JLF-2025: "बच्चे को इंग्लिश सिखाइए, मगर मातृभाषा भी ज़रूरी", जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में बोले जावेद अख़्तर

Jaipur Literature Festival: जावेद अख़्तर ने दोहों की चर्चा करते हुए कहा कि आज के समय में 40 वर्ष से कम उम्र के हर इंसान की भाषा से दोहों की तरह कहावत भी दूर हो गए हैं.

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Rajasthan: जाने-माने लेखक, शायर और गीतकार जावेद अख्तर ने कहा कि आज के दौर में अंग्रेज़ी सीखना बहुत ज़रूरी है लेकिन मातृभाषाओं की उपेक्षा करना ग़लत है. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के पहले दिन जावेद अख़्तर ने दोहों के बारे में अपनी किताब पर परिचर्चा के दौरान मातृभाषा के महत्व पर अपनी राय रखी. जावेद अख़्तर ने हिन्दी लेखन में दोहे और कहावतों की परंपरा को बहुत ही महत्वपूर्ण बताया और कहा कि आज की पीढ़ी की भाषा से ये ग़ायब हो चुकी हैं, लेकिन इनके महत्व को समझने की ज़रूरत है.

जावेद अख़्तर ने दोहों के बारे में  एक नई किताब 'सीपियां' लिखी है जिसका फेस्टिवल में विमोचन हुआ. इस पुस्तक पर  हुई परिचर्चा में उन्होंने बताया कि उन्होंने यह किताब अपने एक एक मित्र की सलाह पर लिखी. उस मित्र ने एक बार बातचीत के दौरान कहा कि दोहा एक महत्वपूर्ण लेखन शैली है लेकिन यह काफी उपेक्षित है. जावेद अख़्तर ने कहा," उस मित्र ने कहा कि लोगों को लगता है कि यह गांवों की पाठशालाओं में पढ़ाई जाने वाली कोई चीज़ है जिसका शहरी लोगों से कोई संबंध नहीं है."

"मैं इंग्लिश का विरोध नहीं करता. अपने बच्चे को इंग्लिश नहीं सिखाना उसके साथ ज़्यादती करने जैसा है. लेकिन दूसरी भाषा सीखने की कीमत आपको अपनी भाषा से नहीं चुकानी चाहिए.यह सही नहीं है."

दोहों और कहावतों में बरसों का तजुर्बा

जावेद अख़्तर ने दोहों की चर्चा करते हुए कहा कि आज के समय में 40 वर्ष से कम उम्र के हर इंसान की भाषा से दोहों की तरह कहावत भी दूर हो गए हैं. उन्होंने कहा, "हमारी हर भाषा में कितनी ही कहावतें हैं जो बरसों के तजुर्बे से बनी हैं, लेकिन वो ग़ायब हो गई है. इसी तरह दोहे भी 500 से 800 साल पुराने हैं जिन्हें अगर आप ग़ौर से सुनते हैं तो ऐसा लगता है जैसे वो पिछले महीने लिखे गए हैं."

उन्होंने कहा कि जिस तरह संगीत सात सुरों से बनता है और दुनिया का तमाम संगीत इन्हीं सात सुरों से बना है. इसी तरह इंसानों की भावनाएं भी एक ही होती हैं और उनकी सरगम में कोई बदलाव नहीं आता. ऊपर से चीज़ें भले बदल जाएं लेकिन इंसानों की भावनाओं की सरगम वही रहेगी. गीत नए बना सकते हैं, लेकिन सरगम नहीं बदलती. दोहों में भी वही सरगम सुनाई देती है.

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इंग्लिश मीडियम पर ज़ोर की कीमत चुकाती मातृभाषा

जावेद अख़्तर ने दोहों के आज की भाषा से ग़ायब होने की वजह शिक्षा पद्धति में आए बदलाव को बताया. उन्होंने कहा,"संकट सिर्फ़ दोहों का नहीं है बल्कि पूरी भाषा और एजुकेशन सिस्टम का है.हमारे समाज की प्राथमिकताएं अलग हो गई हैं. हर परिवार अपने बच्चे को इंग्लिश मीडियम स्कूल में भेजना चाहता है. मैं इंग्लिश का विरोध नहीं करता. अपने बच्चे को इंग्लिश नहीं सिखाना उसके साथ ज़्यादती करने जैसा है. लेकिन दूसरी भाषा सीखने की कीमत आपको अपनी भाषा से नहीं चुकानी चाहिए.यह सही नहीं है."

"हमारी नई पीढ़ी भाषा से कट गई है. अगर आपने अपने बच्चे को भाषा से काट दिया तो वह अपनी इतिहास, संस्कृति, परंपरा, संस्कार से कट जाएगा."

जावेद अख़्तर ने कहा कि बच्चों को अपनी भाषा से काटना जड़ों से काटने के समान है. उन्होंने कहा,"अगर आपने अपनी मातृभाषा नहीं सीखी तो ये ऐसा ही है जैसे आपने एक पेड़ को डालियाँ और शाखें दे दीं, लेकिन जड़ें काट दी और ऐसा पेड़ जिंदा नहीं रहेगा. हमारी नई पीढ़ी भाषा से कट गई है. अगर आपने अपने बच्चे को भाषा से काट दिया तो वह अपनी इतिहास, संस्कृति, परंपरा, संस्कार से कट जाएगा."

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उन्होंने कहा कि ये चलन बदलना चाहिए लेकिन ये भी अंग्रेज़ी की कीमत पर नहीं होना चाहिए क्योंकि अंग्रेज़ी आज सिर्फ़ इंग्लैंड की भाषा नहीं रही बल्कि एक अंतरराष्ट्रीय भाषा बन चुकी है. जावेद अख़्तर ने कहा,"हम अंग्रेज़ी के बिना सर्वाइव नहीं कर सकते. आईटी के क्षेत्र में हमारी अलग पहचान इसलिए बनी है क्योंकि हमारे यहां एक बहुत बड़ी आबादी को अंग्रेज़ी का लाभ मिला. मैं चाहता हूं कि हमारे बच्चे बहुभाषी हों और अपनी भाषा को जानना भी इतना ही ज़रूरी है. जब हमने अपनी भाषा को छोड़ा तो दोहे भी पीछे हो गए."

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