कांग्रेस के बाद बीजेपी भी क्यों नहीं कराना चाहती है राजस्थान में छात्र संघ चुनाव? निर्दलीय बिगाड़ रहे सियासी गणित

कांग्रेस हो या बीजेपी जो भी राजस्थान की सत्ता पर बैठ रहे हैं. वह छात्र संघ का चुनाव कराना नहीं चाहती है. क्यों कि यह अब राजनीतिक पार्टियों के लिए जोखिम हो गया है.

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Rajasthan Student Union Elections: पिछले एक दशक में राजस्थान की छात्र राजनीति में एक बड़ा बदलाव आया है. कभी यह चुनाव NSUI और ABVP जैसे संगठनों के इर्द-गिर्द घूमता था. अब यह लगातार निर्दलीयों के उभार का गढ़ बन गया है. हालात ऐसे हैं कि सत्ता में कोई भी दल हो वह छात्र संघ चुनाव कराने से बचने लगा है. भाजपा सरकार ने कोर्ट में अपने जवाब में साफ कर दिया कि फिलहाल चुनाव करवाने का इरादा नहीं है. इस फैसले से छात्रों में नाराजगी है और लोकतंत्र के लिहाज से यह चिंता का विषय है. जो विश्वविद्यालय कभी नए नेतृत्व और विचारों की प्रयोगशाला माने जाते थे लेकिन अब वे सियासी गणित की भेंट चढ़ रहे हैं.

कांग्रेस-बीजेपी देख रही है सियासी गणित

सच यह है कि कांग्रेस हो या भाजपा दोनों के लिए छात्र संघ चुनाव अब सियासी जोखिम बन गए हैं. हार का डर और निर्दलीयों की लगातार लहर ने सरकारों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि चुनाव टालना सबसे सुरक्षित रास्ता है.विश्वविद्यालय स्तर के ये चुनाव सिर्फ छात्र प्रतिनिधित्व का मंच नहीं हैं बल्कि युवा राजनीति की नर्सरी भी हैं. यहां से निकले कई चेहरे आगे चलकर विधानसभा और संसद तक पहुंचे हैं. ऐसे में इनके नतीजे सियासी संदेश भी देते हैं. यही कारण है कि कांग्रेस के बाद अब भाजपा भी इन चुनावों से बचने में अपना सियासी गणित देख रही है.

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2018 में निर्दलीय उम्मीदवार का कब्जा

पिछले कुछ वर्षों में निर्दलीय उम्मीदवारों का दबदबा तेजी से बढ़ा है. NSUI और ABVP जैसे छात्र संगठनों की पारंपरिक पकड़ अब कमजोर पड़ चुकी है. 2018 का राजस्थान विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव इसका बड़ा उदाहरण है. विनोद जाखड़ ने NSUI से बगावत कर निर्दलीय के रूप में अध्यक्ष पद जीता. आदित्य प्रताप सिंह ने ABVP से बगावत कर महासचिव पद अपने नाम किया. उपाध्यक्ष और संयुक्त सचिव के पद भी निर्दलीयों ने जीते. यह पहला मौका था जब चारों प्रमुख पद निर्दलीयों के पास गए और बड़े संगठनों की जमीन खिसक गई.

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2019 में भी बगावती निर्दलीय उम्मीदवार की जीत

2019 में भी यही कहानी दोहराई गई. पूजा वर्मा ने NSUI से अलग होकर निर्दलीय के रूप में अध्यक्ष पद जीता. हालांकि उपाध्यक्ष और महासचिव NSUI के पास रहे और संयुक्त सचिव का पद ABVP ने जीता. इससे यह साफ हुआ कि अध्यक्ष जैसे शीर्ष पद पर पार्टियों का नियंत्रण टूट चुका है.

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2022 में भी निर्दलीय का कब्जा

कोविड के कारण 2020 और 2021 में चुनाव नहीं हुए. 2022 में चुनाव हुए तो मुकाबला अब निर्दलीयों के बीच था. निर्मल चौधरी ने निहारिका जोरवाल को हराया. दोनों ही निर्दलीय थे. NSUI और ABVP के आधिकारिक उम्मीदवार तीसरे और चौथे स्थान पर रहे. उपाध्यक्ष का पद भी अमीषा मीणा ने जीता जो निर्दलीय थीं. बड़े संगठन सिर्फ किनारे खड़े नतीजे देख रहे थे.

छात्र संघ चुनाव अब हो गया बीजेपी-कांग्रेस के लिए जोखिम

संगठनात्मक कमजोरी के कारण दोनों दलों की छात्र इकाइयों का ढांचा कमजोर हो चुका है. लगातार हार ने कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा दिया है. विधानसभा लोकसभा निकाय या पंचायत चुनाव से पहले छात्र संघ में हार सियासी ताकत में गिरावट का संकेत देती है. यही वजह है कि अशोक गहलोत ने अपने कार्यकाल के आखिरी साल में चुनाव नहीं करवाए और इस बार भाजपा भी यही रास्ता अपनाती दिख रही है. पहले पार्टियों की छात्र इकाइयां वैचारिक और चुनावी वर्चस्व रखती थीं. अब निर्दलीयों का समर्थन जातीय स्थानीय और व्यक्तिगत नेटवर्क पर आधारित है जिसे तोड़ना कठिन है. यही वजह है कि दोनों ही दलों के लिए छात्र संघ चुनाव जोखिम भरा खेल बन गए हैं. हार के डर और निर्दलीयों की लहर ने सरकारों को नई शिक्षा नीति के नाम पर चुनाव टालने के लिए प्रेरित किया है.

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