कांग्रेस ने 45 जिलाध्यक्षों की सूची जारी की, 5 जिले अटके; जानें डोटासरा, पायलट और गहलोत के गुट को क्‍या म‍िला

राजस्थान कांग्रेस के भीतर अब 3 प्रमुख गुट माने जा रहे हैं, जिनमें अशोक गहलोत का गुट, सचिन पायलट का गुट और पीसीसी अध्यक्ष डोटासरा का गुट शामिल हैं. इन तीनों के बीच संतुलन रखते हुए 45 जिलों की कमान बांटी गई है.

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कांग्रेस ने 45 जिलाध्यक्षों की सूची जारी की.

राजस्थान कांग्रेस ने 50 में से 45 जिलाध्यक्षों की सूची जारी कर दी है. यह सूची बताती है कि पार्टी ने गुटीय दबाव, जातीय और सामाजिक समीकरण, स्थानीय प्रभाव और संगठन की प्राथमिकताओं के बीच बेहद सावधानी से संतुलन साधा है. सूची पर प्रदेशाध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा की पकड़ साफ नजर आती है और अधिकांश जिलों में उनके सुझावों को प्राथमिकता दी गई है.

जाट समुदाय को मजबूत हिस्सेदारी मिली 

जाट समुदाय को भी इस बार संगठन में मजबूत हिस्सेदारी मिली है. पायलट और गहलोत दोनों गुटों को प्रतिनिधित्व मिला है. नेता प्रतिपक्ष टीकाराम जूली की एससी वर्ग से जुड़े जिलाध्यक्षों के लिए की गई पैरवी भी अंतिम सूची में दिखाई देती है. एससी और एसटी वर्ग में भी नए चेहरों को मौका दिया गया है. बाड़मेर और बालोतरा जैसे जिलों में हरीश चौधरी की सिफारिशें भी प्रभावी रहीं.

OBC से 16 और जाट समुदाय से 10 नाम शामिल 

लिस्ट में जनरल वर्ग से 08, ओबीसी से 16, जिनमें से 10 जाट समुदाय के, एससी से 9, एसटी से 8, मुस्लिम समाज से 4 और महिलाओं से 7 नाम शामिल हैं. कुल 42 नए चेहरे और 8 रिपीट किए गए हैं. यह पहली बार है, जब जिलाध्यक्षों में महिलाओं की संख्या एक से बढ़कर 7 हो गई है. युवाओं को भी प्रतिनिधित्व दिया गया है. लक्ष्मण गोदारा, बलराम यादव, हनुमान बांगड़ा, किशोर चौधरी और मनीष मक्कासर जैसे नाम संगठन के आगामी चुनावों की दिशा तय करने वाले माने जा रहे हैं. पार्टी ने 45 में से 12 विधायकों को जिलाध्यक्ष बनाया है, ज‍िससे जिलों की कमान अनुभव और जनस्वीकृति वाले नेताओं के हाथ में रहे.

5 जिलों में नियुक्तियों की घोषणा पर रोक 

05 जिलों में नियुक्तियों की घोषणा रोक दी गई है. बारां और झालावाड़ में अंता उपचुनाव की वजह से फीडबैक पूरा नहीं हो पाया था. कांग्रेस नेतृत्व नहीं चाहता था कि जिलाध्यक्ष की नियुक्ति चुनावी रणनीति को प्रभावित करे. जयपुर शहर, प्रतापगढ़ और राजसमंद में गुटीय टकराव के कारण सहमति नहीं बन सकी.

भानुप्रताप  2010 से लगातार जिलाध्यक्ष

प्रतापगढ़ में स्थिति सबसे पेचीदा रही. यहां भानुप्रताप सिंह राणावत 2010 से लगातार कांग्रेस जिलाध्यक्ष हैं. दिलचस्प यह है कि 2008 में जब वसुंधरा राजे ने प्रतापगढ़ को जिला घोषित किया था, तब से ही भानुप्रताप सिंह संगठन की कमान संभाल रहे हैं. लंबे समय बाद इस बार 3 दावेदार सामने आए. दिग्विजय सिंह, ओमप्रकाश ओझा और खुद भानुप्रताप सिंह तीनों ने दावेदारी की.

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भानुप्रताप सिंह पायलट गुट के समर्थक माने जाते हैं

भानुप्रताप सिंह पायलट गुट के समर्थक माने जाते हैं. पूर्व विधायक रामलाल मीणा ने दिग्विजय सिंह को खुला समर्थन दिया. रामलाल मीणा कांग्रेस में गहलोत और डोटासरा दोनों के करीब माने जाते हैं. तीसरे दावेदार ओमप्रकाश ओझा पूर्व मंत्री उदयलाल आंजना के करीबी हैं. इन तीनों के बीच संतुलन बनाना मुश्किल रहा और संगठन किसी एक नाम पर सहमत नहीं हो पाया. इसी वजह से प्रतापगढ़ की घोषणा रोक दी गई.

राजसमंद की स्थिति भी समान रही

राजसमंद की स्थिति भी समान रही. कांग्रेस ऑब्जर्वर के सामने 3 नेताओं ने दावेदारी की थी. जिले के कुल 42 संगठनात्मक मतदाताओं में से 40 ने आदित्य प्रताप सिंह चौहान के पक्ष में समर्थन दिया था. आदित्य प्रताप सिंह कार्यवाहक जिलाध्यक्ष भी रह चुके हैं, और उन्हें पीसीसी की सदस्यता भी दी जा चुकी है. मेवाड़ के वरिष्ठ नेता डॉक्टर सीपी जोशी का समर्थन भी उनके साथ था. इन संकेतों से यह साफ था कि उनकी नियुक्ति सिर्फ औपचारिकता है. लेकिन अंतिम सूची में राजसमंद का नाम शामिल नहीं किया गया.

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राजसमंद में राजपूत मतदाता सबसे अधिक 

इसका सबसे बड़ा कारण जिले का सामाजिक समीकरण माना जा रहा है. राजसमंद की चारों विधानसभा सीटों में राजपूत मतदाता सबसे अधिक संख्या में हैं. पूर्व जिलाध्यक्ष हरी सिंह राठौड़ और संभावित नए जिलाध्यक्ष आदित्य प्रताप सिंह दोनों ही राजपूत समुदाय से आते हैं. लगातार एक ही समाज को जिलाध्यक्ष पद दिए जाने से OBC और SC समुदाय में असंतोष सामने आया. संगठन ने इस असंतोष को गंभीरता से लेते हुए निर्णय पर रोक लगा दी और सामाजिक संतुलन पर पुनर्विचार शुरू किया.

सुनील शर्मा और पुष्पेंद्र भारद्वाज में टकराव की स्थिति रही

जयपुर शहर में सुनील शर्मा और पुष्पेंद्र भारद्वाज के बीच टकराव की स्थिति रही. लोकसभा चुनाव में सुनील शर्मा का टिकट काटे जाने के बाद उन्हें संगठन में ज़िम्मेदारी देने की चर्चाएं तेज थीं. पार्टी के कई नेताओं ने उन्हें जिलाध्यक्ष बनाने का भरोसा भी दिया था. दूसरी ओर पुष्पेंद्र भारद्वाज की सक्रियता और संगठन में उनकी भूमिका के कारण उनकी दावेदारी भी कमजोर नहीं थी. सूत्रों के अनुसार सुनील शर्मा का नाम लगभग फाइनल था, लेकिन आखिरी समय में कांग्रेस के एक धड़े ने पुष्पेंद्र भारद्वाज की दावेदारी को आलाकमान तक पहुंचा दिया. किसी एक नाम की घोषणा से असंतोष बढ़ने का खतरा था, इसलिए दिल्ली दरबार ने घोषणा रोक दी.

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संगठनात्मक संतुलन साधने का प्रयास

कुल मिलाकर कांग्रेस की सूची बताती है कि पार्टी ने नई और पुरानी पीढ़ी के नेताओं को साथ लेकर संगठनात्मक संतुलन साधने का प्रयास किया है. हालांकि जिन पांच जिलों में फैसला अटका है, वह इस बात का संकेत भी है कि कांग्रेस के भीतर गुटीय खिंचतान अभी भी उतनी ही मौजूद है जितनी पहले होती थी.

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