Rajasthan Kota coaching: कक्षा-कक्षों में नोट्स लिखने के बजाय मोबाइल से व्हाइट/ग्रीन-बोर्ड की फोटो खींचते,पीछे बैठकर मोबाइल चलाते और बात-बात पर संबंधित शिक्षक से मेज-डेस्क थपथपाकर गाना गाने अथवा पार्टी देने की मांग करते विद्यार्थियों के समूह वर्तमान समय में कोटा-कोचिंग का कड़वा सत्य है. यह कहना शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कक्षा-कक्षों की इस अनुशासनहीनता तथा विद्यार्थियों को दी जा रही अवांछित स्वतंत्रता ने ही कोटा कोचिंग को अर्श से फर्श पर ला दिया है. यह अनुशासनहीनता एक दिन में नहीं पनपी है, कई वर्षों में पनपी है और शिक्षा के व्यवसायीकरण नहीं अपितु घोर-व्यवसायीकरण के कारण बदली है!
वर्षो पूर्व 90-के दशक में प्रारंभ हुए कोटा-कोचिंग की बेहतरीन शिक्षा-पद्धति से आकर्षित होकर वर्ष-2000 तक देश के कोने-कोने से विद्यार्थी कोटा पहुंचने लगे थे और सफल भी होने लगे थे. ऐसे में कोचिंग-क्षेत्र से मोटा-पैसा, अकूत-धन बनने लगा और शौहरत आसमान छूने लगी. दौलत और शोहरत के इस भव्य आकर्षण ने कोचिंग-संचालकों से लेकर कोचिंग-शिक्षकों की महत्वाकांक्षाओं को खूब हवा दी और महत्कांक्षाओं ने शुद्ध-शैक्षणिक कार्य को घोर-व्यावसायिकता में परिवर्तित करने का नया दौर प्रारंभ कर दिया.
घोर व्यावसायिकता का नया कल्चर
व्यावसायिकता के इस दौर में कोचिंग-संस्थानों में तीन बड़े डिपार्टमेंट्स ने जन्म लिया. पहला कॉल सेंटर, दूसरा एसोसिएट-मार्केटिंग और तीसरा किंतु सबसे महत्वपूर्ण रिजल्ट-मैनेजिंग डिपार्टमेंट! कॉल-सेंटर को स्टूडेंट-डाटा की आवश्यकता थी तो तथाकथित टैलेंट सर्च एग्जामिनेशन प्रारंभ हुए और फिर विद्यार्थियों एवं अभिभावकों से स्कॉलरशिप के आधार पर बातचीत के कई-कई दौर चलाए जाने लगे. उद्देश्य बस एक था, येन-केन प्रकारेण विद्यार्थी को प्रवेश दिलवाना. प्रवेश महत्वपूर्ण हो गया, विद्यार्थी का सुपात्र अथवा कुपात्र होना महत्वहीन.
प्रवेश की मारामारी में यहां तक हुआ कि उत्तर प्रदेश,बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ राज्यों में एफिलिएट-मार्केटिंग का दौर भी प्रारंभ हो गया. प्रवेश का जिम्मा फाइनेंशियल इंसेंटिव्स के साथ लोकल-एफिलिएट्स को सौंप दिया गया. शिक्षा में फाइनेंशियल-इंसेंटिव वितरण का यह घातक दौर ऐसा प्रारंभ हुआ कि रुकने का नाम नहीं लेता. यह स्वार्थ की पराकाष्ठा है!
धीरे-धीरे विद्यार्थियों का कोटा में शिक्षा के उद्देश्य से स्वतंत्र आगमन समाप्त होने लगा और एफिलिएट-मार्केटिंग के जरिए विद्यार्थी आने लगे, या सटीक शब्दों में कहें तो लाए जाने लगे. चूंकि ये विद्यार्थी कई-कई लोगों की निहित स्वार्थ-पूर्ति हेतु लाए जा रहे थे ऐसे में इनकी शैक्षिक-पात्रता नेपथ्य में थी. ऐसे विद्यार्थियों की संख्या कोटा में बहुत तेजी से बड़ी क्योंकि स्वार्थपूर्ति सर्वोपरि थी, मोटा-पैसा बन रहा था.
रैंकर्स और बैंकर्स
सुपात्र नहीं होने के कारण ये विद्यार्थी कोटा के शैक्षणिक-माहौल और सफलता हेतु आवश्यक कठोर परिश्रम को आत्मसात नहीं कर पाए. इन विद्यार्थियों की उपस्थिति ने कोटा-कोचिंग की कार्य प्रणाली को दो हिस्सों में बंटने पर मजबूर कर दिया. रैंकर्स और बैंकर्स की कार्यप्रणाली! रैंकर्स को तो पूर्वसिद्ध पद्धति के आधार पर ही पढ़ाने का क्रम अनवरत चलता रहा किंतु बैंकर्स के लिए एक नई पद्धति का प्रादुर्भाव हुआ.
इस पद्धति में विद्यार्थियों को दी जाने वाली सुविधाएं प्राथमिकता पर रहीं, कुपात्र विद्यार्थी इन सुविधाओं का उपभोग करने लगे. जिन्हें योगी होना चाहिए था वे विद्यार्थी भोगी हो गए. हॉस्टल्स का माहौल बदला. हॉस्टल रूम में रेफ्रिजरेटर और एयर कंडीशनर, वॉशरूम में गीज़र महत्वपूर्ण हो गए, पढ़ाई की टेबल-कुर्सी ने अपना महत्व ही खो दिया.
मनोरंजन के नाम पर घूमने-फिरने की खूब स्वतंत्रता दी जाने लगी, लेट-नाइट ऑनलाइन डाउट-सॉल्विंग के नाम पर इन विद्यार्थियों ने अभिभावकों को मजबूर कर महंगे मोबाइल खरीद लिए. कोटा-कोचिंग एवं हॉस्टल्स का उद्देश्य पढ़ाने से ज्यादा इन्हें हर हाल में खुश रखना हो गया.
संघर्ष-क्षमता के अभाव एवं सुविधाभोगी प्रवृत्ति ने कक्षा-कक्षों में व्हाइट/ग्रीन बोर्ड से नोट्स लिखना भी गवारा नहीं किया. व्हाइट/ग्रीन-बोर्ड की फोटो लेने के नाम पर इन विद्यार्थियों ने कक्षा कक्षों में मोबाइल ले जाने की अपनी जिद को भी मनवा लिया और स्वार्थवश कोटा-कोचिंग का प्रत्येक धड़ा इनके आगे घुटने टेकने लगा. लोकतंत्र की भांति शिक्षा में भी संख्या बल हावी होने लगा और शैक्षणिक माहौल बिगड़ने लगा.
मौज मस्ती का ठिकाना
एक और बड़ी दुर्घटना इस दौर में घटी! कई छात्र एवं छात्राओं को कोटा की यह स्वतंत्रता अपने उन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए रास आने लगी जिनका उनके स्वयं के शहर में पूर्ण होना संभव नहीं था. कुल मिलाकर कोटा शहर में धीरे-धीरे उन विद्यार्थियों की संख्या बढ़ती चली गई जिनका उद्देश्य शिक्षा था ही नहीं और ये कोटा आकर मौज-मारने लगे और शिक्षा के क्षेत्र में असफलता का नया दौर प्रारंभ हुआ.
असफलता को छुपाने के लिए इन तथाकथित विद्यार्थियों ने कई बार अनैतिकता,असत्य एवं अधर्म के रास्ते को चुनकर अभिभावकों एवं शिक्षकों को खूब ठगा.अफसोस है कि अनैतिकता के रास्ते पर कोटा के कई असामाजिक तत्वों ने इन्हें उकसाया भी. चोर-चोर मौसेरे भाई की कहावत सिद्ध होने लगी और अनैतिकता एवं अपराध के रास्ते पर भूलवश चले इन विद्यार्थियों एवं असामाजिक तत्वों का एक बड़ा गठजोड़ निर्मित हो गया.
इस गठजोड़ ने कई मासूम विद्यार्थियों को भी अपना शिकार बनाया! इस गठजोड़ ने कोटा-कोचिंग के परीक्षा-परिणामों पर गहरा नकारात्मक असर डाला. असफलता एवं नकारात्मक-परिणामों का ठीकरा कोटा-कोचिंग के नाम पर फूटा और अभिभावकों को यह भ्रम हो गया कि कोटा-कोचिंग का वातावरण ठीक नहीं है जबकि वास्तविकता यह नहीं है. कोटा-कोचिंग पद्धति आज भी देश में सर्वश्रेष्ठ है.
कोचिंग संस्थानों की है बड़ी जिम्मेदारी
यदि कोटा कोचिंग को फिर से अपने पुराने वैभव एवं प्रतिष्ठा को कायम करना है तो शैक्षणिक-दृढ़ता अपनानी होगी. कक्षा-कक्षों में फिर से अनुशासन लाना होगा. उद्देश्य में शिक्षा को ही प्राथमिकता देनी होगी व्यवसाय को नहीं. एक अभियान के तहत अमर्यादित-विद्यार्थियों के प्रवेश पर रोक लगानी होगी. देश में सुपात्र विद्यार्थियों की कमी नहीं है ऐसे में सभी कोचिंग संस्थानों को एकजुट होकर सुपात्र विद्यार्थियों को ही प्रवेश देने का प्रण लेना होगा.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.
लेखक परिचयः देव शर्मा कोटा स्थित इलेक्ट्रिकल इंजीनियर और फ़िज़िक्स के शिक्षक हैं. उन्होंने 90 के दशक के आरंभ में कोचिंग का चलन शुरू करने में अग्रणी भूमिका निभाई. वह शिक्षा संबंधी विषयों पर नियमित रूप से लिखते हैं.
कोटा कोचिंग पर एनडीटीवी की विशेष रिपोर्ट पढ़िए-: