तीर-कमान बनाने के लिए मशहूर बांसवाड़ा के तीरगर समाज की कहानी, क्यों विलुप्त हो रही यह आदिवासी कला

राजस्थान के बांसवाड़ा जिला में तीरगर समाज की तीर-कमान की परंपरा विलुप्त होने की कगार पर है. यह कला आदिवासी कला का बेहतरीन नमूना है, जिसे देखकर आप भी हैरान हो जाएगें.

विज्ञापन
Read Time: 3 mins
तीर-कमान का बेहतरीन नमूना दिखाते लोग.

Rajasthan News: प्राचीनकाल से ही आदिवासी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए तीर-कमान जैसे पारंपरिक हथियारों का उपयोग करते रहे हैं. राजस्थान का आदिवासी बहुल्य जिला बांसवाड़ा आदिवासियों के तीर-कमान को लेकर मशहूर रहा है. यहां के आदिवासी समज के लोग अपनी सुरक्षा और शिकार के लिए तीर-कमान को साथ मे रखा करते हैं. विकास की दौर में शामिल होने के बाद भी बांसवाड़ा के आदिवासी अपनी परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं. लेकिन समय के साथ इस परंपरा के अस्तित्व पर संकट आ गया है.

इस जिले के दर्जनों युवाओं ने तीरंदाजी प्रतियोगिता में प्रदेश ही नहीं बल्कि देश-विदेश में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है. ऐसे में तीर कमान बनाने वालों को किसी प्रकार का संरक्षण नहीं मिल रहा है, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति खराब हो गई है.

कुछ सालों में यह परंपरा भी समाप्त होने की कगार पर आ जाएगी. NDTV ने कुछ ऐसे लोगों से बात की जो आज भी तीर कमान बना कर इसका वजूद कायम रखे हुए हैं.

राजस्थान के बांसवाड़ा जिला में मुख्यालय से 17 किलोमीटर की दूरी पर बांसवाड़ा-उदयपुर मुख्य मार्ग पर स्थित चंदुजी का गढा गांव में बनने वाले तीर कमान की राष्ट्रीय स्तर पर पहचान है. करीब दो हजार की आबादी वाले इस कस्बे में तीरगर समाज की आबादी अधिक है. यहां तीरगर समाज के लगभग दो सौ घर हैं. इनमें से करीब 50 घरों में आज भी अपने पुश्तैनी तीर कमान बनाने के कारोबार से जुड़े हैं.

Advertisement

कैसे बनाए जाते है यह पारंपरिक तीर-कमान 

गांव के शंकरलाल तीरगर ने बताया कि तीर-कमान बनाने के लिये बांस की लकड़ी का प्रयोग किया जाता है. इस लकड़ी का उत्पादन वह अपने खेतों में करते है. कई अलग-अलग प्रकार के तीर कमान गांव के लोग बनाते हैं. इनमें सामान्य से लेकर फोल्डिंग सिस्टम वाले तीर कमान बनाए जाते हैं, जिनकी रेंज अलग-अलग होती है. तीर मजबूत नुकीले और तेज धार वाले होते हैं.

Advertisement

गांव के लोगों द्वारा तीर कमान कोमेलों में बेचा जाता है. बेणेश्वर में लगने वाले मेले और उसके अलावा बांसवाड़ा-डूंगरपुर, उदयपुर, चित्तौड़गढ़, राजसमंद आदि जिलों में लगने वाले मेलों में भी तीर कमान बेचने के लिए यहां से लोग जाते हैं. इसके अलावा कभी-कभी सरकार की तरफ से अन्य जिलों में लगने वाली प्रर्दशनियों और मेलों में भी गांव के लोगों को बुलाया जाता है.

Advertisement

सरकारी संरक्षण न मिलने से विलुप्त होती कला

तीर कमान बनाने की इस हस्तकला को सरकार के द्वारा संरक्षण न मिलने से धीरे धीरे लोग तीर-कमान बनाना बंद करने लगे है. सरकारी सहायता नहीं मिलने से इसकी लकड़ी की खेती करना और फिर बनाने में खर्च अधिक होता है. तीर कमान इस गांव की परंपरा के साथ आय का स्त्रोत भी है. लेकिन राष्ट्रीय स्तर पहचान न मिलने से उनके लागत मूल्य के अनुरूप दाम नहीं मिल पाते  है. ये तीर-कमान आम तौर 5 सौ रुपए से लेकर तीन हजार रुपए तक बिकते हैं.

(यह स्टोरी NDTV के इंटर्न आयुष साहू ने एडिट की है)

Topics mentioned in this article