Rajasthan News: राजस्थान सरकार द्वारा लाए गए 'राजस्थान धर्म के गैर-कानूनी रूपांतरण पर रोक अधिनियम 2025' (Rajasthan Anti Conversion Law) के कुछ कठोर प्रावधानों को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में एक जनहित याचिका (PIL) दायर की गई है. इस याचिका में विशेष रूप से उन धाराओं की संवैधानिकता पर सवाल उठाए गए हैं, जो कथित गैर-कानूनी धर्मांतरण के मामलों में, संपत्ति जब्त करने और यहां तक कि ध्वस्त करने की अनुमति देते हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने जारी किया नोटिस
एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स (APCR) द्वारा समर्थित इस याचिका पर मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई करते हुए, तत्काल प्रभाव से राजस्थान राज्य सरकार को नोटिस जारी कर दिया है. जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की बेंच ने इस मामले की गंभीरता को समझते हुए न केवल मुख्य याचिका पर, बल्कि कानून पर अंतरिम रोक लगाने की याचिका (Interim Stay Application) पर भी राज्य सरकार को नोटिस जारी किया है. याचिकाकर्ताओं की ओर से दायर दलीलों ने इन प्रावधानों की संवैधानिक वैधता पर तत्काल ध्यान आकर्षित किया है.
'न्यायिक निर्धारण के बिना सजा'
यह जनहित याचिका प्रख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता जॉन दयाल और अधिवक्ता व शोधकर्ता एम. हुजैफा ने दायर की है. याचिका में मुख्य रूप से कानून की धारा 5(6), 10(3), 12 और 13 को चुनौती दी गई है. याचिकाकर्ताओं का सबसे बड़ा तर्क यह है कि ये प्रावधान न्यायपालिका पर सीधा हमला हैं और न्यायिक निर्णय के बिना ही कार्यकारी सजा देने की अनुमति देते हैं. याचिका में आरोप लगाया गया है कि यह कानून सुप्रीम कोर्ट के 2024 के उस ऐतिहासिक फैसले का विधायी अधिरोपण (Legislative Overruling) करता है, जिसमें कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि किसी भी व्यक्ति को दोषी ठहराए जाने के न्यायिक निर्धारण के बिना संपत्ति को ध्वस्त करने या दंडात्मक कार्रवाई नहीं की जा सकती.
संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन
याचिका में तर्क दिया गया है कि धर्मांतरण विरोधी कानून के ये विवादास्पद प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता), 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता), 22 (गिरफ्तारी और हिरासत से संरक्षण) और 300A (संपत्ति का अधिकार) का सीधा उल्लंघन करते हैं. याचिका में कहा गया है कि यह कानून एक ऐसा तंत्र स्थापित करता है, जहां न्यायिक प्रक्रिया के बजाय जिला मजिस्ट्रेट या एक राजपत्रित अधिकारी 'संक्षेप जांच' (Summary Inquiries) के माध्यम से संपत्ति जब्त करने या ध्वस्त करने का आदेश दे सकता है. यह न्यायिक निर्णय के बिना ही कार्यकारी दंड का एक शासन स्थापित करता है, जो संविधान के मूल ढांचे, यानी शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत (Doctrine of Separation of Powers) को कमजोर करता है.
याचिका में धारा 5(6) पर विशेष रूप से आपत्ति जताई गई है. यह धारा कथित तौर पर निर्दोष मालिकों की संपत्ति को उनकी सहमति के साथ या बिना सहमति के 'जब्त' (Forfeiture) करने की अनुमति देती है. याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि यह प्रावधान सामूहिक दंड और पूर्ण प्रतिनिधिक दायित्व (Absolute Vicarious Liability) को संस्थागत रूप देता है, जो न्याय के सिद्धांतों के विपरीत है.
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