इस दुनिया में काफी कुछ घटित हो रहा है, जंगल में आग और बढ़ते प्रदूषण से पूरी पृथ्वी को नुकसान पहुंच रहा है पर फिर भी मनुष्य को बस अपनी ही धुन लगी है. ऐसा इसलिए क्योंकि उसे लगता है कि इन सबसे उसे कोई फर्क नहीं पड़ना और हमारी शिक्षा व्यवस्था भी ऐसी है कि बच्चों का अपने पर्यावरण, अपने समाज से लगाव नही बन पाता.
हिमालय में जलती आग को समय से बुझा दिया जाए तो पर्यावरण को हो रहे नुकसान को समय से रोका जा सकता है, जिसमें ग्लोबल तापमान का बढ़ना मुख्य है पर इसे समय से रोका नहीं जाता. पहाड़ों में रहने वाले लोग हिमालय को अपना नहीं समझते क्योंकि जंगलों में आम जनता के अधिकार लगभग समाप्त कर दिए गए हैं और उन्हें इन जंगलों से अपनत्व महसूस नहीं होता.
यही हाल हम ग्लेशियरों का होता देख रहे हैं, जिनकी बर्फ तेजी से पिघल रही है. बर्फ की सतह सूर्य की किरणों को अंतरिक्ष में परावर्तित करने में सक्षम है और यह तापमान वृद्धि से पृथ्वी को बचाती है, लेकिन मशीनों, वाहनों के बढ़ते प्रयोग से पृथ्वी का तापमान बढ़ता ही जा रहा है. मनुष्य का इन ग्लेशियरों से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है, इसलिए उन्हें इसकी परवाह नहीं है. यह मनुष्य की आदत है कि वह सिर्फ उन लोगों की चिंता करता है, जिनसे उसका सीधा सम्बन्ध होता है. मनुष्य सिर्फ उन पेड़ पौधों की रक्षा करता है, जो उसे फल देते हैं या उसके घर का सौंदर्य बढ़ाते हैं.
इसी तरह देश में होने वाले दंगों में हम किसी युवा को सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाते हुए देखते हैं, लोग सार्वजनिक स्थानों पर तम्बाकू खाकर थूकते हैं तो इसमें दोष हमारी शिक्षा व्यवस्था का है कि हम अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा नहीं दे पाए कि वह सार्वजनिक सम्पत्ति को अपनी संपत्ति नही समझता और वह सार्वजनिक स्थान पर गंदगी करते, उसे अपना घर नहीं समझता.
इंसान और जानवर में अंतर बनाए रखेगा शिक्षा में नवाचार
मनुष्य के व्यवहार को सभ्य बनाने के लिए आवश्यक है कि उसकी प्रारंभिक शिक्षा में ही इस पर काम किया जाए. शिक्षा में नवाचार का प्रयोग करते हुए शुरू से ही यह सिखाया जाए कि पूरी धरती ही उसका घर है और यहां प्रकृति को पहुंचने वाला हर नुकसान उसका अपना है.
बच्चों में 'वसुधैव कुटुम्बकम' विचार डालने की जरूरत हम शिक्षक महेश पुनेठा की एक फेसबुक पोस्ट से समझ सकते हैं. उन्होंने लिखा "स्कूल में एक बगीचा हो. उसमें तरह-तरह के फूल हों. मैं अपने मन पसन्द के फूलों को तोड़ सकूं." यह बात पिछले दिनों स्कूल में हुई भाषण प्रतियोगिता के दौरान कक्षा छः के बच्चे ने कही. विषय था, मेरे सपनों का स्कूल. बगिया होने और फूल होने की इच्छा तो स्वाभाविक है लेकिन फूलों को तोड़ने की इच्छा.
महेश पुनेठा की बात से यह सामने आता है कि बच्चा यह फूल इसलिए तोड़ना चाहता है क्योंकि उससे उसका कोई लगाव नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे हमारा हिमालय में लगी आग और पिघलते ग्लेशियरों के साथ कोई सीधा सम्बन्ध नही होता.
शिक्षा में नवाचार की तुरन्त आवश्यकता
आखिर किसी बच्चे के मन में इस संसार के खूबसूरत पेड़- पौधों, पशु-पक्षियों, पहाड़ों, सार्वजनिक सम्पत्तियों व अन्य मनुष्यों के लिए वह अपनत्व क्यों नहीं जगता है जो वह अपने से सम्बंधित के लिए दिखाता है. यहां पर कमी हमें शिक्षा में लगती है, जहां नवाचार की कोई जगह नहीं है.
बचपन से ही हम बच्चों के कंधे पर किताब का बोझ लाद देते हैं और उससे प्रकृति, समाज से जुड़ा कोई प्रयोगात्मक काम नहीं सिखाया जाता. जैसे बच्चों को खेती के बारे में कुछ नहीं पता होता, उसे फसलों के बारे में नहीं मालूम होता. बच्चों से सफाई नहीं कराई जाती, उसे यह नहीं पता होता कि गीले और सूखे कूड़े के अलग अलग क्या नुकसान हैं. बच्चों से कभी कोई नाटक नहीं लिखवाया जाता जिससे उसे महसूस हो कि इस पृथ्वी को हम मनुष्यों ने कितना नुकसान पहुंचाया है. बच्चों को हम सार्वजनिक स्थलों और सार्वजनिक सम्पत्तियों की साफ सफाई करते कम ही देखते हैं, जिससे उन्हें लगे कि यह सब भी उनका अपना ही है.
शिक्षा में नवाचार का प्रयोग करते यदि उस फूल को लगाने में बच्चे ही मेहनत करेंगे, उसमें पानी डालेंगे. उन्हें उसमें इस्तेमाल होने वाली खाद, दवाइयों के बारे में पता होगा. वो पौधा लगाने से लेकर उसमें फूल आने की शुरुआत से सुंदर फूल होने तक के सफर के साक्षी बनेंगे तो हमें अगले कदम के लिए इन बच्चों को खुद ही निर्णय लेने के लिए छोड़ना होगा जहां वो खुद के उगाए फूलों को तोड़ें या उजाड़ दें.
माता पिता अपने बच्चों को जो कुछ भी सिखाते हैं, उसका सीधा प्रभाव उनके बच्चों पर कैसे पड़ता है यह हम महेश पुनेठा की पोस्ट पर पत्रकार जगमोहन रौतेला की टिप्पणी से समझ सकते हैं, वह लिखते हैं कि बच्चे की कोई गलती नहीं है. जैसा उसने देखा, वही लिख दिया. वह सवेरे उठते ही तो अपने घर के लोगों को फूल तोड़ते हुए देखता है. उसे लगता है अच्छे फूल तोड़े जाते हैं.
मतलब साफ है कि शिक्षा को अगर सही दिशा मिल जाए तो बच्चे फूल उजाड़ने की जगह उसे लगाएंगे ही. बच्चे अपने घर के कूड़े के साथ अपने शहर और गांव का कूड़ा साफ करते हुए कभी शर्माएंगे नहीं. हिमालय में लगती आग और पिघलते ग्लेशियर उन्हें अपनी समस्या लगेंगे क्योंकि उन्हें पता होगा कि इससे उनकी प्यारी धरती को सीधा नुकसान पहुंच रहा है.
हिमांशु जोशी उत्तराखंड से हैं और प्रतिष्ठित उमेश डोभाल स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त हैं. वह कई समाचारपत्रों, पत्रिकाओं और वेब पोर्टलों के लिए लिखते रहे हैं...
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