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Special Report: राजस्थान के रेगिस्तान में बारिश की हर बूंद को कैसे इकट्ठा करते थे लोग? बाड़मेर से स्पेशल रिपोर्ट

बाड़मेर और जैसलमेर में कभी घी सस्ता और पानी महंगा है. एक दौर ऐसा भी था जब पानी के स्रोतों पर ताले लगाए जाते थे और उनकी रखवाली की जाती थी.

Special Report: राजस्थान के रेगिस्तान में बारिश की हर बूंद को कैसे इकट्ठा करते थे लोग? बाड़मेर से स्पेशल रिपोर्ट
Barmer Traditional Water Resources

Barmer water Crisis: पश्चिमी राजस्थान, खासकर बाड़मेर और जैसलमेर में कभी यह कहावत आम थी कि यहां घी सस्ता और पानी महंगा है. एक दौर ऐसा भी था जब पानी के स्रोतों पर ताले लगाए जाते थे और उनकी रखवाली की जाती थी. समय बदलने के साथ कई इलाकों में पाइपलाइन से पानी पहुंचने लगा लेकिन इस बदलाव के कारण जिलों के पुराने और पारंपरिक जल स्रोतों की अनदेखी होने लगी है. जिसके कारण प्राचीन जलस्रोत जर्जर हो रहे हैं. स्थानीय लोगों का कहना है कि अगर सरकार और प्रशासन इन पर ध्यान दे और इनका सही रखरखाव करे, तो ये आज भी लाखों लोगों की प्यास बुझाने में सक्षम हैं.

क्या है ये सोनिया चैनल और रामसर का पार

दरअसल रामसर का पार ( तालाब) हैं. इसमें करीब 120 से 150 बेरियों (छोटे कुओं) का एक समूह हैं. इनकी गहराई 30 से 50 फीट हैं. इससे तालाब से करीब 5 किलोमीटर दूर स्थित हैं रामसर गांव की पहाड़िया,जब बारिश होती थी तो इन पहाड़ियों का पानी रामसर गांव से 2 किलोमीटर दूर एक खुले मैदान जाकर बिखर जाता था. गांव वालो ने देखा कि यह पानी व्यर्थ हो रहा हैं.सभी ने मिलकर योजना बनाई और सबके सहयोग से मैदान में एक तालाब खुदवाया .

पानी ज्यादा दिन रहता था बना

इसके निर्माण के बाद बर्बाद होने वाला पानी कई महीनों तक रामसर गांव और आसपास के लोगों के काम आने लगा, लेकिन कच्चे पानी के रास्ते (छोटी नदी) से न तो पूरा पानी तालाब तक पहुंचता था और न ही तालाब का पानी ज्यादा दिनों तक टिक पाता था. ऐसे में गांव वालों ने मिलकर तालाब से लेकर पहाड़ों तक नदी को पत्थरों और मिट्टी से ठोस बना दिया. जिससे जमीन ने पानी कम सोखा और तालाब में ज्यादा पहुंचने लगा. इस वजह से यह कई लोगों के लिए लंबे समय तक उपयोगी होने लगा.

 अनदेखी का शिकार हो रहा तालाब

अनदेखी का शिकार हो रहा तालाब
Photo Credit: NDTV

कई महीनों तक तालाब में बना रहता था पानी

 इसके लिए ग्रामीणों ने तालाब में बेरिया (कुएं) खोद दी.तब यह कुएं अलग अलग परिवार के लिए निजी होते थे. रात भर इन बेरियों पर ग्रामीण पहरा देते थे. पहाड़ों से ज्यादा आ रहे पानी के चलते कई महीनों तक तालाब में पानी बना रहता था . उसकी ऊपरी सतह पानी सोख कर भूजल स्तर को भी  बढ़ाती थी. जिससे बेरियां कुएं रिचार्ज होते थे . इससे  सालभर आसपास के दर्जनों गांवों को पीने का मीठा पानी उपलब्ध होता था.

बदलते दौर में प्राचीन जलस्रोतों की हो रही अनदेखी

जल संरक्षण की इस बेहतरीन संरचना के बारे में ग्रामीणों का कहना है कि इससे हम और आसपास के दर्जनों गांवों के लोगों की प्यास बुझती थी. इससे साल भर पानी मिलता था, लेकिन बदलते दौर में इसकी अनदेखी हो रही है. नलों से पानी तो आता है, लेकिन नहर बंद होने जैसी स्थिति में कई महीनों तक पानी नहीं मिल पाता. ऐसे में इस पानी को भी संरक्षित कर ग्रामीणों तक पहुंचाया जाना चाहिए. इससे कई लोगों की प्यास बुझ सकती है.

कई महीनों तक पानी नहीं मिल पाता.

कई महीनों तक पानी नहीं मिल पाता.
Photo Credit: NDTV

कई गांवों की एक साथ बुझाता था प्यास

रामसर के सरपंच गिरीश खत्री इन बेरियों और चैनल की उपयोगिता बताते हुए कहते हैं कि इसमें जमा बरसात का पानी रामसर ही नहीं, बल्कि आसपास के बाबूगुलेरिया, रामसर आगौर, पाबूसरिया, खारिया, पांधी का पार सहित कई गांवों की हजारों की आबादी की प्यास बुझाता था. ग्राम पंचायत स्तर पर उन्होंने करीब 60 बेरियों की सफाई करवाकर इनके ऊपर पक्के सीमेंट से प्लेटफॉर्म बनवाए हैं, लेकिन ग्राम पंचायत के पास इतना फंड और संसाधन नहीं है कि इन बेरियों और चैनल के पानी को एकत्रित कर आसपास के इलाके में सप्लाई कर सके.

रोजाना लाखों लीटर पानी मिल सकता है

सरपंच खत्री ने जलदाय विभाग और जिला प्रशासन से अपील की है कि यहां स्थित हर बेरी पर सोलर चलित मोटर लगाकर एक बड़ा वॉटर ओवर हेड टैंक बनाया जाए, जिससे रोजाना लाखों लीटर पानी मिल सकता है और बड़े इलाके की पेयजल समस्या हल हो सकती है. लेकिन बड़े स्तर पर इनके संरक्षण को लेकर कोई काम नहीं हो रहा है। धीरे-धीरे इन बेरियों में गाद जम रही है, जिससे इनकी गहराई कम हो रही है और रेत भर रही है। ऐसे में ज्यादा समय तक इनसे पानी नहीं मिलेगा और धीरे-धीरे ये जमींदोज हो जाएंगी.

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