Holi in Rajasthan: होली पर वागड़ की अनूठी परंपरा, जहां पत्थरों से खेली जाती है Holi

Holi With Stones: पत्थरों से होली खेलने की करीब 400 वर्ष पुरानी परंपरा के कारण यहां की होली पूरे वागड़ अंचल में चर्चित एवं लोकप्रिय है. एक दूसरे को पत्थर मारते हुए होली खेलने को 'राड़' के नाम से जाना जाता है.

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पत्थरों से होली खेलते हुए लोग.

Holi Celebration in Rajasthan: देश में रंग, उमंग और उल्लास के महापर्व होली को मनाने का हर क्षेत्र का अपना रंग और ढंग है. दक्षिणी राजस्थान के वागड अंचल में भी होली पर्व पर ऐसी प्रथाएं और अनूठी परंपरा आज भी जीवित हैं जिनके बूते अलग ही पहचान कायम है. जिले के भीलुडा गांव में भी ऐसी अनोखी परंपरा है. होली के दूसरे दिन धुलंडी के दिन विशिष्ट खेल का प्रदर्शन होता है. रंगों के इस त्योहार को यहां के लोग एक दूसरे पर पत्थर बरसाकर मनाते हैं. होली पर 'पत्थरों की राड़' के नाम से मशहूर खेल में कहीं लोग चोटीले भी होते हैं, लेकिन इसके पीछे भी अलग ही मान्यता है. 

1 बजे से 3 बजे तक कार्यक्रम

पत्थरों से होली खेलने की करीब 400 वर्ष पुरानी परंपरा के कारण यहां की होली पूरे वागड़ अंचल में चर्चित एवं लोकप्रिय है. एक दूसरे को पत्थर मारते हुए होली खेलने को 'राड़' के नाम से जाना जाता है. भीलूड़ा गांव में होली के अवसर पर रात को होली प्रकटने पर यहां के लोग खुशियां मनाते हैं. दूसरे दिन धुलंडी के अवसर पर स्थानीय पटवार घर के निकट परंपरागत गैर में हजारों लोग हिस्सा लेते हैं. गैर खेलने का यह कार्यक्रम दोपहर 1:00 से 3:00 तक चलता है. क्षेत्र के लोग ढ़ोल कुण्डी की थाप पर मस्ती के आलम में झूमते हुए परंपरागत गैर नृत्य खेलते हैं.

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हर साल 40-50 होते हैं घायल

गैर नृत्य के बाद एक अनोखा साहसिक एवं रोमांचकारी कार्यक्रम पत्थर से राड़ खेलने के रूप में शुरू होता है. रघुनाथ जी मंदिर के पास मैदान में सैकड़ो लोग हाथों में पत्थर ढ़ाल एवं गोफण लिए जमा हो जाते हैं. कुछ ही समय में चार-चार सौ लोगों की टोलिया एक दूसरे पर पत्थर बरसाना शुरू कर देती है. इन टोलियो के मध्य दूरी करीब 60 से 70 मीटर की होती है, जिसमें आगे हाथों से एवं पीछे गोफण से पत्थर मारने वाले लोग होते हैं. करीब तीन घंटे तक चलने वाले इस रोमांचक खेल को देखने वाले दर्शकों की संख्या हजारों में होती है. यहां दर्शक 1 किलोमीटर के क्षेत्र में सुरक्षित एवं ऊंची जगह पर बैठकर रोमांस करी खेल का आनंद लेते हैं. परंतु बीच-बीच में कई बार खेल चर्मोत्कर्ष पर आ जान से दर्शकों को भी अपना स्थान छोड़ दौड़ना छिपाना पड़ता है. राड़ के इतिहास में प्रतिवर्ष यहां 40 से 50 लोगों को सामान्य से गंभीर चोट तक पहुंचती है. 

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5 बूंद खून धरती पर गिरना जरूरी

गत कुछ वर्षों में प्रशासन एवं राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों ने पत्थरों की इस राड़ को बंद करने को लेकर कई बार प्रयास भी किया, लेकिन क्षेत्र के लोगों ने इसे अपनी सांस्कृतिक परंपरा बढ़कर बंद नहीं किया. पत्थरों की राड़ को लेकर यहां कई किवंदतियां प्रचलित हैं. दूसरे दिन इस खेल के दौरान पांच बूंद खून तो यहां की धरती पर गिरना जरूरी है. यह परंपरा वर्षो से चली आ रही है. इसे बंद नहीं किया जा सकता. यहां राड़ खेलने जेठाणा, सेलोता, सागवाड़ा, गोवाड़ी, और आजू-बाजू के कहीं गांव के ग्रामीण यहां आते हैं. वर्षों पुरानी इस सांस्कृतिक विरासत को यहां के लोग आज भी बरकरार रखे हुए हैं.

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समय के साथ बदला राड़ का स्वरूप

समय के साथ राड़ के आदर्श स्वरूप में बदलाव आ चुका है. कभी खेल की भावना से खेल जाने वाली राड़ मैं आज आपसी रंजीत तक निकल जाती है. परंपरा अनुसार आसपास के गांव में पूर्व में राड़ खेलने आमंत्रण स्वरूप नारियल भेजे जाते थे. लेकिन अब वह सब बंद हो चुका है. पूर्व में राड़ के अंत में सेलोता गांव का चौबीसा घरना का व्यक्ति रुमाल फहराता हुआ राड़ को बंद करने की घोषणा करता था, लेकिन अब अंधेरा होने पर राड़ स्वंय बंद हो जाती है.