राजस्थान के लोकदेवता: आस्था, समाज और संस्कृति का अनमोल संगम

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Deepak Charan

Rajasthani Culture: भादवे के महीने में राजस्थान में बड़ी-बड़ी पैदल यात्राएं दिखाई देती हैं. कोई रामदेवरा कोई परबतसर तो कोई गोगामेड़ी की ओर हाथ में नेजा लिए बढ़ रहा होता है. सावन की बारिश के बाद रेगिस्तान की माटी पर झाड़ियों और घास से क्षितिज तक हरी चादर फैली होती है. इसी समय किसान बारिश की आस लिए और पकने के सुंदर सपने को संजोए, अपने–अपने लोक देवता को मनाता (पूजता) है. गांव-गांव में अलगोजे और तंदुरों की तान से लोग अपने अपने इष्ट को रिझाते हैं.

वास्तव में देखा जाए तो भादवे का महीना लोकदेवताओं का महीना ही है. पूरे महीने गांव-गांव से पैदल यात्री जत्थों में अपने अपने इष्ट की यात्राओं पर जाते हैं. बहुत से लोग गांव के थान-देवरों पर ही दिन प्रतिदिन के छोटे और बड़े दुखों का प्रस्ताव लेकर धोक लगाने पंहुचते हैं.

लेकिन लोकदेवताओं के संदर्भ में यह समझना जरूरी है कि लोक देवताओं का यह संसार बनता कैसे है? क्या इसका रिश्ता भौगोलिक और सामाजिक जरूरतों से है. लोक देवताओं के आख्यानों और कथाओं में वह कौन–कौन से उदाहरण है जिनसे प्रेरित होकर लोक अपने तर्क बनाते हैं. 

लोक संस्कृति में देवताओं, गीतों, मेलों और त्यौहारों का योगदान

राजस्थानी समाज जहां ग्रामीण आबादी का बड़ा हिस्सा पशुपालन से जुड़ा हुआ है, यही कारण है कि राजस्थान के अधिकांश लोक देवी-देवताओं के लोक आख्यानों से जीव रक्षा, मवेशियों के लिए संघर्ष के आख्यान जुड़े हुए हैं. उदाहरण के लिए लोकदेवता तेजाजी गायों को छुड़ाने के प्रयास में अपने प्राण दिए, वहीं पाबू राठौड़ ने भी गायों के लिए अपने बहनोई से युद्ध किया, हड़बू सांखला ने पंगु मवेशियों की साख–संभाल में ही अपना जीवन बिताया इसी क्रम में गोगाजी और लोकदेवी करणी माता से मवेशी पशुओं की रक्षा से जुड़े बहुत से कहानियां प्रचलन में है.

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इन सभी उदाहरणों से हमें यह समझ तो मिलती ही है कि मध्यकालीन राजस्थान के समाज में दुधारू पशुओं की अहमियत बड़ी थी. यहां तक की रेगिस्तान के लोग अपने सहोदर, यानी अकाल के दिनों में भी यह पशुधन ही होता था जो एक जगह से दूसरी जगह संपति के रूप में पलायित हो सकता था. साथ ही पशुओं के उत्पाद (दूध, खाद, ऊन) से ही किसान अपने अकाल के दिन बिताता था.

सर्पदंश और लोकदेवता

राजस्थान का बड़ा हिस्सा पशुपालन और बरसाती फसलों पर निर्भर है. बारिश के इन्हीं चार महीनों से फसल की उम्मीद सबसे ज्यादा होती है. लेकिन इसी महीने में खेत और गांव गुवाड़ में सबसे अधिक सरीसृप जीव-जानवर निकलते हैं. खेतों में काम करने के दौरान सांप–गोहरों के काट लेने की घटनाएं बढ़ जाती है. बुनियादी चिकित्सा सुविधाओं के अभाव और कम जागरूकता के चलते, समाज में गांव–गांव में लोकदेवताओं के थान, चबूतरों और देवरों पर सर्पदंश का इलाज होता है. 

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यह चिकित्सा व्यवस्था के समानांतर चल रहा संसार है. लोक विज्ञान और अंधविश्वास की बहस में न जाते हुए, इसका यह पक्ष भी अपना ध्यान खींचता है कि कैसे लोक समाज देवताओं में अपने लिए जरूरी तत्व ढूंढ़ता है. आज भी आम कृषक समाज की आस्थाएं इसी व्यवस्था में बनी हुई है. राजस्थान में सर्पदंश के इलाज के लिए लोकदेवता तेजाजी, गोगाजी, केसरिया कंवरजी और हरिराम बाबा प्रसिद्ध है. 

सांप्रदायिक सौहार्द के साथ और छुआछूत के विरुद्ध लोकदेवता 

लोकदेवताओं के जीवन के कई प्रसंग मिलते हैं जिनमें वे सामाजिक समरसता के लिए प्रयास करते हैं और छुआछूत के खिलाफ लड़ाई लड़ते हैं. इसमें सबसे बड़ा उदाहरण रूणेचा के रामदेव का है. जिन्हें  रामसा पीर के नाम से जाना जाता है. रामदेव पीर ने 13 वी शताब्दी में हिंदू-मुस्लिम एकता और छुआछूत के खिलाफ काम किया. उनकी मुंहबोली बहन डाली बाई, मेघवाल जाति से थी. प्रचलित इतिहास के अनुसार रामदेव पीर तंवर वंशीय राजपूत थे (इस मत पर इतिहासकारों में बहस है), लेकिन उन्होंने दलित उद्धार को लेकर समाज में काम और उपदेश दिए.

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इसीलिए रामसा पीर के अधिकांश अनुयायी दलित(मेघवाल) समाज से है. इसी क्रम में लोकदेवता गोगाजी का नाम भी है. उन्हें कायमखानी मुसलमान अपना पुरखा मानते हैं और जाहरपीर के नाम से जानते हैं. पाबूजी राठौड़ के दो साथी चांदा और डेहमल भील–मेघवाल समाज से थे. यही कारण है कि समाज में इन देवताओं के प्रति आस्थाएं बहुत गहरी है क्योंकि इन्होंने जाति और धर्म के विभाजन के विरुद्ध कई उदाहरण पेश किए. 

पशु मेले और लोक देवता 

आम जनजीवन का आर्थिक ताना–बाना और व्यापार का बड़ा हिस्सा भी पशुओं से जुड़ा हुआ ही था. इसीलिए लोक देवताओं के मेले पशुओं की खरीद और बिक्री का केंद्र भी होते हैं. राजस्थान में बहुत से प्रसिद्ध पशुमेले लगते हैं, इनमें, परबतसर पशु मेला, मेड़ता, पुष्कर, मल्लीनाथ, नागौर और रामदेवरा पशुमेला प्रमुख हैं. राजस्थान में सर्वाधिक पशु मेले नागौर जिले में लगते हैं. नागौरी नस्ल के बैल देशभर में प्रसिद्ध है.

सांस्कृतिक समृद्धता और लोकदेवता 

लोकदेवताओं से जुड़े हुए बहुत से गीत और कथाएं हैं. अलग-अलग जातियां अपने गीतों, कथाओं एवं नृत्यों से इन देवताओं को याद करती हैं. कामड़ पंथ के लोग रामदेव जी के भजनों पर तेरह ताली नृत्य करते हैं. भोपा जाति के लोग रावण हत्थे से पाबूजी की फड़ बांचते हैं.

जसनाथी संप्रदाय के अनुयायी जसनाथ जी की स्तुति में अग्नि नृत्य करते हैं. तेजाजी की स्तुति में शेखावाटी अंचल में कच्छी घोड़ी नृत्य किया जाता है वहीं मारवाड़ में तेजा गायन प्रसिद्ध है. लोकदेवताओं के यह लोक संगीत और नृत्य राजस्थानी संस्कृति को समृद्ध करते हैं. 

लोक देवताओं का संसार राजस्थानी समाज की आस्था, आर्थिकी, सामाजिकी और संस्कृति में रचा बसा है. इस समाज की सांस–सांस की आस इन्हीं देवताओं से बंधी है. समाज के तर्क और व्यवहार को लोकदेवताओं का जीवन प्रभावित करता है. इसलिए इस समाज को समझने के लिए इनका अध्ययन जरूरी है.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

दीपक चारण हरिदेव जोशी पत्रकारिता विश्वविद्यालय जयपुर में विकास संचार स्नातकोत्तर के छात्र हैं. राजस्थान के इतिहास, कला - संस्कृति, समाज एवं साहित्य के गंभीर अध्येता हैं.

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