Baran Dol Mela 2024: बारां के प्रसिद्ध डोल मेले की आज, 18 दिन तक सजेगा रंगमंच, देव विमान होंगे आकर्षण का केंद्र

Baran Dol Mela 2024: बारां का डोल मेले अब 18 दिनों तक चलता है. इस मेले में देवों के विमान आर्कषण का मुख्य केंद्र होते हैं. श्रीजी और रघुनाथजी को गले मिलता देखने के लिए हजारों भक्तों की भीड़ हर वर्ष उमड़ पड़ती है.

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Rajasthan News: राजस्थान के बारां जिले में प्रसिद्ध डोल मेला (Baran Dol Mela) की 14 सितंबर से शुरुआत हो गई है. एक पखवाड़े तक लगने वाले इस मेले को भव्यता प्रदान करने के लिए नगर परिषद व प्रशासन जिम्मा संभाले हुए हैं. हर वर्ष इस मेले में शामिल होने के लिए पूरे राजस्थान समेत पड़ोसी स्टेट मध्य प्रदेश के लोग भी आते हैं. जलझूलनी ग्यारस को शहर के विभिन्न मन्दिरों में विराजे भगवान की शोभायात्रा के साथ इस मेले की शुरुआत होती है.

1680 से हर साल आयोजित हो रहा मेला

वरिष्ठ इतिहासकार गजेंद्र सिंह यादव बताते हैं कि बारां में डोल मेले एवं यात्रा की शुरुआत सन 1680 में बूंदी केशवभाव सिंह हाडा के समय बाणगंगा नदी के तट पर हाट बाजार के रूप में हुई थी. तब बारां अर्थात वराह नगरी, हाड़ी रानी की जागीर में था. उस वक्त मुगल शासक और औरंगजेब का समय था, जो हिंदू संस्कृति का कट्टर विरोधी था. वह दिल्ली से मालवा आते-जाते समय बारां, विलास, शाहाबाद, अटरू एवं चंद्रावती का रुख अपनाता था.

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मंदिर के समीप मस्जिद का निर्माण कराया

ज्ञात रहे कि राव सृजन हाडा ने सन 1569 में रणथम्भोर दुर्ग स्टेट एवं हिंदू पक्ष में की गई एक संधि के अंतर्गत अकबर को हस्तगत किया. तब विष्णु भगवान की दो प्रतिमाओं में से एक इनके पौत्र राव रतन के समय राजमाता गृहलोटनी जी ने बारां में निर्मित श्रीजी (कल्याण राय जी) मंदिर में स्थापित की. बाद में, अर्थात मंदिर निर्माण के 100 वर्ष बाद ई.1680 में हाडा रानी ने औरंगजेब के आतंक से मंदिर को बचाने के लिए समीप में मस्जिद का निर्माण करवाया, जिससे मंदिर दिखाई नहीं देने से बच गया. तब भावसिंह धर्म परायण होने से उन्होंने काठ की पालकी में जलवा पूजन के लिए अस्थाई प्रतिमा सवार कर श्रीराज परिवार के साथ पैदल चलकर सशस्त्र राजकीय सम्मान के साथ वन विहार करवाया. तब से ही विस्तृत विस्तार स्तर पर यह परंपरा चली आ रही है. जो देश में प्रथम डोल मेला है, इसका इतिहास एवं सरकार के गजेटियर में इन्द्राज है.

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धार्मिक इतिहास को कायम रखने की कवायद

कोटा का दशहरा, बारां का डोल मेला, बूंदी की तीज, झालरापाटन का कार्तिक मेला. कोटा रियासत में उस समय अभी के कोटा, बूंदी, बारां, झालावाड़ जिले आते थे. इस रियासत का एकीकरण सन 1764 में कोटा दरबार उम्मेद सिंह द्वितीय के समय पर हुआ. तब से बूंदी नरेश बीमार हो गए और फिर उनका प्रांणंत हो गया. उसके बाद बूंदी रियासत भी कोटा के शासकों के अधीन आ गई. तब उस समय बैठकर निर्णय लिया गया, जिसमें जालिम झाला सिंह के नेतृत्व में सलाहकारों, शासकों ने धार्मिक इतिहास को कैसे कायम रखा जाए, इस पर विचार हुआ. निर्णय यह हुआ कि बारां मे जलझुलनी एकादशी पर डोल मेला, कोटा में विजयादशमी पर दशहरा मेला,  बूंदी में तीज और झालावाड़ में कार्तिक पूर्णिमा पर कार्तिक मेलों की शुरुआत की गई. तब से ही आज तक लोग इन्हे लोकोत्सव के रूप में मनाते आ रहे हैं. यह चारों मेले तीन-चार माह के अंतराल में ही आते हैं. 

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Baran Dol Mela 2024 Date
Photo Credit: NDTV Reporter

अब 18 दिन तक चलता है 3 दिन लगने वाला मेला

तब यह एक हाट बाजार के रूप में प्रारंभ हुआ था. तब सड़कें, रोड़, बिजली नहीं हुआ करती  थी.  लोग दूर-दराज से बैलगाड़ी में बैठकर आते थे और यहां मेले में दो-दो, तीन-तीन दिन रुक के मेले का आनंद लेते थे. धीरे-धीरे समय बदलता गया. देश, प्रदेश और बारां विकास की ओर बढ़ता गया. अब घर-घर बिजली का साधन हो गया. धीरे-धीरे मेले ने विगत 50 साल में प्रगति की. तीन दिन से मेला बढ़कर 7 दिन हुआ, फिर 10 दिन हुआ, फिर 15 दिन हुआ और अब 18 दिन का हो गया है. 18 दिन तक प्रतिदिन मेले के रंगमंच पर लोक सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है. कई प्रकार के कार्यक्रम 18 दिन तक जारी रहते हैं. यहां के लोगों को तब से ही मेले से जोड़ रखा है. वहीं मेले में राजस्थान के अलावा अन्य राज्यों से भी लोग व्यापार करने व मेले का आनन्द लेने आते हैं. इस मेले में पहली बार बहार की दुकान दिल्ली से आई थी.

देव विमानों की शोभायात्रा मेले का आकर्षण

मेले का यूं तो अपना आकर्षण होता है, लेकिन बारां के डोल मेले का आकर्षण पूरे शहर के विभिन्न जातियों के मन्दिरों से देव विमानों (डोल) की गाजे-बाजों से निकलने वाली शोभायात्रा होती है. इस शोभायात्रा को देखने एवं दर्शनार्थ लाखों नर-नारी, बच्चे, नौजवानों की भीड़ का उमड़ता सैलाब होता है. विमानों की शोभायात्रा के आगे भजन कीर्तन मण्डलियां होती है और उसके आगे सहस्त्रों युवकों एवं अखाड़ेबाजों के मल्ल तथा शारीरिक कौशल के अनूठे हैरत अंगेज कर देने वालें करतबों को देखकर तो दर्शनार्थी दांतो तले उंगली दबा लेते हैं. अखाड़ों के करतबों को दिखाने की यह परम्परा कहते हैं, डोल मेले के साथ ही प्रारंभ हुई.

विद्यमान

डोल शोभा यात्रा को लेकर कई मान्यताएं विद्यमान हैं. कहते हैं इस दिन भगवान श्रीविग्रह अपने विमान यानि डोल में बैठकर विचरने निकलते हैं. दूसरी यह कि इस दिन श्रीकृष्ण की माता गाजे-बाजों के साथ कृष्ण जन्म के 18 वें दिन सूर्य एवं जलवा पूजन के लिए घर से निकलती है. कुछ का मानना है कि विभिन्न मन्दिरों में विराजे भगवान प्रकृति की हरियाली का वैभव एवं सौन्दर्य निहारने निकलते हैं.

गले मिलते हैं श्रीजी और रघुनाथ जी 

समय के साथ परम्पराएं बदल जाया करती हैं. लेकिन बारां के साथ सत्य साबित नहीं हुआ. वर्षों पुरानी परम्परा आज भी कायम है. श्री कल्याणराय, श्रीजी मन्दिर से विमानों की शोभायात्रा शुरू होती है. रघुनाथ मन्दिर का भी विमान सबसे आगे होता है. इस मन्दिर को राजमन्दिर कहा जाता है. यह विमान मन्दिर के बाहर आकर रूक जाता है, जहां श्रीजी और रघुनाथ जी के विमान गले मिलते हैं. यह परपम्रा आज भी जीवंत है. इस दृश्य को देखने हजारों लोग टूट पड़ते है और दर्शन पाकर धन्य समझते हैं.

हजारों की भीड़ में अपने आप बनने लगाता है रास्ता

डोल शोभा यात्रा के दौरान बारां शहर के बाजारों तथा मकानों, दुकानों की छतों पर काफी तादाद में जनसमूह शोभायात्रा के दर्शनार्थ एकत्र हो जाता है. बाजारों में तो तिलभर भी जगह नहीं होती. धक्का मुक्की, भीड़ की रेलमपेल बनी रहती है. बुजुर्गवार बताते हैं कि श्रीजी एवं रघुनाथ जी के विमान गले मिलने के बाद जब रघुनाथ मन्दिर का विमान आगे हो जाता है तो स्वतः रास्ता भी हो जाता है. इसे लोग भगवान की कृपा मानते हैं. फिर अन्य मन्दिरों के विमान कतारबद्ध पीछे चलते हैं. शोभायात्रा में उंच-नीच की निरर्थक भावना किसी के मन में परिलक्षित नहीं होती. विभिन्न जातियों के साथ वाल्मिकी (हरिजन) समाज का अखड़ा, विमान भी होता है.

शंख, घण्टा ध्वनि के साथ सामूहिक जलवा पूजन

विमानों की यह शोभायात्रा सांध्य होते ही डोल मेला स्थित तालाब पर पहुंच जाती है, जिसके किनारे यह विमान रख दिये जाते हैं. जहां देवी देवताओं को नूतन जल विश्राम करवाया जाता है. उसके बाद शंखनाथ, घंटा, ध्वनि, झालर आदि कई वाद्य यत्रों की ध्वनि एवं जय- जयकार के उद्घोषों के साथ सामूहिक महाआरती होती है. यह दृश्य भी काफी आकर्षक होता है, लोग श्रद्धा से भावभिहीन हो उठते हैं. इस आलोकिक दृश्य को देखकर हरिद्वार की गंगा आरती का स्मरण हो जाता है. धार्मिक श्रद्धा, लोकानुरंजन एवं व्यवसाय का मिश्रित रूप बारां का यह डोल मेला काफी ख्याति अर्जित कर चुका है.

मेला का यह है इतिहास

बारां में स्थित कल्याणरायजी, श्रीजी का मन्दिर जहां से शोभायात्रा शुरू होती है. वह 600-800 वर्ष पुराना बताया जाता है. इतिहास में उल्लेख है कि बून्दी के महाराव सूरजन हाड़ा ने रणथम्भौर का किला अकबर को सौंप दिया था. उस समय वहां से 02 देव मूर्तियों को लाया गया था. उनमें एक रंगनाथजी की तथा दूसरी कल्याणरायजी की थी. रंगनाथ जी की मूर्ति को बून्दी में स्थापित किया गया और कल्याणराय जी की मूर्ति को बारां लाया गया था. बून्दी की तत्कालीन महारानी ने यहां श्रीजी के मन्दिर का निर्माण करवाया और मूर्ति यहां स्थापित की.

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