आज बात करना चाहता हूं, हम लोगो की हॉबीज़ के बारे में... किसी को घूमना-फिरना पसंद है, किसी को घर पर बैठे रहना... किसी को लिखने-पढ़ने का शौक होता है, किसी को खेलने-कूदने का... किसी को टीवी देखना पसंद होता है, किसी को गीत सुनते या गुनगुनाते रहना... किसी को खामोश बैठकर सोचने का शौक होता है, किसी को सिर्फ़ बतियाते रहने का...
सभी की तरह मेरे भी कुछ शौक हैं - लिखना-पढ़ना, पुराने हिन्दी फिल्मी गीत सुनना और गुनगुनाना, सिनेमा हॉल में जाए बिना फिल्में देखना भी पसंद है, और इन्टरनेट सर्फ करते रहना भी... लेकिन मेरा सबसे पुराना और सबसे बड़ा शौक है कार चलाना - जब भी मन में आता है (और इत्तफ़ाक से उसी वक्त फ़ुर्सत भी हो) तो मैं कार उठाकर पत्नी-बच्चों के साथ घूमने निकल पड़ता हूं...
लेकिन अब कार चलाते हुए डर भी लगता है... भले ही मैं हर वक्त सावधान रहूं, लेकिन क्या पता, कोई दूसरा ड्राइवर कभी कोई बेवकूफी कर दे, और अनहोनी हो जाए... हालांकि यह दूसरे ड्राइवर भी हमीं जैसे होते हैं, लेकिन संभवतः अपनी या दूसरों की ज़िन्दगी की कीमत को नहीं समझ पाते... भगवान जाने, क्या वजह होती हो इस लापरवाही की, लेकिन मुझे हैरानी होती है - क्या इन्हें (गलती या लापरवाही करने वाले दूसरे ड्राइवरों को) कभी अपने माता-पिता, भाई-बहन, बीवी-बच्चे याद नहीं आते...? गाड़ी चलाने वाले इन लापरवाह लोगों को कुछ हो गया, तो कहां जाएंगे वे परिवार वाले, कैसे-क्या करेंगे, बेचारे...
लेक्चर नहीं दे रहा हूं, लेकिन मुझे तो अपने माता-पिता, पत्नी और बच्चे बहुत याद आते हैं... हमेशा यही चिंता बनी रहती है कि अगर मुझे कुछ भी हो गया तो मेरे बाद उनका क्या होगा... लेकिन फिर तुरंत ही यह ख़याल भी आता है कि बीवी-बच्चों और मां-बाप से प्यार तो सभी को होता है, फिर ये लोग लापरवाही क्यों करते हैं - जवाब नहीं मिलता...
सो, इस बारे में मैंने अपनी पत्नी से चर्चा की - उनका विचार था - शायद ऐसे ड्राइवरों को गाड़ी या मोटरबाइक को तेज़ चलाकर सबसे आगे पहुंच जाने का एहसास सुकून देता होगा... मैंने तुरंत ही उनकी बात काटी - मुझे भली प्रकार याद है, किसी जनरल नॉलेज क्विज़ में मैं अव्वल आया था... जब मैं कप और सर्टिफिकेट लेकर घर पहुंचा, पिता दफ़्तर गए हुए थे, और मां किसी काम से बाज़ार गई थीं... अव्वल आने का सारा मज़ा जाता रहा... अरे यार, अगर आपको कुछ हो गया, या भगवान न करे, आप नहीं रहे, तो किस काम आएगी सबसे आगे पहुंच जाने की खुशी, और किसे खुश करेगा आपके सबसे आगे पहुंच जाने का एहसास...
पत्नी ने नया तर्क दिया - जल्दबाज़ी से कार या बाइक भगाने वाले अक्सर वे बच्चे होते हैं, जो किशोरावस्था में पहुंचे ही हैं, और संभवतः उम्र कम होने की वजह से ज़िन्दगी को संजीदगी से लेना जानते ही नहीं हैं, सो, तेज़ रफ़्तार में थ्रिल महसूस करते होंगे...
मेरा तर्क अब भी वही था... थ्रिल के चक्कर में माता-पिता के ख़्वाबों को सूली पर क्यों चढ़ाते हो, यार... कुछ साल पहले का एक हादसा याद आता है - दिल्ली के करीब गुड़गांव टोल रोड पर एक कार में सवार चार बच्चे एक्सीडेंट कर बैठे थे - उनमें से एक ही बच सका था... जो तीन दुनिया से गए, उनमें से कोई भी 18 से ज़्यादा बड़ी उम्र का नहीं था... कभी उनके माता-पिता से पूछो, कैसा लगा बच्चों के थ्रिल का स्वाद... हो सकता है, गति या स्पीड बच्चों के लिए थ्रिल का सबब होता हो, लेकिन याद रहे, उन अभागे माता-पिता के मुंह में 'थ्रिल' शब्द हमेशा के लिए कड़वाहट भरकर गया है...
और हां, सिर्फ़ बच्चे या नौजवान ही तेज़ नहीं भागते, क्योंकि ट्रक ड्राइवर इस मामले में सबसे ज़्यादा बदनाम हैं... इन्हें तो शराब पीकर ट्रक चलाने के लिए भी हमेशा कोसा जाता है, लेकिन सोचकर देखें, परिवार और रिश्तेदार तो ट्रक ड्राइवर के भी होते हैं... ट्रक, यानी बड़ी गाड़ी पर सवार होने से यह गारंटी तो मिल नहीं सकती कि हादसे की सूरत में इन्हें कभी कुछ नहीं होगा, तो फिर ये लोग ऐसा क्यों करते हैं... संभव है, रात-रात भर ट्रक को चलाते रहने के लिए शराब पीकर जागना आसान लगने लगता हो, लेकिन ऐसा भी नहीं हो सकता, क्योंकि मैंने सुना है कि शराब पीने के बाद किसी के भी रिफ्लेक्सिस या स्नायु तंत्र उतनी सहजता से काम नहीं कर सकते, जितनी सहजता से सामान्य परिस्थितियों में करते हैं... तो कैसे मुमकिन है कि वे लोग इस बारे में जानते-समझते नहीं हों... खैर, वे लोग खुद के बारे में और अपने परिवार के बारे में नहीं सोचते, यह अफ़सोसनाक है, लेकिन उन्हीं लोगों की वजह से शहर के बाकी लोग भी हमेशा खतरे के निशान पर टंगे रहते हैं, उनके बारे में कौन सोचेगा...
पत्नी के तरकश में तर्क खत्म नहीं हुए थे - अगर ट्रक ड्राइवर या लापरवाही से गाड़ी चलाने वाले खुद ही अपने कुनबे का भला नहीं सोच सकते, तो हमें क्या फ़र्क पड़ता है... इस पर मुझे अपने पसंदीदा एक उपन्यासकार की एक रचना में दर्ज पंक्तियां याद आईं... अगर किसी पड़ोसी का बेटा ड्रग्स लेना शुरू कर देता है, तो यह उसकी ही प्रॉब्लम है... लेकिन अगर पड़ोसी का वही ड्रग एडिक्ट बेटा अपनी ड्रग्स की ज़रूरत को पूरा करने के लिए किसी और पड़ोसी की कार से स्टीरियो या टायर चुरा लेता है, तो उस वक्त वह लड़का अपने माता-पिता या सिर्फ़ कार वाले पड़ोसी की नहीं, समूचे समाज की समस्या बन जाता है... ठीक इसी तरह, ट्रक ड्राइवर भी शराब पीने से पहले क्या सोच रहा था, इससे मुझे कतई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन जब शराब पीने के बाद वह ट्रक लेकर सड़क पर आता है, तो वह समूचे समाज के लिए खतरा है, समूचे समाज की समस्या है...
पत्नी फिर बोलीं - शराब पिए हुए शख्स को हम, यानी सारी सोसाइटी, ट्रक चलाने देते हैं, लाइसेंस हासिल नहीं कर पाने की उम्र में किसी बालक या बालिका को हम मोटरसाइकिल या कार चलाने देते हैं, तो क्या यह हमारी खुद की कमजोरी नहीं है... सचमुच, इस बार मेरे पास कोई जवाब नहीं मिला... सचमुच, यह हमारी ही कमज़ोरी है... मान लिया, शराब पीकर ट्रक चलाते ट्रक ड्राइवर को किसी भी वजह से पुलिस वाला नज़रअंदाज़ कर सकता है, लेकिन क्या कोई माता-पिता भी अपनी ही नाबालिग़ औलाद को रोक नहीं सकते... औलाद से प्यार जताने के लिए उसके नाबालिग़ हाथों में कार या बाइक की चाबी देते माता-पिता दरअसल ऐसी बेवकूफ़ी कर रहे होते हैं, जिसके बाद, परमात्मा न करे, हो सकता है, प्यार जताने के लिए औलाद ही न रहे...
अब ट्रक ड्राइवर को नज़रअंदाज़ कर देने वाला पुलिस वाला क्या करेगा, क्या नहीं करेगा, मैं कतई नहीं जानता, लेकिन आज मैं आप सभी से, हमारे समाज से, और खुद से भी, वादा करता हूं कि जब तक मेरा बेटा बालिग़ न हो जाएगा, वह मेरी कार को हाथ भी नहीं लगा पाएगा... मैं अपने बेटे को कभी किसी की ज़िन्दगी खतरे में नहीं डालने दूंगा... मैं उसे ऐसा मौका कभी नहीं दूंगा कि वह ख़ुद ही मुझसे कहीं दूर चला जाए, क्योंकि मैं अपने बेटे से बहुत प्यार करता हूं... आप भी करते हैं न...?
विवेक रस्तोगी NDTV.in के संपादक हैं...
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