जब एक निर्माणाधीन किले का नाम रखा गया जूनागढ़, जानें इसके सदियों पुराने इतिहास से जुड़ी ये बातें

जूनागढ़ किले के चारों और सुरक्षा हेतु खाई बनी हुई है, जो 20 फीट चौड़ी व 25 फीट गहरी है. कहा जाता है इस खाई में हमेशा पानी भरा रहता था और उसमें मगरमच्छ तैरते रहते थे...

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जूनागढ़ का किला (फाइल फोटो)

History of Junagadh Fort: राजस्थान हमेशा से अपने आन, बान और शान के लिए जाना जाता रहा है. इसकी ये आन, बान और शान यहां के जीवन में हर जगह नजर आती है. यहां बने हुए गढ़ और किले भी इसके अपवाद नहीं हैं. तत्कालीन राजपूताने के दक्षिण भाग में सुरक्षा की दृष्टि से सर्वाधिक गढ़ स्थित थे. इस भू-भाग में महाराष्ट्र की तरह पग-पग पर किलों की अनवरत श्रृंखला मिलती है. इसका एक कारण यह भी था कि 13वीं सदी के बाद किले बनाने की परम्परा एक नया मोड़ लेती हुई प्रतीत होती है. उस काल में ऊंची पहाड़ियां, जो उपर से चौड़ी हों और जिनमें खेती करने के लिए सिंचाई के साधन उपलब्ध हों, किले बनाने के उपयोग में लायी जाने लगी थी.

 इसकी भू-आकृतियां, तत्कालीन राजपूताने के दक्षिण भाग में सर्वत्र सुलभ थी. लेकिन  थार के रेगिस्तान (जहां नवस्थापित बीकानेर राज्य विस्तार ले रहा था) में भौगोलिक परिस्थितियां विषम और भिन्न होने के कारण, यहां गढ़ बनाने की अलग तकनीक विकसित हुई. फलत: जूनागढ़ का किला धान्वन श्रेणी के सर्वोत्कृष्ट किले के रूप में विकसित हुआ.

बीकानेर राज्य के पहले शासक

बीकानेर के हृदय स्थल में स्थित जूनागढ़ किले का निर्माण महाराजा रायसिंह के समय 1589 ई. में प्रारम्भ हुआ था. यहां इस तथ्य को भी रेखांकित करना प्रासंगिक होगा कि महाराजा रायसिंह बीकानेर राज्य के प्रथम शासक थे. जिन्होंने महाराजाधिराज, महाराजा श्री की उपाधि ग्रहण की थी. अन्यथा उनसे पहले के शासकों ने राव का खिताब ही ग्रहण कर रखा था. जूनागढ़ में स्थित सूरजपोल के निकट स्थापित रायसिंह की प्रशस्ति भी इसी तथ्य को प्रमाणित करती है.

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उक्त उपाधि के परिप्रेक्ष्य में भी प्रस्तावित गढ़ का निर्माण अपेक्षित था. क्योंकि गढ़ सुरक्षा ही नहीं अपितु सत्ता एवं प्रभुत्व के प्रतीक के रूप में राजनैतिक क्षितिज पर प्रतिबिम्बित होता रहा है. इसी कारण राजा, महाराजा गढ़ विशेष को अपनी व्यक्तिगत निधि के समतुल्य समझते थे.

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निर्माणाधीन किले का नाम रखा गया जूनागढ़

इतिहास साक्षी है कि, भविष्य में जूनागढ़ के किले ने नव स्थापित बीकानेर राज्य को भारत के राजनैतिक मानचित्र पर एक विशिष्ट पहचान प्रदर्शित की. इस सुदृढ़ किले के निर्माण में लगभग 5 वर्ष लगे थे. 1593 ई. में जब मुगल सम्राट अकबर ने महाराजा रायसिंह की उत्कृष्ट सैनिक सेवाओं से खुश होकर उन्हें गुजरात में जूनागढ़ की जागीर पारितोषिक के रूप में प्रदान की तो उक्त विजयी और गौरवमयी क्षणों को स्थायित्व देने के लिए 1594 ई. में निर्माणाधीन किले का नाम जूनागढ़ रखा गया, जो कालान्तर में उत्तर पश्चिमी राजस्थान में धान्वन श्रेणी का सर्वश्रेष्ठ किला प्रमाणित हुआ.

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इस किले में मुगल स्थापत्य शैली को स्थानीय स्थापत्य शैली के साथ इस प्रकार संयोजित किया गया है कि शिल्प कला की दृष्टि से इसमें अद्भुत आकर्षण उत्पन्न हो गया है, जो अनायास ही पर्यटकों का मन लुभा लेती है.

किले के चारों ओर बनीं खाई में तैरते हैं मगरमच्छ

प्रसिद्ध साहित्यकार राजाराम स्वर्णकार बताते हैं कि स्थापत्य की दृष्टि से जूनागढ़ का किला अप्रतिम है. इसका आधार चतुर्भुजाकार है. किले के चारों और सुरक्षा हेतु परिखा (खाई) बनी हुई है, जो 20 फीट चौड़ी व 25 फीट गहरी है. कहा जाता है इस खाई में हमेशा पानी भरा रहता था और उसमें मगरमच्छ तैरते रहते थे. जूनागढ़ में  37 विशाल बुर्ज हैं, जो 40 फीट ऊंचे है. जूनागढ़ बाहर से जितना सुदृढ़ है, इसका आंतरिक भाग उतना ही कलात्मक, भव्य एवं दर्शनीय है, जो इसे विश्व धरोहर के रूप में अलंकृत करने के लिए विवश करता है. 

जूनागढ़ लाल पत्थरों का बना है, जबकि कतिपय पोल, पीले पत्थरों से निर्मित हैं, जिनमें सूरजपोल अद्वितीय है. सूरजपोल के दोनों ओर जयमल राठौड़ और पत्ता सिसोदिया की हाथी पर आरूढ़ पाषाण मूर्तियां लगी हुई हैं.

अकबर ने आगरा में लगवाई इन योद्धाओं की तस्वीर...

1568 ई. में मुगल सम्राट अकबर ने चित्तौड़गढ़ के किले को घेर लिया था, तब राणा उदयसिंह ने किले की सुरक्षा का भार मेड़तिया राठौड़ जयमल को सौंपा था. कड़े संघर्ष के पश्चात दोनों रणबांकुरे चितौड़ के इतिहास प्रसिद्ध साके में वीर गति को प्राप्त हो गये थे.

अकबर इन रणबांकुरों की वीरता से इस कदर अभिभूत हुए थे कि उन्होंने आगरे के किले के प्रवेश द्वार पर दोनों अप्रतिम यौद्धाओं की प्रस्तर मूर्तियां लगाई थी. जूनागढ़ किले की मुगलों के वैभव और सांस्कृतिक उन्नयन के प्रतीक आगरे के किले से साम्यता स्थापित की जा सकती है. 

यही वजह है कि जूनागढ़ का मूल आधार तो राजपूत स्थापत्य शैली में हैं, लेकिन  इसके कंगूरों व झरोखों पर मुस्लिम कलात्मक शैली का प्रभाव है, जो इसे भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति का नायाब नमूना प्रकट करता है

राव बीकाजी ने बीकानेर बसाया, उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए राजाराम स्वर्णकार कहते हैं कि:-

पनरै सौ पैंताळवैं, सूद बैसाख सुमेर.
थावर बीज थरपियों, बीकै बीकानेर..

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