विज्ञापन

जनसेवा में एक जाजम पर बैठने वालों की ज़रूरत

Dr. Shipra Mathur
  • विचार,
  • Updated:
    अक्टूबर 15, 2024 12:20 pm IST
    • Published On अक्टूबर 15, 2024 12:19 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 15, 2024 12:20 pm IST
Latest and Breaking News on NDTV

कुछ मुद्दे समाज में आसानी से सुलझाए जा सकते हैं. इसकी पहली शर्त है कि ‘आम जन' की सुनवाई तो हो. नेता, मंत्रियों और सचिवों के लिए जन-सुनवाई सबसे ज़रूरी काम होना चाहिए. राजस्थान के नए विधायक आवास परिसर में जाकर देखिए, एक दो युवा नेताओं के सिवाय कहीं लोगों की भीड़ नहीं मिलेगी. दो ही कारण हो सकते हैं इसके. या तो लोग, विधायक क्षेत्रों में ही अपने नेताओं से मिलने जाते हैं, राजधानी में नहीं मिलते उनसे, या अब ज़्यादा अपेक्षाएं ही नहीं पालते. 

ज़्यादातर विधायक आवासों की तस्वीर कुछ ऐसी रही है. लोग अर्ज़ियाँ लिए आते, सिफ़ारिशें लाते, और अपनी बारी और नेता के इंतज़ार में बैठे दिखते थे. नेता के सचिव और स्टाफ के ‘दरबार-ए-ख़ास' में किसको कितनी अहमियत मिलनी है, कितनी सूचना देनी है, मिलवाना है, ये तय होता था. अब जरा कुछ बदला है, तो फोन और तकनीक की बदौलत. लेकिन तकनीक इस सब को और भी आसान कर सकती है. 

जनता को राहत देना, पूरी व्यवस्था का एकमात्र लक्ष्य होता है. लेकिन आज भी अगर लोगों के बीच, नेताओं से पाँच साल में एक बार नज़र आने और फिर नदारद रहने वाली शिकायत बरक़रार है, तो फिर ‘राइट टू रिकॉल' नहीं तो कोई तो ऐसी व्यवस्था हो, जिससे काम करने और छवि ठीक बनाये रखने का दबाव हो. कौन सा ऐसा पेशा है, जहाँ आपके प्रदर्शन को आँका नहीं जाता? तो नेताओं की भी छमाही या सालाना रिपोर्ट कार्ड की व्यवस्था नहीं बनाई जा सकती? सबके सामने पेश नहीं हो सकती? सामाजिक संगठनों की पकड़ भी व्यवस्था पर ख़ास मज़बूत नहीं. 

जैसे-जैसे व्यवस्था कारगर और पारदर्शी होगी, व्यक्ति की पूजा और पूछ कम होगी. लेकिन नेतृत्व, सिर्फ़ व्यक्ति पूजा और पूछ तक सीमित नहीं. ये ‘जन-सेवा' का वो ज़रिया है, जो समाज की विषमताओं को दूर करने के लिए साधारण होकर ही ज़्यादा प्रासंगिक और सम्मानित रह सकता है. 

पिछले दिनों एक दिव्यांग युवा के लिए इसी मुद्दे पर काम करने वाले एक संगठन से वास्ता पड़ा. संघर्षशील लोगों को हल्का सा सहारा भी मिल जाये तो वो कमाल कर जाते हैं. मगर महीनों नहीं, सालों से धक्के खाते खाते न उसकी सुनवाई हुई, न व्यवस्था से जुड़ी उसकी समस्या के हल की कोई उम्मीद दिखी. 

जैसे-जैसे व्यवस्था कारगर और पारदर्शी होगी, व्यक्ति की पूजा और पूछ कम होगी. लेकिन नेतृत्व, सिर्फ़ व्यक्ति पूजा और पूछ तक सीमित नहीं. ये ‘जन-सेवा' का वो ज़रिया है, जो समाज की विषमताओं को दूर करने के लिए साधारण होकर ही ज़्यादा प्रासंगिक और सम्मानित रह सकता है. 

Latest and Breaking News on NDTV

लोकप्रिय नेता और सलीका

बड़े राजनीतिक घराने से संबद्ध एक लोकप्रिय युवा नेता ने सालों पहले आमने सामने चर्चा में ख़ुद ही ये किस्सा सुनाया. दिल्ली के उनके सांसद आवास में उनके संसदीय क्षेत्र के लोग दूर-दूर से फरियाद लेकर आया करते थे. उनमें कई बुजुर्ग होते, कई लाचार, कई परेशान. जिनमें से किन्हीं एक से इन सांसद महोदय ने आदतन बेरुखी से बात की. तो उन्हें पलटकर करारा जवाब मिला, ‘हमें भी मालूम है आप हमारे लिए ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते लेकिन, कम से कम बिना भाव दिखाए सुन तो सकते हो बात.' सांसद महोदय ख़ुद ये बात बताते हुए बोले - ‘उस दिन मुझे बहुत ही शर्म आई. और अब मैं कुछ कर सकूँ या नहीं, लेकिन हर एक के चाय-पानी का बंदोबस्त ज़रूर करता हूँ.' 

बात तो सही है, ध्यान से बात सुनना और तमीज़ से पेश आना, ये तो किसी को  सिखाने की ज़रूरत नहीं. और ऐसा मन सबका बदले तो देश की बहुत सी तकलीफ़ों का समाधान यहाँ से निकले. महाराष्ट्र में विधायकों को ‘आमदार' और सांसद को ‘खासदार' कहा जाता है. अभी तक ‘ख़ास' होने के भाव से नेता मुक्त नहीं हुए हैं. राजस्थान के कई नेताओं और सचिवों के मिज़ाज में भी ये ‘खासदारी' नज़र आती है. राजस्थान रोडवेज की बस में आगे की सीटों के पीछे लिखा देखा ‘विधायक/सांसद सीट'. और जाने कितने विशेषाधिकार हैं जो जन-प्रतिनिधियों के ‘ख़ास' बने रहने में मददगार हैं. 

एक बार नेताओं के वीआईपी मूवमेंट पर एक आईपीएस अधिकारी से चर्चा हुई और उच्चतम न्यायालय के आदेश का हवाला भी उन्हें दिया. उनका जवाब था, न्यायालय कुछ भी कहे, जनता की सहूलियत नहीं, नेता जी सही सलामत रहें यही मेरी नौकरी है. औपनिवेशिक दौर की इंपीरियल पुलिस की मानसिकता को आज तक हम मिटा नहीं सके हैं. कलक्टर और रेवेन्यू विलेज के नामकरण तक बदले नहीं गए. 

Latest and Breaking News on NDTV

सामाजिक, राजनीतिक या कॉर्पोरेट, सभी तरह के संगठनों के आयोजनों में भी यही सब नज़र आता है. ख़ास लोगों के लिए विशेष इंतज़ाम, वीआईपी और वीवीआईपी की पूरी पंक्ति अलग और आम जनता से दूर. कुछ साल पहले, देश के दो सांसदों ने नेताओं के लिए ‘काम नहीं तो वेतन नहीं' की बात भी उठाई थी. जिसे किसी भी नए-पुराने नेता ने अहमियत नहीं दी, इसीलिए बात ख़त्म हो गई. 

सादगी, कर्मठता और जवाबदेही के बूते जनप्रियता के पैमाने पर आज कौन सा नेता खरा उतरेगा पता नहीं, क्योंकि सवाल नागरिक ज़िम्मेदारी का भी कम नहीं है. देश में करीब 600 नागरिकों की सुरक्षा पर सिर्फ़ एक, और एक वीआईपी सुरक्षा में तीन-तीन पुलिसकर्मी तैनात हैं, और भी कई आँकड़े हैं बताने को. ये सब असंतुलन ‘विशिष्टता' के भाव को बढ़ाने वाले हैं. ऐसे मामलों में अदालतों के ही दखल से कुछ सुलझ पाएगा. 

जाजम वाला देश

संसाधनों का असंतुलन भारत भर का यथार्थ है. जातिवाद तो देश भर के लिए कलंक है ही. राजस्थान ख़ास तौर पर इसके लिए जाना जाता है. मगर यहाँ समरस समाज की भी अनगिनत मिसाल हैं, जिन्हें बताया जाना चाहिए. यहीं क्षत्रिय संघ की स्थापना करने वाले तनसिंह जैसे नेता हुए जो सर्वसमाज की बात किया करते, सबको जोड़े रखने और सबकी चिंता को ही क्षत्रिय धर्म मानते रहे. अपने इतिहास पर गर्व करने के साथ लोकतंत्र की आधुनिक और तार्किक परंपराएं भी तो 78 साल से ब्रिटिश शासन से मुक्त हुए भारत के हिस्से आनी ही चाहिए. 

जातिवाद तो देश भर के लिए कलंक है ही. राजस्थान ख़ास तौर पर इसके लिए जाना जाता है. मगर यहाँ समरस समाज की भी अनगिनत मिसाल हैं, जिन्हें बताया जाना चाहिए. यहीं क्षत्रिय संघ की स्थापना करने वाले तनसिंह जैसे नेता हुए जो सर्वसमाज की बात किया करते, सबको जोड़े रखने और सबकी चिंता को ही क्षत्रिय धर्म मानते रहे.

चाणक्य नीति के हिसाब से राजा यानी आधुनिक संदर्भ में चुना हुआ नेता, के दो गुण हैं - ‘न्याय' की पालना और ‘धर्म' की स्थापना. नेल्सन मंडेला ने एक बार नेतृत्व क्षमता पर पूछे जाने पर जवाब दिया था कि ये खूबी उनके पिता से उनमें आई, जो अपने कबीले के लीडर थे. और लोगों के बीच में बैठते तो घेरा बनाकर बैठते. उसी घेरे में एक जगह उनकी होती, और जब सब अपनी बात कह लेते, वो आख़िर में बोलते थे. आज सुनने का धैर्य खो चुके नेताओं में बोलने की इतनी आतुरता है कि वो सिर्फ़ अपनी कहीं बात को ही अहमियत देते हैं. ऊँची-तेज़ आवाज़, मंचीय सिंहासन और जनता के घेरे से घेराव का भय, ये उनकी अपनी पहचान बची है. 

‘वीआईपी कल्चर' जिसे हम कह रहे हैं, वो तो संस्कृति है ही नहीं हमारी. लोकतंत्र में लोक से परे कोई नहीं. जो भी निस्वार्थ भाव से काम करने की सोच से आगे बढ़ रहा है, असली सत्ता उसी की है, लोगों का प्रिय भी वही बना रहेगा. जन-साधारण का विकास के केंद्र में बना रहना, सिर्फ सरकारी योजनाओं का लक्ष्य नहीं है, ये जन-प्रतिनिधियों की सोच की भी धुरी भी बने. अब तो देश में न्याय संहिता भी नई है और सोच भी नया है, व्यवस्था को भी उसके मुताबिक जल्द तैयार होना होगा. 

Latest and Breaking News on NDTV

आर्थिक और सामाजिक विषमता दूर होगी तो राजनीति की तस्वीर भी बदलेगी. चुने हुए नेतागणों के विशेषाधिकारों पर कोर्ट में कई बार बहस हुई है. नेता के तौर पर उसके काम काज में अड़चन न हो, मंतव्य इतना ही था उसका. समाज उनसे आम आदमी की तरह ही पेश आए, ये कहा जा चुका है. लेकिन ये मान लेना कि हम विशेष नहीं, आम जन के प्रतिनिधि भर हैं, उनकी आवाज़ हैं, उनके लिए हैं, ये भाव ज़रूरी है. सत्ता के मद से बाहर आना ज़रूरी है. 

हर एक नागरिक, अपनी अपनी भूमिका में, सब अपनी अपनी खूबी और खासियत के साथ समन्वय और सहकार में रहें, ये देश और दुनिया की खुशहाली का असल पैमाना है. एक जाजम पर साथ बैठने और निस्वार्थ काम करने वाले ही प्रतिनिधित्व के असल हकदार रहें, ये जनता और पूरे देश-समाज को तय करना है.

परिचयः डॉ. क्षिप्रा माथुर जयपुर स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं जो मीडिया और अध्यापन में तीन दशकों से सक्रिय हैं. अपने लेखन और वक्तव्यों में उन्होंने विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक विषयों को उठाया है, जिनमें समाज के उपेक्षित तबकों और उनके मुद्दों की विशेष रूप से चर्चा की गई है. भारत के चुनाव आयोग ने उन्हें नेशनल मीडिया अवॉर्ड से सम्मानित किया है. 

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

ये भी पढ़ें:-

Rajasthan.NDTV.in पर राजस्थान की ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें. देश और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं. इसके अलावा, मनोरंजन की दुनिया हो, या क्रिकेट का खुमार, लाइफ़स्टाइल टिप्स हों, या अनोखी-अनूठी ऑफ़बीट ख़बरें, सब मिलेगा यहां-ढेरों फोटो स्टोरी और वीडियो के साथ.

फॉलो करे:
Previous Article
रतन टाटा: मुश्किलों में तप कर हुए तैयार
जनसेवा में एक जाजम पर बैठने वालों की ज़रूरत
Minors must not drive, drunk drivers must be punished, opines Vivek Rastogi
Next Article
...नहीं दूंगा कार की चाबी, क्योंकि मुझे प्यार है अपने बेटे से...
Close