अजमेर हो या कहीं और - कब रुकेगा दुष्कर्म और दरिंदगी का दौर

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Dr. Shipra Mathur

दुष्कर्मी ने महिला की कलाई पर गुदवा दिया था - मेरे साथ बलात्कार हुआ है. वो अस्पताल में भर्ती थी. राजस्थान महिला आयोग की उस वक़्त की अध्यक्ष ने उसी अमिट लिखाई वाली कलाई के साथ सेल्फ़ी खिंचवाकर सोशल पोस्ट डाली थी. खूब खिंचाई हुई, खूब किरकिरी हुई, मगर इस्तीफ़ा नहीं हुआ. फिर कांग्रेस का राज आया. एक यौनभक्षी ने चार साल की मासूम को अपनी हवस मिटाकर, कुएँ में लटका दिया. गैंगरेप और क़त्ल के इतने मामले आये कि हिसाब रखना मुश्किल हो गया.

अजमेर में साल 1992 में यौन शोषण और ब्लैकमेलिंग की शिकार ढाई सौ बेटियों के गुनहगारों के तार अजमेर दरगाह के ख़ादिमों और यूथ कांग्रेस से जुड़े मिले. चंद बड़े नेताओं के नाम भी थे, जो इन सालों में छिपा लिए गए. छह गुनहगारों को हाल ही में 32 साल बाद, पॉक्सो कोर्ट ने उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई. ये देश ही नहीं, दुनिया का अकेला ऐसा मामला है, जिसमें नेता, सत्ता और प्रतिपक्ष, पुलिस, न्यायपालिका और मीडिया सब कठघरे में खड़े मिले.

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पिछले सालों में प्रदेश में अनगिनत और अनहोनी घटनाएं हुई है. मगर कभी सड़कें जाम नहीं हुईं, सरकारें नहीं हिलीं, विधानसभा स्थगित नहीं हुई, किसी की कुर्सी नहीं गई.देश की नज़र से भी ये मुद्दे छिपे रहे.न्यायपालिका ने भी देश में गूंजने वाली तल्ख़ टिप्पणी नहीं की. क़ानून ज़रूर कड़े हुए मगर पिछले चार पाँच सालों में हम वहाँ पहुँचे हैं, जिसके लिये कभी उत्तर प्रदेश बदनाम था.महिला सुरक्षा चुनावी मुद्दा भी था, लेकिन अब हर दिन हो रही दुष्कर्म की घटनाओं ने ये भ्रम तोड़ दिया कि सत्ता बदलने से जुर्म की रफ़्तार धीमी होगी या अपराधी सहमेंगे.

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महिला अपराधों में अव्वल राजस्थान

महिला अपराधों में राजस्थान अव्वल ही नहीं, यूपी, एमपी, महाराष्ट्र और राष्ट्रीय औसत से कई पायदान आगे है. हर साल पाँच से छह हज़ार दुष्कर्म हो रहे हैं यहाँ. नेताओं की सफ़ाई सुनियेगा कभी, बढ़ते आँकड़ों पर कहेंगे, रिपोर्ट ज़्यादा हो रहे, और घटने पर ये नहीं मानेंगे कि दहशत बढ़ी है. इसी साल अलवर में गैंगरेप, प्रतापगढ़ में दुष्कर्म का दंश नहीं झेल पाने वाली आदिवासी बच्ची की ख़ुदकुशी, जोधपुर में बच्ची के साथ वहशीपन जैसे तमाम मामले प्रदेश पर पहले से लगे दाग और गहरे कर रहे हैं.जयपुर, जोधपुर, अलवर और भरतपुर इस मामले में बिल्कुल बेक़ाबू हैं.

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जो गिनती में है वो ये कि 2019 में 5997, 2020 में 5310, 2021 में 6337 यानी 19% ज़्यादा. जिनमें 1452 छोटी बच्चियों के साथ दुष्कर्म के मामले हैं. 6074 गुनहगार जानकार या रिश्तेदार ही है. 2022 में भी 5,399 का आँकड़ा दिखाता है कि कुछ नहीं थमा. कुछ नहीं उबला, कुछ नहीं बदला.गौर करने की बात ये है कि जो लगातार पार होती दिखी वो है, वो है हैवानियत की हदें.

पॉक्सो कोर्ट और सज़ा की कड़ाई के बाद से दुष्कर्म के बाद हत्या का सिलसिला चल पड़ा. पीछे कोई सुबूत न छूटें, अपराधी इतने शातिर हो गये हैं.देश में हो रही ऐसी वारदात में से 1.13% में दुष्कर्म के बाद पीड़िता की हत्या, क़ानूनी कड़ाई पर ज़ोरदार तमाचा है. जुर्म रोकने पर और सोच बदलने पर ज़्यादा संजीदगी से काम करना इसीलिए ज़रूरी है.एक वक़्त, ऐसे गुनाहगारों को पेज के शीर्षक में ‘पशु' लिखे जाने पर मैंने कड़ा एतराज कर उसे हटवाया. जानवर अगर पागल हो, तब भी हवस के लिए किसी को अपना शिकार नहीं बनाता.बेवजह नहीं काटता, नोंचता.

कई घटनाएँ एक साथ कौंधती हैं, जब बेटियों के ख़िलाफ़ जुर्म और बर्बरता झकझोरती थीं. वो दौर जब साल 2011 के सेंसस से राजस्थान का हाल जानकर बेहद शर्मसार हुए, मैंने अख़बारों में पैर जमाये सामंती सोच और अपने संपादकीय दायरे तोड़कर, बस्ती-बस्ती संवाद किया. महिला मुद्दों पर काम करने वालों और सरकारी एजेंसियों को साथ लिया. जागरूक नागरिकों, संगठनों और प्रशासन के साथ, इतनी बैठकें की, इतने अभियान छेड़े, जुनूनी साथियों के ज़रिये इतना लिखा, इतना उघाड़ा कि कोई सिरा छूट न जाए. 

अपराधियों को शह देने वाली व्यवस्था

ये वो वक़्त था जब भ्रूणहत्या और कन्या भ्रूणहत्या का फ़र्क़ तक लोगों को मालूम नहीं था. नवजात बच्चियाँ कहीं झाड़ियों में, नालों में, कहीं श्वानों की नोची हुई मिलती थीं. उन्हें कहाँ सौंपा जा सकता है, कैसे बचाया जा सकता है, इसका कोई इंतज़ाम नहीं था. जब करीबी और पहचान वाले नन्ही बच्चियों तक से हैवानियत से नहीं चूक रहे थे. उसकी और परिवार की नहीं, पूरे समाज की रूह तार-तार थी. तब लगता था जाने ऐसी कितनी वारदातें, घिनौनी हरकतें दबी हुई होंगी. डर और शर्म के मारे बाहर नहीं आती होंगी. जो तब भी सच था, और आज भी. तब लग रहा था कि हम समाज को सतर्क करने में कामयाब हुए लेकिन आज वही सब दोहराव देखकर लगता है कि अपराधियों को शह देने वाली पुलिस और व्यवस्था इन सालों में खूब पनपी है.

दुष्कर्म की खबरें तब भी पढ़ी नहीं जाती थीं, आज भी पढ़ने की हिम्मत नहीं होती. उससे गुज़रने वाली बेटियों के लिए ये कितना बड़ा ज़ख़्म होता है. उस वक़्त नागरिक-महिलावादी संगठनों के ‘सेलेक्टिव एक्टिविज़्म' से बहुत कोफ़्त होती थी. उनका खून घटना की शिकार हुई बच्ची, युवती या महिला की जाति और राजनीतिक इशारे देखकर खौलता था. मुझे याद है जब कहीं एक दलित बच्ची से हुए अपराध पर बवाल मचाने वाली दिल्ली वालों की प्रिय और जानी-मानी एक्टिविस्ट को मेरी इस बात का जवाब देते नहीं बना कि जयपुर की एक सामान्य वर्ग की बच्ची के बलात्कार पर उनकी आवाज़ क्यों सुनाई नहीं दी? नेताओं पर जाति की राजनीति के इल्ज़ाम से ज़्यादा संगीन अपराध इनके हिस्से का ही था, रहेगा.

नवजात हों, या नन्ही बालिका, स्कूल और कॉलेज जाने वाली या, शादीशुदा और कुँवारी. शहर की या गाँव की, कहीं भी तो महफ़ूज़ नहीं माँ-बहन-बेटियाँ. अलवर की वो बच्ची आज भी ज़ेहन में ज़िंदा है जब खेत से गुज़रते हुए, उसे किसी यौन विक्षिप्त ने शिकार बनाया, वो सँभली, स्कूल गई, पढ़ाई की और लौटकर घर पर बताया. तब ये सोच और पुख़्ता हुई कि बलात्कारी की बजाय उसकी शिकार बेटियाँ मुँह क्यों छिपायें? क्यों घुटें? उसे हम हमेशा के लिए पीड़िता कहकर क्यों पुकारें? और साथ ही ये भी कि अगर आम दुर्घटना की तरह इसे देखने लगें, तो कहीं ये और न बढ़ जायें? लेकिन अभी तो ये साबित हो रहा है कि हम सभ्य नहीं बर्बर समाज हैं.

रोकने की ज़िम्मेदारी किसकी?

इस विरोधाभास को कैसे मिटाएँ कि बेटियों को वर्क फ़ोर्स में आने लगें और अपराध की मानसिकता पनपती रहे? पिछले सेंसस के तुरंत बाद जिस सघनता से काम किया, उसके नतीजे आने वाली जनगणना में देखने का मन था.लेकिन यौन अपराधों और दुष्कर्म ने जो रफ़्तार पकड़ी है, उससे बेहतरी की उम्मीद कैसे लगायें? बढ़ते दुष्कर्मों के जवाब में सदन में राजस्थान को ‘मर्दों का प्रदेश' कहने वाला नेता फिर सीना चौड़ा कर विधानसभा में हैं.

इस बार चुने गये विधायकों में 22% पर दुष्कर्म और हत्या जैसे संगीन मामले हैं. तो कौन, किसकी आवाज़ बनेगा? और उनके दोहरेपन को हम भाँप भी कैसे पायेंगे? वही आयोजनों में, कार्यशालाओं में महिला सुरक्षा-सशक्तीकरण पर भाषण देंगे, और सब सुनेंगे, तालियाँ बजायेंगे.बेटियों को आगे बढ़ाने की घोषणाएँ हर सरकार में होती है, यौन हिंसा की शिकार बेटियों की मदद के लिए ‘वन स्टॉप सेंटर्स' बने हुए हैं, लेकिन इन अपराधों के आँकड़े नहीं बदल रहे.

सोच बदले, बेटियों के साथ हर तरह का भेद और उनके ख़िलाफ़ हर तरह का गुनाह ख़त्म हो, ये ज़िम्मा अब समाज का ही ज़्यादा है. जिसे ख़ुद भी तय करना है कि वो अपराध-राजनीति-पुलिस-अन्याय का गठजोड़ कैसे तोड़े? अब बात बराबरी की नहीं, इंसानियत और ख़ासियत की कद्र की ही है. क़ानून के दण्ड से पहले समाज का डंडा कड़ा हो जाना चाहिए. ताकि अपने किए का हश्र सोचकर, अपराधी पहले ही सिहरे और सुधार की राह पकड़े.

डॉ. क्षिप्रा माथुर जयपुर स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं जो मीडिया और अध्यापन में तीन दशकों से सक्रिय हैं. अपने लेखन और वक्तव्यों में उन्होंने विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक विषयों को उठाया है, जिनमें समाज के उपेक्षित तबकों और उनके मुद्दों की विशेष रूप से चर्चा की गई है. भारत के चुनाव आयोग ने उन्हें नेशनल मीडिया अवॉर्ड से सम्मानित किया है. 

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.