Independence Day 2024: 1947 में दौसा से लाल किले तक पहुंचे पहले तिरंगे की कहानी

15 अगस्त 1947 को लाल किले पर फहराने के लिए राजस्थान के दौसा जिले के अलूदा गांव के बुनकरों से झंडा मंगवाया गया था.

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India Independence Day 2024: भारत की स्वतंत्रता की कहानियों में राजस्थान के दौसा जिले का भी नाम जुड़ा है. भारत की आजादी के दिन लाल किले से जो तिरंगा फहराया गया था उसके लिए दौसा से भी एक झंडा मंगवाया गया था. यह झंडा दौसा के एक छोटे से गांव के बुनकरों ने बुना था. इस खास घटना की वजह से दौसा का नाम पूरा देश जान गया था.

अलूदा गांव दौसा शहर से करीब 14 किलोमीटर दूर स्थित है. लाल किले से 1947 को फहराए गए झंडे को लेकर अलूदा के एक बुनकर चौथमल ने दावा किया था कि इस झंडो को उन्होंने ही बुना था. अलूदा गांव में आज भी चौथमल के घर के बार एक साइन बोर्ड लगा है जिस पर लिखा है - "1947 के भारतीय प्रथम झंडा बुनकर चौथमल निवास, लाल किले की शान".

चार जगहों से मंगवाया गया था तिरंगा

इस बारे में दौसा खादी ग्रामोद्योग समिति के मंत्री अनिल शर्मा ने बताया कि देश की आजादी के समय देश की चार जगहों से तिरंगे मंगवाए गए थे. इनमें दौसा जिले का भी एक तिरंगा था. उन्होंने बताया कि उस समय गोविंदगढ़ में क्रांतिकारी गतिविधियां चला करती थीं. 

"उस समय ग्वालियर, मेरठ और हुगली से भी झंडे आए थे. यह कहना मुश्किल है कि इन चार झंडों में से कौन सा झंडा लाल किले से फहराया गया, मगर यह बात सत्य है कि उन चार झंडों में दौसा का भी एक झंडा मौजूद था." - अनिल शर्मा, मंत्री, दौसा खादी ग्रामोद्योग समिति

अलूदा से इस कपड़े को लेकर दो क्रांतिकारी गोविंदगढ़ गए और वहां इस तिरंगे को बनाया गया और फिर दिल्ली ले जाया गया. लाल किले पर पहली बार फहराया गया झंडा आज भी दिल्ली में राष्ट्रीय धरोहर के रूप में संजोया गया है. हालांकि यह बात स्पष्ट नहीं है कि जो तिरंगे आजादी के समय मंगवाए गए थे उनमें से कौन सा तिरंगा लाल किले की प्राचीर पर फहराया था.

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अनिल शर्मा बताते हैं,"उस समय ग्वालियर, मेरठ और हुगली से भी झंडे आए थे. यह कहना मुश्किल है कि इन चार झंडों में से कौन सा झंडा लाल किले से फहराया गया, मगर यह बात सत्य है कि उन चार झंडों में दौसा का भी एक झंडा मौजूद था."

अलूदा गांव में बुनकर के घर के बाहर लगी तख्ती

तिरंगे के बुनकर चौथमल और अलूदा गांव

तिरंगे के कपड़ा निर्माता चौथमल बुनकर का निधन कई दशकों पहले हो गया. उसके बाद चौथमल बुनकर का परिवार करीब 40 वर्ष पूर्व गांव छोड़ रोजगार की तलाश में अलूदा से पलायन कर चुका है.

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हालांकि एक समय में लाल किले के लिए झंडा भेजने वाले बुनकरों के इस प्रसिद्ध गांव के बुनकर अभी बदहाली का जीवन जी रहे हैं. यहां के बुनकरों का कहना है कि उन्होंने खादी के लिए अपने आप को समर्पित कर दिया लेकिन इस पेशे से उन्हें इतनी भी कमाई नहीं मिल पाती कि उनके घर का गुजारा चल सके.

अलूदा गांव के बुनकर चिरंजी लाल महावर

अलूदा के बुनकर चिरंजी लाल महावर ने बताया कि बुनकरी के लिए कोई न्यूनतम मजदूरी तय नहीं है. चरखे पर पूरे दिन कताई करने के बाद उन्हें रोज 152 रूपये ही मिलते हैं

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बुनकरों ने बताया कि सरकारों से कई बार फरियाद करने के बाद भी उनकी समस्याएं दूर नहीं हो पाईं और आज उसका परिणाम यह है कि अब उनकी अगली पीढ़ी अपना पारंपरिक काम छोड़ दूसरे काम-धंधे अपना रही है.

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