उत्तर भारत की प्रमुख वैष्णव पीठ गलता तीर्थी की स्थापना की थी. गलता की पहाड़ी पर एक पुरानी गुफा और धूणी है. यहां पर कृष्णदास महाराज तपस्या करते थे. वे सिर्फ एक गिलास दूध पीकर रहते थे. इसके अलावा कुछ भी नहीं खाते थे. इसी वजह से उनका पयहारी बाबा पड़ गया. ऐसी मान्यता है कि दर्शन के बाद दूध का भोग लगाने से सभी मनोकामना पूरी होती है.
1.5 फीट चौड़ा है गुफा
पयहारी बाबा की गुफा की चौड़ाई मात्र 1.5 फीट चौड़ा और दो फीट ऊंचा है. गुफा के सामने धूणी है, जो अखंड जलती रहती थी. इसकी भभूत श्रीगलता पीठ के परंपरागत आचार्य आज तक आशीर्वाद स्वरूप दी जाती है.
जानवरों के कारण छोटा गुफा का द्वार बनाया
पहले यहां विरान जंगल था. जंगली जानवरों का आना-जाना लगा रहा था. इसी वजह से इसका द्वार छोटा ही रखा गया था, जिससे तपस्या में विघ्न ना पड़े. एक बार में एक व्यक्ति ही आ जा सकता है. प्रसाद के रूप में आज भी दूध का भोग लगाया जाता है.
पयहारी बाबा की भक्ति से चीता भी हो गया था नतमस्तक
राजस्थान संस्कृत विवि के दर्शन विभागाध्यक्ष शास्त्री कोसलेंद्रदास ने मीडिया को बताया कि पयहारी बाबा काशी के स्वामी अनंतानंदाचार्य के शिष्य थे, जो जगदुरु रामानंदाचार्य के 12 प्रमुख शिष्यों में हैं. उनका जन्म दौसा के दाधीच ब्राह्मण परिवार में हुआ था. वे ब्रह्मचारी थे. 16वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में काशी स्थित पंचगंगा घाट पर रामभक्ति की धारा की मुख्य पीठ 'श्रीमठ' का मुगलों द्वारा विध्वंस हुआ, तब पयहारी महाराज ने गलता पीठ को आध्यात्मिक केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित किया.
भक्तमाल की प्रसिद्ध कथा है कि एक बार गो माता पर झपटते चीते को रोकने के लिए उन्होंने अपने शरीर का मांस काटकर अर्पित कर दिया. चीते से गाय को छोड़ने और उन्हें खाने की विनती की. इस पर चीता उनका शिष्य बन गया.
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