पाबूजी राठौड़: अपनी शादी के फेरे छोड़ गायों की रक्षा के लिए प्राण देने वाले मारवाड़ के शूरवीर

Pabuji Rathore Story: गोरक्षा के लिए अपने प्राणों को त्यागने वाले पाबूजी राठौड़ की जन्मस्थली कोलू पाबूजी आज भी जीवों की सेवा और पर्यावरण संरक्षण की अनूठी मिसाल है.

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Rajasthan News: राजस्थान की धरा शूरवीरों की धरती के साथ भक्ति और शक्ति की धरती के रूप में भी पहचानी जाती है. इस धरा पर अनेक ऐसे वीर हुए जिन्हें आज भी देव स्वरूप पूजा जाता है. इन्हीं में से एक हैं राजस्थान के लोक देवता पाबूजी राठौड़. उन्हें लक्ष्मण का अवतार भी माना जाता है.

गोरक्षा के लिए अपने प्राणों को त्यागने वाले पाबूजी राठौड़ की जन्मस्थली कोलू पाबूजी आज भी जीवों की सेवा और पर्यावरण संरक्षण की अनूठी मिसाल है. जोधपुर के देचू गांव के पास, जैसलमेर हाईवे के निकट स्थित कोलू पाबूजी गांव आज धार्मिक व सामाजिक सद्भाव के एक बड़े केंद्र के रूप में उभर रहा है.

ऐसा बताया जाता है कि पाबूजी राठौड़ ने अपने विवाह को बीच में छोड़ गायों की रक्षा के लिए अपने प्राणों को न्योछावर कर दिया था.

वहीं पश्चिमी राजस्थान में, और विशेष रूप से मारवाड़ क्षेत्र में सर्वप्रथम ऊंटों को लाने का श्रेय भी बाबूजी राठौड़ को ही जाता है. वहां इन्हें ऊंटों के देवता के रूप में भी पूजा जाता है.

कोलू पाबूजी में हर साल 18 हजार बीघा क्षेत्र में करीब 35 किलोमीटर की ओरण परिक्रमा की जाती है जिसमें हजारों की संख्या में ग्रामीण व साधु संत सम्मिलित होते हैं. कोलू पाबूजी मंदिर के आसपास के क्षेत्र की यह भी विशेषता है कि यहां 18000 बीघा के क्षेत्र में किसी प्रकार की खेती भी नहीं की जाती और ना ही यहां किसी प्रकार का अतिक्रमण होता है. यहां की पूरी भूमि सिर्फ जीव-जंतुओं के विचरण के लिए ही उपयोग में ली जाती है. इसी संकल्प के साथ यहां ओरण परिक्रमा का आयोजन होता है.

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इस ओरण परिक्रमा में पारंपरिक वेशभूषा में ग्रामीण महिलाएं अपने घरों से प्रसाद स्वरूप देशी घी पाबूजी के पवित्र मंदिर में चढ़ाते हैं. वहीं पाबूजी के मंदिर में माटा (माटी का घड़ा) घुड़ताल (घोड़े के चलने की आवाज) में बजाया जाता है और इसी वाद्य यंत्र के साथ आरती होती है.

लोक देवता पाबूजी राठौड़ का जीवन परिचय

लोकदेवता पाबूजी राठौड़ का जन्म 1299 ईस्वी में जोधपुर के कोलूमंड गांव में हुआ था. उनके पिता का नाम धांधलजी व मां का नाम कमलादे था. पाबूजी का विवाह अमरकोट (वर्तमान में पाकिस्तान) के राजा सूरजमल की पुत्री पोलमदे से हुआ था. रेबारी जाति के लोग पाबूजी राठौड़ को आराध्य देव के रूप में पूजते हैं. वहीं मुस्लिम भी पाबूजी राठौड़ को पीर के रूप में पूजते हैं.

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एनडीटीवी से खास बातचीत करते हुए कोलू पाबूजी मंदिर में ओरण परिक्रमा के संरक्षक जुगत सिंह करनोत ने बताया कि मध्यकालीन भारत में पाबूजी राठौड़ ने अपनी शादी की चंवरी के फेरे बीच में छोड़कर गायों की रक्षा के लिए अपना बलिदान दे दिया था.

धर्म बहन से ली थी शादी के लिए घोड़ी, गोरक्षा का वचन निभाया

पाबूजी ने शादी के लिए अपनी धर्म बहन देवलबाई चारणी से केसर नाम की घोड़ी मांगी थी, लेकिन यह वचन दिया था कि जब भी गायों पर कोई मुसीबत आएगी तो वह गायों को बचाने आएंगे. इसके बाद पाबूजी केसर घोड़ी पर सवार होकर विवाह करने अमरकोट चले गए. 

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मगर जब उनकी शादी का चौथा फेरा हो रहा था, तो खबर आई कि उनकी धर्म बहन के पति ने गायों को लूट लिया है. यह सुनते ही पाबूजी लौट आए और तब उनका अपनी धर्म बहन पति के साथ संघर्ष हुआ. मगर वह अपनी बहन को विधवा नहीं करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने बचाकर हमले किए. मगर संघर्ष में गायों की रक्षा करते हुए उनके प्राण चले गए.

ओरण परिक्रमा

ओरण शब्द मारवाड़ में गौरव और संस्कृत का महत्व रखता है. 'ओरण' शब्द 'अरण्य' से बना है और वैदिक काल में ऋषि-मुनि इन वन भूमियों में तपस्या करते थे. मध्यकालीन भारत में गायों की रक्षा के लिए गोरक्षार्थ झुंझार हुए और ओरण उन गोरक्षार्थ झुंझरों के रक्त से रंगी हुई पवित्र धरा है जिसमें मंदिर, तालाब, मठ, कुएं व बावड़ियां हैं.

भारत में 13वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी के बीच मुगल सेनाएं यहां आक्रमण कर रही थीं. तब उन सेनाओं में कुछ सैनिक टुकड़ियां बिछड़ जाती थीं और जब उनके पास रसद सामग्री नहीं होती थी तो सैनिक गायों को लूट लेते थे. मगर मारवाड़ में गायों को पूजनीय मानते हैं और इसलिए जब गायों पर संकट आया तो पाबूजी ने अपनी शादी को छोड़ प्राणों का बलिदान दिया.

आज भी यहां लोग उनके आदर्शों पर चलते हैं और पवित्र ओरण भूमि में आज की पीढ़ी अपने पूर्वजों की धरा को बचाने के लिए इस ओरण परिक्रमा में भाग लेती है और अपनी धरोहर को बचाने का संकल्प लेती है.

एनडीटीवी से खास बातचीत करते हुए बाड़मेर के पूर्व राजघराने के महाराजा त्रिभुवन सिंह रावत ने बताया कि पाबूजी का मंदिर और यहां की ओरण भूमि हमें यह बात याद दिलाती रहेगी कि 14 वीं शताब्दी में हमारे यहां जितने भी पूर्वज हुए उन्हीं ने 14वी शताब्दी में ही यह सोच लिया था कि कि यदि हम पर्यावरण को नहीं बचा पाए तो हमारे लिए यहां रहना आगे आने वाले समय में बहुत ही परेशानी भरा रहेगा.

त्रिभुवन सिंह रावत ने  कहा, "देश भर में जितनी भी ओरण व गोचर भूमि है उनको बचाने का प्रयास करना चाहिए और हमें यह भी प्रयास करना चाहिए कि किसी भी ओरण या गोचर भूमि में किसी प्रकार का अतिक्रमण नहीं हो."

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