सरकारी स्कूलों से ही मज़बूत होगी शिक्षा की नींव

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Dr. Shipra Mathur

Rajasthan: ताज़ा आंकड़े देखे, राजस्थान के सरकारी स्कूलों में शिक्षकों के 28% पद खाली हैं. सबसे बुरा हाल है, सीमा से सटे हुए ज़िलों और आदिवासी इलाकों का. यहाँ, शिक्षक जाना नहीं चाहते, रहना नहीं चाहते, और पढ़ाना तो फिर कैसे ही होगा वहाँ. जैसलमेर में 9वीं-12वीं के बच्चों को पढ़ाने वाले शिक्षकों के 52% और बाड़मेर में 48% पदों पर शिक्षक नहीं हैं. डूंगरपुर, बांसवाड़ा, उदयपुर, सबका हाल बुरा है. इसका असर कितना भयावह होने वाला है, इसका अंदाज़ अगर आज हमें और सरकारों को नहीं है, तो ये किसी के फायदे की बात नहीं.

हमारे सामने बिगड़ते समाज का ख़मियाज़ा भुगतने को हमें भी तैयार रहना होगा. जब कमज़ोर ‘नींव' के किशोर-किशोरियाँ और युवा, भटकते हुए दिखेंगे. बिना रोज़गार, बिना काम, बिना लक्ष्य. ‘राइजिंग राजस्थान' में पूंजी वालों का दबदबा तो बढ़ेगा, मगर रोज़ी-रोटी के इंतज़ाम वाले, ग़रीबी के चक्रव्यूह में फँसे दिखेंगे. इन सब पर अपराध की दुनिया की नज़र रहेगी, जो इन्हें नशे में, ग़ैर क़ानूनी काम में अपने साथ मिला लेंगे. शिक्षा से दूर हुई पीढ़ी, न काम करने लायक़ स्किल हासिल कर पा रही है, न वैचारिक तौर पर उन्हें दृढ़ करने वाले उनका मार्गदर्शन कर रहे हैं. यही भीड़ की बुनावट है, जो नेताओं को तो भाती है, मगर समाज के लिए दुखदायी होती है.

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वो दौर ज़्यादा पुराना नहीं, जब सरकारी स्कूलों की हैसियत वही थी, जो आज अच्छी पढ़ाई और माहौल देने वाले निजी स्कूलों की है. धीरे-धीरे हम उस ओर पहुँच गए, जहाँ सरकारी कॉलेजों में तो मुफ्त या किफायती पढ़ाई के लिए दाखिले की होड़ जारी रही, लेकिन सरकारी स्कूल ख़स्ताहाल हो गए. ये बात बरसों से उठ रही है, जब भी कोई आँकड़े जारी होते हैं, कोई सर्वे रिपोर्ट आती है, उस दिन ज़ोर-शोर से ख़बरें चलती हैं. और फिर एक दो दिन में ही, सारा शोर-शराबा, शांत हो जाता है. हम इस कामचलाऊ व्यवस्था के इतने आदी हो गए हैं, कि अब ख़राब आंकड़ों से, बदहाली से, भेदभाव और विषमता से दिल नहीं दुखता. हमें, सरकारी स्कूल अपने नहीं लगते, उसमें पढ़ने जाने वाले और पढ़ाई से वंचित बच्चे तो जरा भी अपने नहीं लगते.

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वंचित परिवार के बच्चों को स्कूलों से जोड़ने की कोशिश

मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार मिलने से जरा सा पहले, साल 2010 में जब हमने गरीब परिवारों के बच्चों की पढ़ाई का सवाल उठाया था, तब जिस हकीकत से सामना हुआ, उसने बहुत दिल दुखाया. "आओ पढ़ाएं, सबको बढ़ाएं" - इस नाम से एक राष्ट्रव्यापी अभियान शुरू किया था. मंशा शिक्षा के अधिकार से वंचित वर्ग के बच्चों को स्कूलों से जोड़ने की थी. उस भेद को पाटने की भी, जो निजी और सरकारी स्कूलों के बीच का था. तब, भावुकता ज़्यादा थी, और व्यावहारिकता का तराजू थोड़ा हल्का. पर टिकाव सही जगह था. हज़ारों बच्चों को छाँट-छाँटकर स्कूल की देहरी तक पहुँचाया. पूरी टीम साथ लगी. और असर ये हुआ कि सुप्रीम कोर्ट में निजी स्कूलों की अर्ज़ी को अदालत ने ख़ारिज कर, वंचित बच्चों के अधिकारों पर मोहर लगाई.

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वो दौर ज़्यादा पुराना नहीं, जब सरकारी स्कूलों की हैसियत वही थी, जो आज अच्छी पढ़ाई और माहौल देने वाले निजी स्कूलों की है. धीरे-धीरे हम उस ओर पहुँच गए, जहाँ सरकारी कॉलेजों में तो मुफ्त या किफायती पढ़ाई के लिए दाखिले की होड़ जारी रही, लेकिन सरकारी स्कूल ख़स्ताहाल हो गए.

इसके बाद के चरण का ‘नींव' अभियान, एक आंदोलन था, सरकारी स्कूलों की बेहतरी के लिए. बहुत कारगर, असरदार अभियान जिसमें 200 संगठन और हज़ारों अनाम नागरिक साथ जुड़े थे. सरकारी स्कूलों को अपना समझने, शिक्षकों को उनके दायित्व बोध से जोड़ने और नेताओं को नीतियों में सुधार करने को बाध्य करने की अलख थी. इस पूरे अभियान में, दिल्ली में ज़्यादा ख्याति पाये कुछ सामाजिक संगठन अपनी रोटियाँ सेंकते रहे. बच्चों के नाम पर राजनीति से बाज़ नहीं आए और, अभियान के नाम पर पैसा उगाही से पीछे नहीं रहे.

इनकी पारदर्शिता और फंडिंग का पूरा टूलकिट इसी दौरान समझा गया. पर सारी बेईमानियों पर सभ्य समाज भारी पड़ता है. उसने नागरिक धर्म निभाया और स्कूलों के हालात में क्रांतिकारी बदलाव हुए. सरकारी स्कूलों में बच्चों का ज़्यादा नामांकन शुरू हुआ, उन पर ध्यान देना शुरू हुआ, समाज की निगरानी भी बढ़ी और भामाशाहों ने दिल खोलकर, सरकारी स्कूलों के संसाधनों के इंतज़ाम में सहयोग किया. कुल मिलाकर, सरकारी स्कूलों की साख बढ़ाने का काम हुआ.


युवा पीढ़ी से बनी भारत की पहचान

भारत की दुनिया में साख सिर्फ़ उस युवा पीढ़ी से है, जो विशेषज्ञता वाले काम, कारोबार और कला सबमें आगे रही है. यहाँ नए उद्यम लगेंगे, स्टार्ट अप शुरू होंगे, कारखाने लगेंगे तो उनमें काम करने वाले ‘स्किल्ड' युवा भी तो चाहिए. पर्यटन की बड़ी पहचान वाले प्रदेश का ये सपना भी होगा कि ग्रामीण इलाक़ों में बसी आबादी तक विकास का उजाला पहुंचेगा ताकि, उनकी आर्थिक उन्नति के साथ उनके परिवार की शैक्षिक और स्वास्थ्य की स्थिति भी अच्छी हो. यहाँ की धरोहर भी बचे और अपनी मिट्टी से जुड़ी नई पीढ़ी जल्दी अपने पैरों पर खड़ी हो.

बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ में हर साल अव्वल आने वाले राजस्थान में देश ये भी झाँककर देखेगा, कि दूर दराज रह रही उसकी बेटियां, स्कूल जा पा रही हैं कि नहीं….और उन्हें पढ़ाने के लिए शिक्षिकाएं मौजूद हैं कि नहीं? उनके बाल विवाह तो नहीं हो रहे और उनके सपने तो नहीं रौंदे जा रहे? और जानना ये भी ज़रूरी है कि, मूल शिक्षा और गुणवत्ता शिक्षा दोनों से वंचित इलाके के बच्चे और युवा, कहीं अपराधियों के चंगुल में या फिर गंभीर बीमारियां के दुष्चक्र में तो नहीं फँस रहे?

जिन बच्चों को न विज्ञान का शिक्षक नसीब है, न प्रयोगशालाएँ, न पुस्तकालय और न आगे बढ़ने के अवसर, ऐसी पीढ़ी न सिर्फ़ अपने परिवारों के लिए बल्कि पूरे समाज के लिए दुःख की वजह बनेगी. और उनके इस भविष्य के लिए हम सब ज़िम्मेदार माने जाएँगे, जो न उनके लिए पढ़ाई और शिक्षकों का इंतज़ाम कर पा रहे हैं, न उनके हक़ की बात सरकारों तक पहुँचा पा रहे हैं. आदिवासी और सीमा के इलाक़े, न सिर्फ़ हमारी सुरक्षा करते हैं, बल्कि हमारी विरासत को, हमारी परंपरा को भी सदियों से बचाकर रखने का काम कर रहे हैं, इसलिए यहाँ शिक्षा के सवाल को हल करना सबकी प्राथमिकता में रहे, ये ज़रूरी है.

अब कुछ सवाल ‘भारत' बनाम ‘इंडिया' नहीं रहे. हमने, ‘भारत' के नामकरण को नए अर्थ में स्वीकारा है, पूरे तर्क वितर्क के साथ. भारत का अर्थ पिछड़ापन, और इंडिया का अर्थ अभिजात्य आबादी बन गया था, जिस भेद को अब तक ख़त्म हो जाना चाहिए. लेकिन ये बात सच है कि हमने, भारत की बड़ी पहचान वाले संस्थाओं और प्रणालियों को लगातार कमज़ोर ही किया है. ‘नींव' मज़बूत बने, इसके लिए ज़रूरी है कि हम सबका मन आंदोलित रहे.

परिचयः डॉ. क्षिप्रा माथुर जयपुर स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं जो मीडिया और अध्यापन में तीन दशकों से सक्रिय हैं. अपने लेखन और वक्तव्यों में उन्होंने विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक विषयों को उठाया है, जिनमें समाज के उपेक्षित तबकों और उनके मुद्दों की विशेष रूप से चर्चा की गई है. भारत के चुनाव आयोग ने उन्हें नेशनल मीडिया अवॉर्ड से सम्मानित किया है. 

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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