान दिवस मनाने की घोषणा की थी. सीएम ने कहा कि सरदार वल्लभभाई पटेल ने जिस दिन राजस्थान का एकीकरण किया था, वह चैत्र शुक्ल प्रतिपदा ही थी. इसलिए अब हर साल इसी दिन राजस्थान दिवस मनाया जाएगा. लेकिन राजस्थान के एकीकरण की यह कहानी उतार-चढ़ाव से भरी रही. यह सफर आसान नहीं था. राजशाही को खत्म करके लोकतंत्र की नींव रखी गई. कई चुनौतियों और कठिनाइयों के बीच अलग-अलग चरणों में राजस्थान एक हुआ और आज हम जिस भौगोलिक स्वरूप को देख रहे हैं, वह इसी ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है.

देशी रियासतों को इच्छानुसार चुनाव करने का दिया अधिकार

दरअसल, भारतीय स्वतंत्रता के बाद जब ब्रिटिश सरकार ने सत्ता सौंपी और देशी रियासतों को भी अपनी इच्छानुसार चुनाव करने का अधिकार दिया गया, तब अधिकांश रियासतें, जो ब्रिटिश भारत से अलग थीं लेकिन ब्रिटिश शासन के आंशिक प्रभाव में थीं, अपने पारंपरिक अधिकारों, स्वायत्तता और व्यक्तिगत विशेषाधिकारों पर अड़ी रहीं.

Advertisement

आजादी से पहले भारत दो हिस्सों में था बंटा हुआ

ब्रिटिश शासन के अंतर्गत इन रियासतों को "देशी राज्य" के नाम से जाना जाता था, जिनका प्रशासनिक और राजनीतिक नियंत्रण आंशिक रूप से ब्रिटिश क्राउन के अधीन था. यानी आजादी से पहले भारत दो हिस्सों में बंटा हुआ था. एक तरफ ब्रिटिश भारत था और दूसरी तरफ देशी रियासतें थीं, जहां राजा-महाराजा अपनी-अपनी रियासतों में राज करते थे, लेकिन असल में सत्ता की बागडोर अंग्रेजों के हाथ में थी.

तिरंगे के नीचे एक होकर खड़ा हो गया पूरा देश 

1947 में जब भारत आज़ाद हुआ तो इन राजाओं के सामने सबसे बड़ा सवाल यही था कि अब क्या होगा? उनकी गद्दी, उनका वैभव, उनके विशेषाधिकार, सब कुछ खतरे में था. लेकिन भारतीय राजनीति के 'लौह पुरुष' सरदार वल्लभभाई पटेल ने ऐसी चाल चली कि ये सभी राजा-महाराजा और पूरा देश तिरंगे के नीचे एक होकर खड़ा हो गया.

Advertisement

पटेल ने महाराजा सवाई मान सिंह द्वितीय को दिया आश्वासन 

राज्य के दस्तावेज़ और समाचार रिपोर्ट: ब्रिटिश काल की रिपोर्ट, जैसे “Freedom at Midnight” और “The Last Days of the British Raj in India”, पटेल के कूटनीतिक प्रयासों का उल्लेख करती हैं. उन्होंने महाराजा सवाई मान सिंह द्वितीय को आश्वासन दिया कि यदि वे भारतीय संघ में शामिल होते हैं तो राजाओं के पारंपरिक अधिकारों और प्रतिष्ठा की रक्षा की जाएगी. महाराजा उम्मेद सिंह के साथ चर्चा में, पटेल ने आर्थिक, प्रशासनिक और सुरक्षा उपायों का आश्वासन दिया.

Advertisement

विलय को टालने की महाराजा सादुल सिंह ने की थी कोशिश

महाराजा सादुल सिंह ने आजादी के बाद पहले तो विलय को टालने की कोशिश की, लेकिन पटेल के दबाव में उन्हें भारत में इसका फैसला लेना पड़ा. उन्होंने राजाओं से कहा कि आपकी शक्ति और प्रतिष्ठा लोगों में है, आपके व्यक्तिगत विशेषाधिकारों में नहीं. आजादी के बाद आपका असली राज आपका योगदान है, आपके हीरे-जवाहरात नहीं.

रियासतों को  दिए गए विशेष विशेषाधिकार

राज्यों के एकीकरण के बाद भारतीय संविधान के अनुच्छेद 291 और 362 के तहत रियासतों को विशेष विशेषाधिकार दिए गए. इन विशेषाधिकारों में 'प्रिवीपर्स' की व्यवस्था भी शामिल थी, जो राजाओं के व्यक्तिगत विशेषाधिकारों को सुनिश्चित करती थी. लेकिन बाद में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में इन विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया गया, जिससे लोकतांत्रिक शासन की स्थापना में महत्वपूर्ण बदलाव आया. इंदिरा गांधी के 'प्रिवी पर्स उन्मूलन विधेयक' और 26वें संविधान संशोधन ने रियासतों के शासकों के विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया और एक समान और न्यायसंगत शासन प्रणाली की नींव रखी.

पहला चरण मत्स्य संघ: राजस्थान के एकीकरण की पहली कड़ी (18 मार्च 1948)

राजस्थान के एकीकरण की दिशा में पहला और महत्वपूर्ण कदम था 'मत्स्य संघ' का गठन. यह संघ 18 मार्च 1948 को अस्तित्व में आया, जिसमें अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली और नीमराणा ठिकाना (4+1) को मिलाकर एक नई प्रशासनिक इकाई बनाई गई. इसका उद्घाटन तत्कालीन भारत सरकार के मंत्री नरहरि विष्णु गाडगिल (N. V. Gadgil) ने लोहागढ़ किले (भरतपुर) में किया था. अलवर को संघ की राजधानी बनाया गया और इसके प्रमुख पदों पर निम्नलिखित नियुक्तियां की गईं- राजप्रमुख: महाराजा उदयभान सिंह (धौलपुर) उप राजप्रमुख: महाराजा करौली प्रधानमंत्री: शोभाराम कुमावत (अलवर प्रजामंडल के प्रमुख नेता) लेकिन मत्स्य संघ का गठन सिर्फ राजनीतिक बातचीत का नतीजा नहीं था, बल्कि इसके पीछे की कहानी अप्रत्याशित घटनाओं और कठोर निर्णयों से भरी थी.

गांधीजी की हत्या और अलवर रियासत पर संदेह

30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के बाद जब जांच हुई तो उसमें अलवर रियासत का नाम भी आया. आरोप था कि अलवर के महाराजा तेज सिंह के प्रधानमंत्री नारायण भास्कर खरे (N. B. Khare) ने गांधीजी की हत्या से कुछ दिन पहले नाथूराम गोडसे और उसके सहयोगी परचुरे को शरण दी थी. इसके अलावा अलवर राज्य के हिन्दू महासभा से गहरे सम्बन्ध थे तथा एन.बी.खरे हिंदू महासभा की गतिविधियों में सक्रिय रूप से शामिल थे.

गांधीजी की हत्या के बाद अलवर प्रजामंडल ने तत्काल महाराजा तेजसिंह और प्रधानमंत्री एन.बी. खरे को गिरफ्तार करने की मांग की. इस पर तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने 3 फरवरी 1948 को महाराजा और उनके प्रधानमंत्री को दिल्ली बुलाकर नजरबंद कर दिया.

5 फरवरी 1948 को आकाशवाणी पर समाचार प्रसारित हुआ कि महाराजा तेज सिंह को दिल्ली में ही रहने का आदेश दिया गया है तथा उनके और प्रधानमंत्री के शहर छोड़ने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है. भारत सरकार की इस कार्रवाई  का कुछ राजाओं ने विरोध किया, लेकिन वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने ऐसे ठोस सबूत प्रस्तुत किए, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि अलवर रियासत के कुछ अधिकारियों की भूमिका संदिग्ध थी.

सरदार पटेल का हस्तक्षेप और राजाओं का डर

सरदार पटेल खुद अलवर आए और एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि छोटी रियासतें अब नहीं चल सकतीं... सत्ता, प्रतिष्ठा और वर्ग की सोच अब उचित नहीं है. आज सफाईकर्मी की झाड़ू भी राजपूतों की तलवार से कम महत्वपूर्ण नहीं है. इस घटना ने अन्य राजाओं में भी भय पैदा कर दिया.

9 मार्च 1948 को भरतपुर का  लिया शासन

10 फरवरी 1948 को भरतपुर के महाराजा बृजेन्द्र सिंह को दिल्ली बुलाया गया. वहां उन्हें उनके ऊपर लगे आरोपों से अवगत कराया गया और राज्य प्रशासन की जिम्मेदारी भारत सरकार को सौंपने का निर्देश दिया गया. महाराजा अलवर और उनके प्रधानमंत्री, जो पहले से ही नजरबंद थे, की हालत देखकर महाराजा भरतपुर ने अनिच्छा से सहमति जताई और 9 मार्च 1948 को भरतपुर का शासन भी केंद्र सरकार ने अपने हाथ में ले लिया. इसके बाद 27 फरवरी 1948 को धौलपुर और करौली के राजाओं को भी दिल्ली बुलाया गया और उन्हें अलवर और भरतपुर के साथ विलय करने की सलाह दी गई.

अलवर, भरतपुर, धौलपुर और करौली की चारों रियासतें भौगोलिक और सांस्कृतिक दृष्टि से एक जैसी थीं. इसलिए के.एम. मुंशी ने इस संघ का नाम 'मत्स्य संघ' रखने का सुझाव दिया, जिसे स्वीकार कर लिया गया. 28 फरवरी 1948 को चारों रियासतों के शासकों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए और 17 मार्च 1948 को 'संयुक्त मत्स्य संघ' आधिकारिक रूप से अस्तित्व में आया. राज्य के मुखिया: महाराजा उदयभान सिंह (धौलपुर) राज्य के उप मुखिया: महाराजा तेज सिंह (अलवर) राजधानी: अलवर

15 मार्च 1948 को महाराजा तेज सिंह को अलवर लौटने की अनुमति दे दी गई

मत्स्य संघ राजस्थान के एकीकरण की दिशा में पहला संगठित प्रयास था. यह एक प्रायोगिक मॉडल बन गया, जिसके बाद राजस्थान की अन्य छोटी-बड़ी रियासतों का एकीकरण भी आसान हो गया.बाद में 15 मई 1949 को मत्स्य संघ का विलय 'संयुक्त राजस्थान' में कर दिया गया और राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ी.

दूसरा चरण: राजस्थान संघ का गठन (25 मार्च 1948)

मत्स्य संघ के गठन के बाद राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई. अगला बड़ा कदम 25 मार्च 1948 को उठाया गया, जब नौ रियासतों और एक इस्टेट को मिलाकर 'राजस्थान संघ'(Rajasthan Union) का गठन किया गया. राजस्थान संघ में शामिल रियासतें थीं- डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, शाहपुरा, किशनगढ़, टोंक, बूंदी, कोटा, झालावाड़ और कुशलगढ़ (इस्टेट). जब इन रियासतों का भारतीय संघ में विलय सुनिश्चित हुआ, तो कई शासकों के मन में असमंजस और चिंता थी. बांसवाड़ा के महारावल चंद्रवीर सिंह रियासतों के विलय को लेकर खासे व्यथित थे. विलय पत्र पर हस्ताक्षर करते हुए उन्होंने कहा-

"मैं अपने डेथ वारंट पर हस्ताक्षर कर रहा हूं." उनकी भावनात्मक प्रतिक्रिया उस समय के कई अन्य शासकों की मनोदशा को दर्शाती थी, जो अपनी शक्ति और पहचान के अंत को महसूस कर रहे थे.

 कोटा राजस्थान संघ की सबसे बड़ी और सबसे शक्तिशाली रियासत थी, इसलिए इसके शासक महाराव भीम सिंह को राज्य का प्रमुख नियुक्त किया गया और कोटा को राजधानी बनाया गया. राजस्थान संघ का उद्घाटन कोटा किले में एन.वी. गाडगिल ने किया था. इसके बाद 18 अप्रैल 1948 को 'उदयपुर' भी इस संघ में शामिल हो गया, जिससे यह और अधिक शक्तिशाली हो गया. बाद में 15 मई 1949 को राजस्थान संघ को मत्स्य संघ और अन्य रियासतों के साथ मिलाकर 'संयुक्त राजस्थान' बनाया गया, जिसने राजस्थान के आधुनिक स्वरूप की नींव रखी.

तीसरा चरण: ‘संयुक्त राजस्थान' का निर्माण (18 अप्रैल 1948)

राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया में तीसरा महत्वपूर्ण चरण तब आया जब उदयपुर राज्य को 'राजस्थान संघ' में मिला दिया गया और इसका नाम बदलकर 'संयुक्त राजस्थान राज्य'(United State of Rajasthan) कर दिया गया.

 23 मार्च 1948 को भारत सरकार के समक्ष रखीं अपनी मांगें

उदयपुर के शासक महाराणा भूपाल सिंह शुरू में राजस्थान संघ में शामिल होने के लिए तैयार नहीं थे. लेकिन जब प्रजामंडल के नेता माणिक्यलाल वर्मा ने इसका विरोध किया और कहा कि "महाराणा और उनके प्रधानमंत्री सर राममूर्ति अकेले मेवाड़ की 20 लाख जनता के भाग्य का फैसला नहीं कर सकते." तब मेवाड़ में महाराणा के खिलाफ आक्रोश बढ़ने लगा. इस दबाव को महसूस करते हुए 23 मार्च 1948 को महाराणा ने अपने प्रधानमंत्री सर राममूर्ति को वी.पी. मेनन के पास भेजा और भारत सरकार के समक्ष अपनी मांगें रखीं.


उदयपुर महाराणा की तीन प्रमुख मांगें 

उन्हें संयुक्त राजस्थान का वंशानुगत राजप्रमुख बनाया जाए.

उन्हें 20 लाख रुपए का प्रिवी पर्स (व्यक्तिगत कोष) दिया जाए.

उदयपुर को संयुक्त राजस्थान की राजधानी बनाया जाए.

सरदार पटेल और वी.पी. मेनन के दबाव में महाराणा ने विलय को स्वीकार कर लिया, लेकिन अपने लिए व्यक्तिगत संपत्ति और प्रिवीपर्स की सीमा से अधिक राशि तय कर ली. वैसे तो भारत सरकार ने किसी भी रियासत के शासक को 10 लाख रुपए से अधिक प्रिवीपर्स न देने का नियम बना रखा था, लेकिन उदयपुर के महाराणा को संतुष्ट करने के लिए उनके लिए विशेष पैकेज तय किया गया। 10 लाख रुपए प्रिवीपर्स, राजप्रमुख के रूप में 5 लाख रुपए भत्ता, 5 लाख रुपए धार्मिक कार्यों पर खर्च करने का प्रावधान किया गया.

राजस्थान संघ का नाम बदलकर रखा  'संयुक्त राजस्थान'

 उदयपुर को संतुष्ट करने के लिए राजस्थान संघ का नाम बदलकर 'संयुक्त राजस्थान' कर दिया गया. राजप्रमुख: महाराणा भूपाल सिंह (उदयपुर) प्रधानमंत्री: माणिक्यलाल वर्मा बनाए गए। राजधानी उदयपुर रखी गई  और महाराव भीमसिंह (कोटा) को उप राजप्रमुख बनाया गया. 18 अप्रैल 1948 को पं. जवाहरलाल नेहरू ने संयुक्त राजस्थान का उद्घाटन किया.

चौथा चरण- वृहद राजस्थान' का गठन (30 मार्च 1949)

संयुक्त राजस्थान के गठन के बाद भी राजस्थान की चार बड़ी रियासतें जयपुर, जोधपुर, बीकानेर और जैसलमेर अभी भी एकीकरण से बाहर थीं. इस कारण राजस्थान पूरी तरह एक नहीं हो सका. 14 जनवरी 1949 को सरदार वल्लभभाई पटेल ने उदयपुर में एक विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए राजस्थान के पूर्ण एकीकरण की घोषणा की. लेकिन जयपुर महाराजा सवाई मानसिंह द्वितीय ने इसमें शामिल होने से पहले कुछ शर्तें रखीं. उन्हें नए राज्य का वंशानुगत(Hereditary)  राजप्रमुख बनाया जाए. जयपुर को नए राज्य की राजधानी बनाया जाए. बैठक में सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि जयपुर महाराजा सवाई मानसिंह को 'आजीवन' राजप्रमुख बनाया जाएगा. उदयपुर महाराणा भूपाल सिंह को 'महाराज प्रमुख' का विशेष सम्मान दिया जाएगा, लेकिन यह पद उनकी मृत्यु के साथ समाप्त हो जाएगा. कोटा महाराव भीम सिंह को उप राजप्रमुख बनाया जाएगा.

राजाओं के लिए निश्चित प्रिवी पर्स तय किए गए.

जयपुर को 1 लाख रुपए, जोधपुर को 17.5 लाख रुपए, बीकानेर को 17 लाख रुपए, राजप्रमुख (जयपुर) को 5.5 लाख रुपए वार्षिक भत्ता दिया जाएगा.

इस समझौते के तहत राजस्थान की चार प्रमुख रियासतों - जयपुर, जोधपुर, जैसलमेर और बीकानेर - ने राजस्थान में विलय पर सहमति जताई. 30 मार्च 1949 को जयपुर, जोधपुर, जैसलमेर और बीकानेर को 'संयुक्त राजस्थान' में मिलाकर 'वृहत्तर राजस्थान' (Greater Rajasthan) का गठन किया गया.

वृहत राजस्थान में राजप्रमुख महाराजा सवाई मानसिंह (जयपुर) नियुक्त किये गये. महाराज प्रमुख महाराणा भूपाल सिंह (उदयपुर, सम्मानजनक पद), उप राजप्रमुख महाराव भीम सिंह (कोटा), जयपुर को राजधानी बनाया गया.

प्रशासनिक निर्णय एवं विभागों का विभाजन किया गया. उच्च न्यायालय - जोधपुर, शिक्षा विभाग - बीकानेर, खनिज, सीमा शुल्क एवं आबकारी विभाग - उदयपुर, वन एवं सहकारिता विभाग - कोटा, कृषि विभाग - भरतपुर। 30 मार्च 1949 को सरदार वल्लभभाई पटेल ने 'वृहद राजस्थान' का उद्घाटन किया.

इस दिन को राजस्थान के आधिकारिक स्थापना दिवस के रूप में चुना गया और तब से हर वर्ष 30 मार्च को 'राजस्थान दिवस' मनाया जाता है.

राजस्थान का एकीकरण: सात चरणों में बना वर्तमान राजस्थान

पांचवां चरण: संयुक्त वृहत्तर राजस्थान (15 मई 1949)

राजस्थान के एकीकरण की दिशा में 15 मई 1949 को 'मत्स्य संघ' को वृहद राजस्थान में मिला दिया गया तथा 'संयुक्त वृहद राजस्थान' का गठन किया गया. मत्स्य संघ की चार रियासतें (अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली) तथा नीमराणा ठिकाना 18 मार्च 1948 को ही भारत में विलीन हो चुकी थीं, लेकिन 15 मई 1949 को इन्हें आधिकारिक रूप से राजस्थान में शामिल कर लिया गया. मत्स्य संघ के मुख्यमंत्री शोभाराम को राजस्थान सरकार के मंत्रिमंडल में शामिल किया गया. यह कदम महज औपचारिकता मात्र था, क्योंकि मत्स्य संघ के विलय की योजना पहले ही तय हो चुकी थी.

छठा चरण: राजस्थान संघ (26 जनवरी 1950)

26 जनवरी 1950 को, जिस दिन भारत का संविधान लागू हुआ, सिरोही रियासत को राजस्थान में मिला दिया गया, जिससे राजस्थान का क्षेत्रफल और बढ़ गया. हालांकि, सिरोही की आबू और देलवाड़ा तहसील को बॉम्बे प्रांत (वर्तमान गुजरात) में मिला दिया गया, जिसका विरोध भी हुआ. इसी दिन राजस्थान को आधिकारिक तौर पर 'राजस्थान' नाम मिला और यह भारत गणराज्य का हिस्सा बन गया.

सातवां चरण: वर्तमान राजस्थान (1 नवंबर 1956)

राज्य पुनर्गठन आयोग (फजल  अली आयोग) की सिफ़ारिशों के बाद 1 नवंबर 1956 को राजस्थान का अंतिम स्वरूप तय किया गया. सिरोही की आबू-देलवाड़ा तहसीलों को वापस राजस्थान में शामिल कर दिया गया. अजमेर-मेरवाड़ा जो पहले केंद्र शासित प्रदेश था, राजस्थान का हिस्सा बन गया। मध्य प्रदेश के मंदसौर ज़िले के सुनेल टप्पा क्षेत्र को राजस्थान में मिला दिया गया. झालावाड़ ज़िले के सिरोंज क्षेत्र को मध्य प्रदेश को सौंप दिया गया. इस प्रक्रिया के बाद राजस्थान का अंतिम स्वरूप तैयार हुआ, जिसमें 26 ज़िले बनाए गए.

विलय के समय कई रियासतों के शासकों ने अपने विशेषाधिकारों जैसे महल, किले, कर छूट, पानी-बिजली की मुफ्त आपूर्ति आदि की मांग की. बीकानेर महाराजाओं ने अपने हीरे-जवाहरातों और अन्य संपत्तियों की सुरक्षा के लिए दबाव डाला.

स्वतंत्रता सभी के लिए- सरदार पटेल

दीवान जरमनी दास की पुस्तक महाराजा में लिखा है कि राजाओं द्वारा अपने विशेषाधिकारों की मांग के लिए खेले गए कूटनीतिक खेल आज भी भारतीय राजनीति के इतिहास में चर्चा का विषय हैं. पटेल ने स्पष्ट रूप से कहा कि स्वतंत्रता का मतलब सभी के लिए समान अधिकार है, न कि केवल कुछ चुनिंदा लोगों के लिए! पटेल की जिद के कारण राजाओं को अपने कुछ विशेषाधिकार छोड़ने पड़े और यह भारतीय गणतंत्र की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम साबित हुआ. बाद में इंदिरा गांधी ने उन्हें पूरी तरह से खत्म करने में अहम भूमिका निभाई.

राजाओं को सताने लगा था गद्दी से जबरन उतारे जाने का डर

विलय की यह कहानी सिर्फ़ राजाओं और पटेल तक सीमित नहीं थी. आम लोग भी अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे थे. राजस्थान आंदोलन समिति नामक संस्था ने इस विलय के लिए ज़ोरदार मुहिम शुरू की. लोगों ने नारे लगाए "हमारा राज्य, हमारा अधिकार!" राजाओं को अब डर सताने लगा कि अगर उन्होंने विलय का समर्थन नहीं किया तो जनता खुद ही उन्हें गद्दी से उतार देगी. इस दबाव के चलते कई राजा भारत में शामिल होने को मजबूर हो गए.

आधुनिक राजस्थान का हुआ जन्म

राजस्थान का एकीकरण सिर्फ़ कागज़ पर लिखी कहानी नहीं थी. यह संघर्ष, रणनीति, जनजागृति और पटेल की कूटनीति का अद्भुत संगम था. राजस्थान आज जिस रूप में हमारे सामने है, वह इन्हीं ऐतिहासिक घटनाओं का परिणाम है. इसलिए अगली बार जब आप जयपुर में सिटी पैलेस, जोधपुर में मेहरानगढ़ किला या उदयपुर की झीलें देखने जाएं तो याद रखें कि ये सिर्फ किले और महल नहीं हैं, बल्कि एकता और संघर्ष की कहानियां हैं, जिन्होंने आधुनिक राजस्थान को जन्म दिया.
 

Topics mentioned in this article