Bikaner History: 'मजाक' की बात दिल में बैठी और बस गया बीकानेर शहर, एक शर्त के कारण रखा गया था ये नाम
History of Bikaner: मरहूम शायर अज़ीज़ आज़ाद ने एक बार कहा था 'मेरा दावा है सब ज़हर उतर जाएगा, सिर्फ इक बार मेरे शहर में रहकर देखो'. यह अल्फ़ाज़ उस शहर-ए-तहज़ीब की हकीकत बयां करते हैं जिसे ये संसार बीकानेर के नाम से जानता है. रेगिस्तान की रेत के बीच करीब 525 सालों से बसे बीकानेर की स्थापना राव बीकाजी ने की थी. इसके बसाये जाने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है. पढ़िए डॉ. नासिर जैदी की ये रिपोर्ट...
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राव बीकाजी जोधपुर रियासत के राजकुमार थे और अपने आप में एक बड़ी हैसियत रखने वाले लोगों में थे. एक दिन किसी काम के लिए जल्दी करने के कारण उनकी भाभी ने उनसे मजाक कर लिया की देवरजी इतनी जल्दी में हो, क्या कोई नया शहर बसाना है. बस यही बात उनके दिल में बैठ गयी और उसी वक्त राव बीकाजी जोधपुर से अपना काफिला लेकर जांगल प्रदेश की और रवाना हो गए. उस समय बीकानेर नाम की कोई रियासत नहीं थी. जहां आज बीकानेर बसा हुआ है वह जांगल प्रदेश का हिस्सा भर था और यहां भाटियों की हुकूमत थी. जब राव बीकाजी यहां पहुंचे तो उनका सामना उस समय के एक जागीरदार से हुआ जिसका नाम नेर था. उसने ये शर्त रख दी की नए शहर के नाम में उसका जिक्र भी आना चाहिए और राव बीका और नेर के नामों को मिलाकर बीकानेर नाम का नया शहर बसाया गया.
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इस शहर पर शुरू से ही राजपूत राजाओं की हुकूमत रही, जिन्होंने समय समय पर अपनी कुशलता को साबित किया. लेकिन उन सब में महाराजा गंगा सिंह का नाम आज भी बड़े आदर के साथ लिया जाता है. महाराजा गंगा सिंह जहां कुशल शासक के रूप में अपनी पहचान रखते थे, वहीं समय से आगे सोचने की योग्यता भी रखते थे. यही कारण था कि अंग्रेजों की हुकूमत के दौरान उनकी पहुंच महारानी विक्टोरिया तक थी और विश्वयुद्ध के दौरान उन्हें ब्रिटिश-भारतीय सेनाओं के कमान्डर-इन-चीफ की जिम्मेदारी सौंपी गई, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया. गंगा सिंह के समय में बीकानेर एक विकसित रियासत था और जो सुविधाएं दूसरी रियासतों ने कभी देखी नहीं थीं, वे भी बीकानेर में आम लोगों को उपलब्ध थी. बिजली, रेल, हवाई जहाज और टेलीफोन की उपलब्धता करवाने वाली रियासत बीकानेर ही थी. यहां का पीबीएम अस्पताल देश के बेहतरीन अस्पतालों में शुमार होता था.
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लेकिन आजादी के बाद बीकानेर शहर से सभी सरकारों ने सौतेला व्यवहार किया और विकास के नाम पर बीकानेर दूसरे सभी शहरों से पीछे रह गया. यहां के लोग विकास को तरस गए और अब तक पिछड़ेपन के आलम में ही जीने को मजबूर हैं. बीकानेर का रेलवे वर्कशॉप किसी जमाने में जहां 17000 कर्मचारियों की क्षमता रखता था. वहां अब 1000 कर्मचारी भी नहीं बचे हैं. बीकानेर में पर्यटन की भरपूर सम्भावनाएं होते हुए भी सरकार ने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया, जिसका नतीजा यह है कि निजी स्तरों पर किए जाने वाले प्रयासों से ही दुनिया बीकानेर को देख पाती है.
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उद्योगों की यहां खूब सम्भावनाएं होने के बावजूद किसी भी सरकार की नजर-ए-इनायत यहां नहीं हुई और सारे प्रोजेक्ट्स दूसरे शहरों को मिलते रहे. इसका एक कारण यहां का शिथिल नेतृत्व भी रहा, जिसने कभी बीकानेर के लिए अपनी आवाज बुलन्द नहीं की. मंदिरों और महलों के इस शहर के लोग विकास का सपना अभी देख ही रहे हैं. पूरी दुनिया को रसगुल्ले की मिठास और भुजिया पापड़ के चटखारों का अहसास करवाने वाला बीकानेर जहां आधुनिक विकास के नाम पर पिछड़ा हुआ है, वहीं कला और संस्कृति के नाम पर बहुत ही मालामाल है. बीकानेर की उस्ता कला पूरी दुनिया में विख्यात है. ऊंट की खाल पर की जाने वाली चित्रकारी हो या पत्थरों पर खूबसूरत नक्काशी हो, पूरी दुनियां यहां के कलाकारों के सामने नतमस्तक होती है. मरहूम हाजी ज़हूरदीन उस्ता, मरहूम अलादीन उस्ता और मुहम्मद हनीफ़ उस्ता ऐसे नाम हैं जिन्होंने अपनी कूची दुनिया से मनवाया है.
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वहीं संगीत के क्षेत्र की बात करें तो मांड गायिका अल्लाह जिलाई बाई ने मांड को दुनिया में स्थापित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया और भारत की सरकार ने उन्हें सलाम करते हुए पद्मश्री के सम्मान से नवाजा. संगीत की इस विरासत को आगे बढ़ाने में भी बहुत से नाम हैं, जिनमे पाकीजा फिल्म के संगीतकार गुलाम मुहम्मद और हालिया नौजवान गायक राजा हसन प्रमुख हैं. पंडित भारत व्यास ने गीतकार के रूप में अपनी खास पहचान बनाकर बीकानेर को गौरवान्वित किया. साहित्य का क्षेत्र तो बीकानेर के लोगों को सलाम करता नजर आता है. उर्दू हो या हिंदी या फिर राजस्थानी. बीकानेर के साहित्यकारों का लम्बा सिलसिला है. हिंदी की बात करें तो हरीश भादाणी, यादवेन्द्र शर्मा "चन्द्र" नन्द किशोर आचार्य, भवानी शंकर शर्मा "विनोद" डॉ. बुलाकी शर्मा और भी न जाने कितने नाम हैं, जिन्होंने हिंदी भाषा को समृद्ध करने में अपना योगदान दिया है. वहीं उर्दू जुबां का ज़िक्र करें तो मरहूम मुहम्मद उस्मान "आरिफ़" दीवान चन्द "दीवां" मुहम्मद हनीफ "शमीम" मरहूम ग़ाज़ी बीकानेरी, रासिख़ न जाने कितने ऐसे अदीब हैं जिन्होंने अपनी क़लम के ज़रिये उर्दू अदब की शमां जलाकर बीकानेर का नाम रोशन किया है और ये सिलसिला अब तक जारी है.
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तहजीब के मामले में बीकानेर सबसे हटकर शहर है. यहां के लोग जहां खाने पीने के शौकीन हैं, वहीं इन्सानियत उनके लिए सबसे बड़ा मजहब है. कोटगेट पर बानी हजरत हाजी बलवान शाह पीर की दरगाह पर हाजरी देने से पहले यहां के लोग अपनी दुकाने नहीं खोलते. इनमें से नब्बे फीसद लोग धर्म को मानने वाले हैं. वहीं लक्ष्मीनाथ जी का मंदिर हो या नागणेचेजी का मंदिर हो, फूल बेचने वाले सभी लोग मुस्लिम हैं. यहां के मोहल्ले भी एक आपस में एक दूसरे से लगे हुए हैं, जहां दोनों मजहबों के लोग साथ बैठकर मुहब्बत के नगमे गाते नजर आते हैं. किसी के रास्ता पूछ लेने पर साथ जाकर बताकर आना यहां के लोगों की आदत में शामिल है. वहीं सुबह सुबह कचौड़ियों और समोसों के साथ रसगुल्लों और घेवरों का आनन्द लेना भी प्रिय शगल है. तहज़ीब इस तरह बरक़रार है कि अयोध्या आन्दोलन के दौरान देश भर में दंगे हो जाने पर भी यहां के लोग साथ बैठकर एक दूसरे के यहां खा-पी रहे थे. तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने यहां का भाईचारा देखकर कहा था "काश पूरा देश बीकानेर हो जाता".
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