राजस्थान के अखाड़े की 250 साल पुरानी परंपरा, जहां सभी तरह के लोग सीखते हैं लाठी चलाना; जानें पूरी डिटेल

इंटरनेट क्रांति के इस दौर में बहुत सारी ऐसी प्राचीन कलाएं और विधाएँ हैं जो समय के साथ लुप्त होती जा रही है. उन्हीं में से एक अखाड़ों में सिखायी जाने वाला लट्ठ शास्त्र यानी लाठी चलाने का कला हैं. 

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अखाड़े की तस्वीर

Rajasthan News: कहते हैं दुनिया की पहली बड़ी जंग लाठियों के सहारे लड़ी गई थी और आखिरी जंग भी लाठियों से ही लड़ी जाएगी. आदिकाल से इंसान का आत्म रक्षा के लिए सबसे पहला मजबूत हथियार लाठी ही रहा है. समाज में कानून का डंडा हो, ईश्वर की लाठी हो या फिर बुजुर्गों के सहारे वाली छड़ी हर बदलते दौर में साथ लाठी का अपना एक उपयोग और महत्व रहा है. लेकिन पिछले कुछ सालों में लाठी की जगह आधुनिकता ने ले ली और जहां लाठी चलाना सिखाया जाता था. उन अखाड़ों की जगह अब जिम और दूसरे योगा सेंटर नजर आने लगे और धीरे-धीरे ये अखाड़े और ये कला विलुप्त होती चली गई.

लेकिन ऐसे दौर में भी राजस्थान में कुछ अखाड़े ऐसे हैं जो आज भी इस प्राचीन परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं. जो ना केवल लाठी चलाने की कला और संरक्षित किये हुए हैं बल्कि आने वाली पीढ़ी को ये बहुमूल्य थाती भी सौंप रहे हैं. 

इन अखाड़ों का मकसद

ऐसा ही एक अखाड़ा राजस्थान की राजधानी जयपुर में है जहाँ आज भी लठैत तैयार किए जाते हैं. ये वो लठैत हैं जो न केवल लाठी चलाने की कला के ज़रिए ख़ुद में आत्मबल तैयार करते हैं बल्कि ज़रूरत पड़ने पर समाज में अपना एक अहम रोल अपनी भूमिका भी निभाते हैं. इन अखाड़ों का मकसद इन युवाओं को न सिर्फ इस आर्ट में ही माहिर करना है, बल्कि उन्हें शारीरिक मानसिक तौर पर मजबूत भी बनाना है. इसके साथ इन अखाड़ों में युवाओं को आर्मी और पुलिस की नौकरी के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार भी किया जाता है. 

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जयपुर के चौगान स्टेडियम के पीछे भी ऐसा ही एक अखाड़ा है, जिसे इसके गुरु बलवंत सिंह के अखाड़े के नाम से जाना जाता है. विभिन्न जाति विभिन्न धर्मों से आने वाले ये युवा यहां सांस्कृतिक सौहार्द का भी प्रतीक हैं.

ढ़ाई सौ साल पुरानी परंपरा

वैसे देखा जाए तो इस अखाड़े की परंपरा ढाई सौ साल पुरानी है. लेकिन 1952 में मेरठ से आए बलवंत सिंह ने जयपुर में इस अखाड़े की स्थापना की थी. उस दौर में बहुत सारे अखाड़े राजाओं और जागीरदारों के यहां ही चला करते थे. बलवंत सिंह ने इसे आम आदमी से जोड़ा. आम लोगों को यहां प्रशिक्षण देना शुरू किया और वो परंपरा आज तक चली आ रही है.

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इस अखाड़े में बलवंत सिंह की प्रतिमा पर मौजूद है. यहां आने वाले तमाम शिष्य रोज़ाना उनके सामने अपना शीश झुकाते हैं. साथ ही उनकी सिखाई लाठी चलाने की कला को आगे बढ़ाने का संकल्प लेते हैं. 

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अगली पीढ़ी तक परंपरा पहुंचाने का काम

इस अखाड़े के गुरू रहे सुमेर सिंह नियमित तौर पर सुबह से शाम तक अलग-अलग जगहों से आने वाले युवाओं को लाठी चलाने की कला सिखाते हैं. सुबह 6 बजे के साथ ही यहां शारीरिक व्यायाम और दूसरी एक्सरसाइज का दौर शुरू हो जाता है, सुमेर सिंह ने अब 78 साल के हो चुके हैं. इसलिए बतौर कोच अपने पुत्र भगत सिंह को यहां नियुक्त कर दिया है. जिससे आने वाली पीढ़ी इस परंपरा का निर्वहन कर सके.

लाठी चलाने के फायदे

इस अखाड़े में आपको 10 साल के युवा से लेकर 50 साल तक के शिष्य लाठी चलाने का अभ्यास करते हैं. यहां आर्मी के जवान, योग टीचर, सुरक्षाकर्मी और वक़ील भी अभ्यास करने आते हैं. इस कला को लेकर सबकी अपनी-अपनी राय है. कोई से शारीरिक मानसिक तौर पर खुद को मजबूत बनाने की विधा मानता है, किसी का कहना है कि इससे उनका आत्मबल बढ़ा है. किसी को अपने क्रोध पर नियंत्रण करने में मदद मिली तो कोई इसे समाज में बुराई के खिलाफ लड़ने का सबसे बड़ा हथियार मानता है. 

दाखिला लेने के नियम

कोच सुमेर सिंह ने बताया कि इस अखाड़े के कायदे नियम बिलकुल साफ हैं. अखाड़े में प्रवेश करने के साथ ही जय श्रीराम का नारा और यहां बने हनुमान मंदिर में ये शीश नवाने के साथ कोच गुरु का आशीर्वाद लेकर प्रशिक्षण शुरू किया जा सकता है. प्रशिक्षण लेने के लिए कोई शुल्क नहीं लिया जाता है. कोच की मुंह भराई की रस्म और कामयाब होने पर अपनी इच्छा से मदद की जा सकती है.

सुमेर सिंह ने बताया कि पुराने शिष्यों की मदद से पूरे राजस्थान में 43 अखाड़े खोल रखे हैं. उनकी कोशिश रहती है कि महीने में एक बार सभी अखाड़ों में जाकर ट्रेनिंग ली जाए और अखाड़ों के संचालन का फीडबैक भी लिया जाए. सुमेर सिंह का मानना है कि अब तक राजस्थान में भी 50, हजार से अधिक बच्चों को वे लाठी चलाने की कला में पारंगत कर चुके हैं.

लाठी चलाने के नियम

अखाड़े में लाठी चलाने के लिए सबसे पहले योग्य लाठी का चुनाव करना होता है, जो चलाने वाली की हाइट से ज़्यादा और उसके काम की कान तक की ऊंचाई से कम नहीं होनी चाहिए. लाठी मजबूत हो और अलग-अलग पोर में डिवाइड होनी चाहिए. लाठी को पकड़ने का भी अपना तरीका होता है. प्रशिक्षण के दौरान इस बात का पूरा ख्याल रखा जाता है कि सामने वाले को चोट नहीं आए.

इस अखाड़े में देश दुनिया के कई नामचीन और राजस्थान के प्रमुख नेताओं की समय समय पर मौजूदगी रही है मुफ़्त में हिंद दारा सिंह भी जयपुर आने के दौरान इसे खड़े में आए थे उस दौरान की यादें आज भी वो सुमेर सिंह के जेहन में ताज़ा है.

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