कृष्ण कुमार के संघर्ष की कहानी, मुश्किलों को मात देकर बने प्रेरणा, पैरों से लिखकर दे रहे नौनिहालों को शिक्षा

कृष्ण कुमार की कहानी संघर्ष और साहस का जीता-जागता उदाहरण है. कृष्ण कुमार के जीवन में ऐसा मोड़ आया, जिसने उन्हें शारीरिक रूप से कमजोर कर दिया, लेकिन मानसिक और भावनात्मक रूप से और भी मजबूत बना दिया.

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Rajasthan News: राजस्थान के करौली जिले के सायपुर गांव के रहने वाले कृष्ण कुमार की कहानी संघर्ष और साहस का जीता-जागता उदाहरण है. साल 1996 में 8 साल की उम्र में कृष्ण कुमार के जीवन में ऐसा मोड़ आया, जिसने उन्हें शारीरिक रूप से कमजोर कर दिया, लेकिन मानसिक और भावनात्मक रूप से और भी मजबूत बना दिया. एक हादसे में उन्होंने अपने दोनों हाथ खो दिए. यह ऐसा समय था जब एक बच्चा खेल-कूद और पढ़ाई के माध्यम से अपनी दुनिया बनाता है. लेकिन कृष्ण कुमार ने इस हादसे को अपने सपनों की राह में रुकावट बनने नहीं दिया.

पैर बने हाथ और संघर्ष बना साथी

कृष्ण कुमार ने अपने पैरों में धागा बांधकर लिखने का अभ्यास शुरू किया. शुरुआती असफलताओं ने उन्हें तोड़ा नहीं, बल्कि और दृढ़ बना दिया. पांच साल की मेहनत के बाद, उनका लेखन इतना सुंदर और तेज हो गया कि कोई अंदाजा भी नहीं लगा सकता था कि यह पैरों से लिखा गया है. पढ़ाई के प्रति उनके समर्पण ने उन्हें बीए-बीएड की डिग्री तक पहुंचा दिया.

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दैनिक जीवन का हर कार्य खुद करते हैं

आज कृष्ण कुमार अपनी दैनिक दिनचर्या के लगभग सभी कार्य खुद करते हैं. मोबाइल चलाने से लेकर कपड़े पहनने तक, उन्होंने हर चीज में महारत हासिल कर ली है. उनकी मां, जो शुरुआत में खाना खिलाती थीं, उनके निधन के बाद भाई इस काम में उनकी मदद करते हैं. यह क्षण उनके लिए बेहद कठिन था, लेकिन उन्होंने फिर भी हार नहीं मानी.

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शिक्षा से भविष्य बनाने का सपना

कृष्ण कुमार का सपना था कि वे एक अच्छे शिक्षक बनें और अपने ज्ञान से बच्चों का भविष्य संवारें. लेकिन मां के निधन और पिता के मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ने के कारण यह सपना अधूरा रह गया. इसके बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी. अब वे अपने गांव के गरीब और शिक्षा से वंचित बच्चों को एक साल से निशुल्क शिक्षा दे रहे हैं. उनकी "पाठशाला" में पढ़ने वाले बच्चे कहते हैं कि कृष्ण सर की वजह से वे अपनी कक्षा में अव्वल आते हैं. उनकी मेहनत और सिखाने का तरीका बच्चों में नई ऊर्जा भर देता है.

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कृष्ण कुमार की आर्थिक स्थिति बेहद कमजोर है. दो वक्त की रोटी के लिए भी वे संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने अपने गांव के बच्चों के सपनों को पंख देने का बीड़ा उठाया है. उनके लिए यह शिक्षण केवल एक कार्य नहीं, बल्कि सेवा का एक माध्यम है.

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