भारत में नगर सभ्यता की गवाही, पुरातत्व अवशेषों में भरपूर मिल जाती है. लेकिन भारत की ग्राम संस्कृति और वन्य जीवन की झलक, कलाकृतियों या दंतकथाओं में ही बची रही. गाँवों ने हमेशा से नगर को पोषित किया, मगर ख़ुद, अपने धूलि-धूसर या बीहड़ जीवन के बीच पलता रहा. यहाँ, कृषि-कला और कौशल पनपा, गुरुकुल पोषित हुए, नदियाँ और बीज बचे. भाषाएँ-बोलियाँ बचीं, पहनावा बचा, ख़ान-पान, सेहत और प्रकृति का ध्यान बचा. देसी बीज और देसी नस्लें बचीं. इसीलिए, सारी सुख-सुविधाएँ नगर के हिस्से होते हुए भी, 70 फ़ीसदी आबादी गांवों का दामन पकड़े रही.
लेकिन ब्रिटिश शासन से मुक्त होने के बाद सत्ता का वही तौर-तरीका जारी रहा, जो हमें खोखला करने के लिए ही बना था. उस वक्त समग्र विकास की बात तो हो रही थी, लेकिन ‘ग्राम-स्वराज' सिर्फ़ कागजों में आगे बढ़ रहा था. या कहें, पिछड़ रहा था. हम इस भ्रम में रहे कि 73-74वें संशोधन के बाद, पंचायती राज व्यवस्था देश में क्रांति ले आएगी. लेकिन आज जब गांवों में झाँकते हैं, तो वहाँ के पूरे तंत्र को ध्वस्त हुआ देखते हैं. पलायन, विषमता, भ्रष्ट राज-व्यवस्था और ठेका प्रथा में जकड़े ये गाँव अब तो छटपटाना भी भूल चुके हैं.
मटर के खेत में काम कर रही महिलाएँ
Photo Credit: ANI
अवैध क़ब्ज़े, जातिगत खींचतान, कमजोर शिक्षा व्यवस्था और चिकित्सा-स्वास्थ्य का चरमराया हुआ ढांचा, भारत के गाँवों की नियति बन गए हैं. खेती-बाड़ी में बड़े व्यापारियों का क़ब्ज़ा और मंडियों की मनमानी, बेरोकटोक जारी है. गाँवों-कस्बों में अपनी जड़ें जमा चुकी इन खामियों को हम दूर क्यों नहीं कर पाए? देश के अर्थशास्त्री बिमल जालान ने ‘भारत का भविष्य' नाम से लिखी अपनी किताब में औपनिवेशिक सोच से पले शासन तंत्र में ‘ख़ास-लोगों' और ‘एजेंटों' के बीच की सांठगांठ को उजागर किया है. करीब बीस साल पहले लिखी इस किताब में साल 1964 में बनी संथानम कमिटी का ज़िक्र है, जिसने भ्रष्टाचार की रोकथाम पर अपनी रिपोर्ट पेश की थी. लेकिन भारत की नौकरशाही के रसूख के आगे ऐसी तमाम समितियां धूल फाँकती रह गईं.
घाटे का सौदा
ये सच है कि हमारे पशुधन, वन और जल सबकी हिफ़ाज़त करने वाले गाँव, आज ख़ुद रुआँसे हैं. उद्यमिता और स्वाभिमान के प्रमाण रहे अनगिनत गाँव आज प्रशासनिक व्यवस्था के हत्थे चढ़ चुके हैं. जिसका दोष हम किस पर मढ़ें, और इसे कैसे पलटें ये हमें भी नहीं मालूम.
गाँव के पूरे अर्थ-तंत्र को पटवारी-सरपंच-सचिव और ऊपर के साहब, सबने मिलकर बंदी बना लिया है. इसीलिए देश का सबसे बड़ा रोज़गार देने वाला क्षेत्र खेती होते हुए भी, उसका भारत की जीडीपी में योगदान 18 फ़ीसदी से आगे नहीं बढ़ पाया है. गाँव तक पहुँची दूषित सोच के बहाव में वहाँ, नशा और अपराध बढ़ गए हैं. पारिवारिक संस्थाओं में भी दोष आया है. बड़ा खतरा तो वैचारिक-प्रदूषण का ही है, जिसके बारे में सोचने की फुर्सत समाज को ही निकालनी होगी.
जिस दर से सरकारी तनख्वाहें बढ़ी हैं, उसके मुक़ाबले खेती-पशुपालन में मुनाफा नहीं बढ़ पाया. लागत ज़्यादा होने से खेती-किसानी घाटे का सौदा हो गया. अब किसान के परिवार को सरकारी नौकरियां चाहिए या फिर बुजुर्गों की ज़मीनें बेचकर, बड़ी गाड़ियाँ और शहरी जीवन की चकाचौंध. इधर, सरकार के कंधे पर सवार होकर, उद्योगपतियों को अपने कारोबार के लिए गाँव की ज़मीनें चाहिए.
संघीय सरकारें, देश के गाँवों को विकास की नई धारा से जोड़ने के लिए आदर्श गाँव, रूरल टूरिज्म जैसी कोई भी सोच अपना ले, टिकाऊ, जैविक और प्राकृतिक खेती और पोषण के राष्ट्रीय मिशन बना ले, सोलर-पवन से अक्षय ऊर्जा के ख़्वाब बुन ले, लेकिन इसमें गाँव की आबादी की सामाजिक-आर्थिक समृद्धि के सूत्र कहाँ हैं? जहाँ-जहाँ कोई गाँव, सक्षम हुआ दिखा है, वो वहाँ के चंद प्रगतिशील लोगों की मेहनत की देन है. ऐसे गाँव कितने हैं गिनती में, जिन्हें हम नीतियों और व्यवस्था के सहयोग से कारगर बना पा रहे हैं?
श्रीगंगानगर के बूढ़ा जोहर गांव में ग्रामीणों के साथ गुड़ खा रहे राजस्थान के सीएम भजनलाल शर्मा (9 अप्रैल)
Photo Credit: ANI
अनियंत्रित और अवैध
एक नागरिक के कचोटते हुए मन ने मेरी लिखी किसी बात के जवाब में जो लिखा, उसका निचोड़ ये है कि, शहरीकरण की होड़ में गांवों को नगरीय निकायों में शामिल करने की प्रशासनिक ज़िद जारी है. जिसका कोई विरोध नहीं है. शहरों के मास्टर-प्लान को लागू करना किसी के बस का नहीं रहा, जिसमें गाँव का सुरक्षा घेरा भी शामिल है.
भू-माफियाओं की बेकाबू बसावट, भ्रष्ट नेताओं, विधायकों और अफसरों की जेबें भरती हैं और शहर से सटे ग्रामीण इलाकों में कॉलोनियां काटती हैं. शहर, गाँव तक पांव पसार लेता है और फिर अवैध बसावट का नियमन हो जाता है. इस तरह सिर्फ खेती की ज़मीनें ही नहीं, जंगल-पहाड़, ओरण-गोचर सब निगला जा रहा है. क़ब्ज़े करने वालों ने, पानी के रास्ते भी नहीं छोड़े, इसलिए बांध, नदियाँ, कुएँ सब सूख रहे हैं. अवैध खनन बेहिसाब जारी है.
सस्ती दरों पर निजी अस्पताल, गौशालाएं, सामाजिक संस्थाएं खोलने और निर्माण के काम, भले हमें विकास लगे, लेकिन ये कमीशनखोरी के खेल हैं. जिन पर लगाम लगाने वाले तो ख़ुद इसमें हिस्सेदार हैं. कोर्ट कई बार टिप्पणी कर चुका है कि - ये पहाड़ के पहाड़ कौन खा गया? पुलिस खुद इतनी गहरी खाई में है कि रिफॉर्म किए बग़ैर सुधर ही नहीं सकती. और अदालत ख़ुद सवालों के घेरे में हैं. राहत की उम्मीद फिर किससे करें?
असम के एक गांव में स्कूल जाती बच्चियां (File)
Photo Credit: ANI
नए इतिहास की ओर
ये सब जानकर भी निराशा में नहीं डूबा जा सकता. सरकार और उसकी विचारधारा से जुड़े संगठनों और प्रशासनिक घटकों में कई प्रक्रियाएं एक साथ चल रही हैं. एक तो देश के आर्थिक मॉडल पर सिरे से सोचा जा रहा है और दूसरा, नीतिगत तौर पर, सरकार, निजी क्षेत्र और सिविल सोसाइटी के तालमेल का खाका तैयार हो रहा है. इस मंथन में गाँव हैं या नहीं? मालूम नहीं, लेकिन जब बीती कई बातों की वैचारिक खुदाई हो ही रही है, तो नई गढ़ाई भी होती दिखनी चाहिए.
ये तो हम साफ़ देख पा रहे हैं कि जिन आक्रांताओं के इतिहास पर देश इतना उबल रहा है, उतना ही आज के अतिक्रमणकारियों पर भी उबलने लगे, तो हमारा अस्तित्व बाक़ी रहे. शहरों की चालाक सोच की बजाय गाँव के भोलेपन में ही, सम्यक सोच के बीज हैं. जो समाज इनकी बुआई में जुटेगा, वो ही गाँवों में बसे भारत का खनकता इतिहास लिखेगा. वहीं हमारी धरोहरें हैं, वहीं स्वावलंबन की संभावनाएं, वहीं अच्छी सेहत की फसलें और वहीं हमारे ख़ान-पान और हमारी संस्कृति की सुरक्षा.
परिचयः डॉ. क्षिप्रा माथुर जयपुर स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं जो मीडिया और अध्यापन में तीन दशकों से सक्रिय हैं. अपने लेखन और वक्तव्यों में उन्होंने विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक विषयों को उठाया है, जिनमें समाज के उपेक्षित तबकों और उनके मुद्दों की विशेष रूप से चर्चा की गई है. भारत के चुनाव आयोग ने उन्हें नेशनल मीडिया अवॉर्ड से सम्मानित किया है.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.
ये लेख भी पढ़ें-: