This Article is From May 03, 2024

73 साल के हुए 'सियासत के जादूगर' अशोक गहलोत, ऐसे तय किया जननायक तक का सफर

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Iqbal Khan

राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत आज 73 साल के हो गए. उनका जन्म 3 मई 1951 को जोधपुर में हुआ था. अशोक गहलोत भारतीय राजनीति में उन नेताओं में शुमार हैं, जो साधारण परिवार से निकले और देश की सियासत के फलक पर छा गए. एक सामान्य से छात्र नेता से देश के सबसे बड़े राज्य के तीन-तीन बार मुख्यमंत्री बने. दिल्ली की सरकार में कई मंत्रालय संभाले और कांग्रेस के संगठन में अध्यक्ष पद के बाद सबसे ताकतवर पद संगठन महासचिव बने. अशोक गहलोत के राजनीतिक करियर को देखें तो यह समझ आता है कि, भारतीय लोकतंत्र की कितनी बड़ी ख़ासियत है जो एक आम नागरिक को सत्ता के मज़बूत किलों की चाबियां संभालने का अवसर देता है. 

छात्र राजनीति से शुरुआत 

अशोक गहलोत देश के उन गिने-चुने नेताओं में से हैं, जिनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत छात्र नेता से हुई. उस समय गहलोत जोधपुर के जय नारायण व्यास यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे. उन्होंने यहां से पहले विज्ञान संकाय में बैचलर्स किया और उसके बाद अर्थशास्त्र में मास्टर्स की डिग्री हासिल की.

गहलोत ने छात्रसंघ चुनाव लड़ा लेकिन हार गए. अशोक गहलोत ने अपने राजनीतिक जीवन में ऐसे कई मुकाम हासिल किए, जो देश में चुनिंदा नेताओं के ही हिस्से में आ सके हैं. उनमें से एक है सबसे काम उम्र में कांग्रेस के छात्र संगठन NSUI के राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष बनाये गए. 

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गांधी परिवार के साथ गहलोत

पहला लोकसभा चुनाव हारे....फिर कभी नहीं हारे 

अशोक गहलोत जोधपुर से पहला लोकसभा चुनाव हार गए थे. 1980 में फिर से उन्हें पार्टी ने उम्मीदवार बनाया और वो पहली बार महज 29 साल की उम्र में संसद पहुंचे. पहली बार सांसद बने और केंद्रीय मंत्री भी. युवा थे, इसलिए युवा और खेल मामलों के जूनियर मंत्री बनाये गए. उसके बाद वो लगातार पांच लोकसभा चुनाव जीते और हर बार मंत्री बने. इस दौरान कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष और महसचिव बनाये गए. 

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फिर आई मुख्यमंत्री बनने की बारी 

साल 1998 में देश में लोकसभा चुनाव हुए, गहलोत एक बार फिर जोधपुर से सांसद बने लेकिन उन्हें मंत्री नहीं बनाया गया. इस पर गहलोत कहते हैं, ' उस दिन मैंने अपने आवास पर सबको मिठाई बांटी, मैं खुश था कि मैं मंत्री की ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गया हूं'. कहते हैं गहलोत ये यही सियासी ट्रिक थे, जिसकी बुनियाद पर वो अपनी राह बना लेते हैं.

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NSUI के दिनों में गहलोत

शायद गहलोत को आभास हो गया था कि, उन्हें कोई बहुत बड़ा इनाम मिलने वाला था. अगले ही साल राजस्थान में विधानसभा चुनाव हुए और कांग्रेस ने बहुमत हासिल कर लिया, परसराम मदेरणा जैसे दिग्गज नेता मुख्यमंत्री की दौड़ में थे, लेकिन किसे पता था मरुप्रदेश की राजनीति में एक नया सितारा उभरने वाला है, घोषणा हुई और अशोक गहलोत को प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया गया. 

प्रो-पीपल की पहचान मिली, पर चेहरे पर जीत नहीं 

अशोक गहलोत जब पहली बार मुख्यमंत्री बने तो राजस्थान में एक नारा गूंजता था, 'पानी बचाओ, बिजली बचाओ, सबको पढ़ाओ'. गहलोत ने अपने इस कार्यकाल में ढेरों वेलफेयर स्कीम निकालीं उन्होंने स्टेटस को के कल्चर को खत्म किया. लोगों के बीच गए. उनमें घुल मिल गए. इसलिए उनकी पहचान 'मारवाड़ का गांधी' की बनी तो कइयों ने उन्हें 'जननायक' का खिताब दिया. लेकिन इतने के बावजूद भी अपने मुख्यमंत्री रहते हुए कभी वो सरकार रिपीट नहीं करा सके. उनके बारे में यह बात स्थापित की गई कि वो दूसरों के नाम पर चुनाव जीतते हैं. 

सियासी जादूगर, वफादार और रगड़ाई

राजस्थान में अशोक गहलोत की पहचान सियासी दांवपेच में माहिर नेता की रही है. उनके बारे में कहा जाता है सियासी अखाड़े में उनके दांव के सामने कोई नहीं टिकता. लेकिन यह सौ फीसद सही भी नहीं है. परसराम मदेरणा, हेमाराम चौधरी, सीपी जोशी, नंदकिशोर शर्मा, राजेश पायलट जैसे कांग्रेस के उस समय के दिग्गज नेताओं के बीच गहलोत ने जो जगह बनाई, वो सिर्फ दांव पेच नहीं बल्कि उसमें उनका तजुर्बा, लगातार मेहनत, आलाकामन और पार्टी से वफादारी, लोगों से सीधा जुड़ाव भी शामिल है. 
 

और वही वजह थी कि, गहलोत ने इंदिरा गांधी से लेकर राहुल गांधी तक कांग्रेस की तीन पीढ़ियों के साथ काम किया. इतना ही नहीं वो हर दशक में गांधी परिवार के सबसे वफादार और भरोसेमंद ग्रुप के  नेताओं में शामिल रहे.

वो मुख्यमंत्री रहते कभी पार्टी को सत्ता में वापसी नहीं करवा पाए. लेकिन वो जब भी हारे संगठन ने उन्हें खूब इस्तेमाल भी किया. 2013 में मोदी लहर में कांग्रेस 21 सीट पर सिमट गई. उसके बाद अशोक गहलोत को कांग्रेस अध्यक्ष के बाद सबसे बड़ा पद संगठन महासचिव दिया गया. उन्हें गुजरात का प्रभारी बनाया गया. 2020 में जब सचिन पायलट ने की 'बग़ावत' की वक्त गहलोत ने कहा था, ' उनकी रगड़ाई नहीं हुई'. शायद इस रगड़ाई से उनका मतलब उनके 50 साल का सियासी संघर्ष था. 

इकबाल खान NDTV में पत्रकार हैं...

डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.