30 साल बाद पिता को मिला न्याय, हाई कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट का फैसला पलटा

राजस्थान हाई कोर्ट ने 30 वर्षों तक न्याय का इंतजार कर रहे एक पिता को न्याय प्रदान किया है, जब कोर्ट ने उसकी बेटी के हत्यारे को आजीवन कारावास की सजा सुनाई. ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को बरी कर दिया था, लेकिन हाई कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को पलटते हुए आरोपी को दोषी ठहराया.

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Rajasthan News: न्याय के लिए पिछले 3 दशक से न्यायपालिका से उम्मीद लगाए बैठे एक बेबस पिता को आखिरकार राजस्थान हाई कोर्ट से न्याय मिल ही गया. साथ ही बेटी के हत्यारे को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है. ट्रायल कोर्ट ने पत्नी की हत्या के मामले में पति को दोष मुक्त करार दे दिया था, लेकिन राजस्थान हाई कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को बदलते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई. विजयनगर थाने में 20 जून 1991 को करनैल सिंह ने एक मामला दर्ज कराया कि मेरे बेटी के पति ने ही मेरे बेटी की कस्सी से निर्मम हत्या कर दी है, जिसपर पुलिस ने मामला दर्ज किया.

घटना के समय मृतका की 16 वर्षीय बेटी भी घटना स्थल पर मौजूद थी. घटना ने बाद करीब 5 दिन तक पुलिस आरोपी की तलाश करती रही. 25 जून 1991 को पुलिस ने आरोपी पति को गिरफ्तार किया.

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राजस्थान हाईकोर्ट में ट्रायल कोर्ट के फैसले को दी चुनौती

पुलिस ने मामले की जांच पूरी होने पर आरोपी के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया. ट्रायल कोर्ट ने आरोपी के खिलाफ आरोप तय अभियुक्त को सुनाया तो उसने इनकार कर दिया और उसने मुकदमे का दावा किया, जिसके बाद मुकदमे का ट्रायल शुरू हुआ है. मुकदमे के दौरान अभियोजन पक्ष ने 09 गवाह पेश किए और 19 दस्तावेज प्रदर्शित किए. वहीं बचाव में 01 गवाह पेश किया गया और 02 दस्तावेज जांच के लिए प्रदर्शित किए गए.

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इसके बाद दोनों पक्षों की दलीलों को सुनने के साथ-साथ रिकॉर्ड पर रखी गई सामग्री और सबूतों पर विचार करने के बाद, विद्वान ट्रायल कोर्ट ने 28 अक्टूबर 1992 को आरोपी को बरी कर दिया. इसके बाद मृतका के पिता ने न्याय के लिए राजस्थान हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और ट्रायल कोर्ट के फैसले को चुनौती दी. 

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ट्रायल कोर्ट ने गवाही को किया था खारिज

याचिकाकर्ता की ओर से वकील ने बताया कि  संबंधित घटना के तीन चश्मदीद गवाह करनैल सिंह, रामबिंद्र और जंगीर सिंह थे, जिन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था. उनकी गवाही थी कि आरोपी ने मृतका की हत्या की थी, लेकिन विद्वान ट्रायल कोर्ट ने उनकी गवाही को खारिज कर दिया, और आरोपी-प्रतिवादी के पक्ष में बरी करने का फैसला सुनाया, जो कानून में उचित नहीं है.

न्यायमूर्ति की खंडपीठ का आदेश

न्यायमूर्ति पुष्पेंद्र सिंह भाटी और न्यायमूर्ति मुन्नुरी लक्ष्मण की खंडपीठ ने अपने आदेश में कहा, 'यह न्यायालय यह भी मानता है कि विद्वान ट्रायल कोर्ट ने बरी करने का विवादित फैसला सुनाते समय 3 प्रत्यक्षदर्शियों की गवाही को केवल कुछ मामूली विरोधाभासों के आधार पर स्पष्ट रूप से नजरअंदाज कर दिया था, और अभियोजन पक्ष द्वारा रिकॉर्ड पर पेश किए गए अन्य पुष्टि करने वाले साक्ष्यों को भी नजरअंदाज कर दिया था, जो कि बरी करने के विवादित फैसले में कानून की एक स्पष्ट त्रुटि के अलावा और कुछ नहीं है.

यह न्यायालय आगे यह भी मानता है कि रिकॉर्ड पर उपलब्ध साक्ष्य और सामग्री के आधार पर, फिलहाल मामले में आरोपी-प्रतिवादी को धारा 302 IPC के तहत दोषी ठहराने के अलावा कोई अन्य दृष्टिकोण नहीं हो सकता था.' अदालत ने आगे कहा कि ट्रायल कोर्ट के आदेश में हस्तक्षेप का दायरा कानून में अच्छी तरह से निर्धारित है, जिसमें धारा 386 सीआरपीसी भी शामिल है, और जब इसे वर्तमान मामले में लागू किया जाता है, तो यह पता चलता है कि ट्रायल कोर्ट ने रिकॉर्ड पर मौजूद भौतिक साक्ष्य को "छोड़ दिया/गलत तरीके से पढ़ा",

जिसमें विचाराधीन घटना के 3 प्रत्यक्षदर्शियों की गवाही, कस्सी (प्रश्नाधीन अपराध का हथियार) की बरामदगी, मृतक को लगी चोटें, मेडिकल रिपोर्ट शामिल है, जो पति को दोषी ठहराने और सजा सुनाने के लिए पर्याप्त थे. पीठ ने कहा, "इस प्रकार, विद्वान ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित बरी करने का विवादित निर्णय अवैधता, विकृति और कानून और तथ्यों की त्रुटियों से ग्रस्त है."

यह हुई थी घटना

मृतक पत्नी और आरोपी पति अशांत संबंधों के कारण अलग-अलग रह रहे थे और आरोपी मृतक के घर पर अपनी दूसरी पत्नी के साथ रह रहा था. मृतक के पिता एक अन्य व्यक्ति के साथ विवाद को सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटाने के लिए आए थे, लेकिन जब वे चले गए तो आरोपी ने कस्सी से मृतक के सिर और गर्दन पर गंभीर वार किए, जिससे उसकी मौत हो गई. निचली अदालत ने आरोपी को बरी कर दिया था, जिसके खिलाफ राज्य ने उच्च न्यायालय में अपील दायर की थी.

अपीलकर्ता ने कहा कि घटना के तीन चश्मदीद गवाह थे, मृतक के पिता, उसका साथी और मृतक की बेटी, जिन्होंने आरोपी के अपराध के बारे में स्पष्ट गवाही दी थी. इसके अलावा, आरोपी द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर पुलिस ने आरोपी के घर से पीड़िता के खून से सने कपड़े और हथियार भी बरामद किया. इसके अलावा, जांच अधिकारी और पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर ने भी अभियोजन पक्ष की कहानी का समर्थन किया.

सुनवाई के दौरान गवाह पेश न करने का आरोप

इन सभी सबूतों के मद्देनजर, राज्य ने तर्क दिया कि आरोपी को बरी करना कानून की नजर में टिकने योग्य नहीं है. इसके विपरीत, अभियुक्त के वकील का कहना था कि चश्मदीद गवाहों की गवाही में बहुत बड़ा विरोधाभास था, जिसमें पुलिस के घटनास्थल पर पहुंचने का समय भी शामिल था. इसके अलावा, घटनास्थल के आसपास होने के बावजूद, अभियोजन पक्ष ने सुनवाई के दौरान कोई स्वतंत्र गवाह पेश नहीं किया.

सभी दलीलें सुनने और रिकॉर्ड पर रखी गई सभी सामग्री का अध्ययन करने के बाद, उच्च न्यायालय ने अभियुक्त के वकील की दलीलों को खारिज कर दिया और कहा कि घटनास्थल पर पुलिस के पहुंचने के समय के तथ्य को छोड़कर, चश्मदीद गवाहों की गवाही में कोई बड़ा विरोधाभास नहीं था, जिन्होंने स्पष्ट रूप से गवाही दी थी कि अभियुक्तों ने मृतक को कई चोटें पहुंचाईं और उन्होंने घटना को स्पष्ट रूप से देखा था.

राज्य की अपील को स्वीकार करते हुए उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के आदेश को खारिज कर दिया, अभियुक्त को दोषी ठहराया और उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई. चूंकि अभियुक्त जमानत पर था, इसलिए उच्च न्यायालय ने उसकी जमानत बांड रद्द कर दी और आदेश दिया कि उसे वापस हिरासत में लिया जाए और सजा काटने के लिए जेल भेजा जाए.

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