दिल्ली की एक पत्रकार का फोन था. राजस्थान के उस समय के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने महिलाओं को ‘घूंघट हटाने' को कहा है, आपकी राय? पहली प्रतिक्रिया मेरी यही थी, ये राजनीति का दायरा ही नहीं है. घूंघट अखरता है तो फिर हिजाब क्यों नहीं? ये बात तो उठेगी ही. नतीजा ये हुआ कि जो बहस महिलाओं की बेहतरी के लिए बनी योजनाओं, उन पर खर्च और असर पर आकर टिकनी चाहिए थी, वो एक दरार पैदा करके गुम हो गई. समाज के हिस्से की बातें, उसी को तय करने दें. नेता-अफसर सिर्फ महिलाओं की भागीदारी और बेहतरी की कारगर व्यवस्था बनाएं ताकि प्रथाएं आड़े आने लगें तो खुद ही छूट जाएं. समाज थोड़ा टूटेगा, बदलेगा और फिर बनेगा. इस घटना के बाद आई कोविड महामारी में चेहरा ढकना ही नई प्रथा बन गया, जहां जेंडर कभी आड़े नहीं आया. कई बार आपदाएं भी अपने तरीके से पुराने हिसाब बराबर करती हैं. हिजाब विवाद, 2023 के विधानसभा चुनावों में फिर सुनाई दिया और एक निर्वाचन क्षेत्र के नेता-मतदाताओं की खलबली ने पूरे राजनीतिक माहौल पर असर डाला. सरकार नई चुनी गई और ढर्रा बदलता दिखे, ये चाहत हर छिटके तबके की कायम रही.
घुटन वाली प्रथाएं इस तरह खत्म होनी होतीं, तो आजादी के बाद संसद के दोनों सदनों की पहली साझा बैठक बुलाकर दहेज के खिलाफ लाए बिल और कानून के बाद हालात अलग होते. बेटियां आवाज भी उठाती हैं, मेहनत करती हैं, विद्रोह भी करती हैं और सब्र भी रखती हैं, जब-जब मौका होता है, मतदाता और जिम्मेदार नागरिक की ताकत भी दिखाती हैं. और क्या करेंगी अपने बूते. कोई ‘गवर्नेंस डैशबोर्ड' भी होता तो ये देखा जा सकता था कि क्या राजनीतिक नेत्रियां लैंगिक मुद्दों पर ज्यादा संवेदनशील हैं और ज्यादा असरदार काम करने का रास्ता खंगालती हैं? वसुंधरा राजे के मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान लड़कियों के लिए लाई ‘साइकिल योजना' बाकी राज्यों जैसी ही कारगर थी. ये अन्दाज मुझे आदिवासी गांवों में बच्चियों से बात करने पर हुआ. हालांकि इसके असर का कोई आकलन कभी पढ़ने में नहीं आया, जो आंकड़ों और अनुभवों की शामिल करते हुए, ठोस बात कह पाता. ये तो है कि नेता और अफसरों के गठजोड़ ने बदलाव के असल तरीकों को कागजी रखा और नवाचार के नाम पर पुराने कामों के नये-नये नामकरण कर भ्रम बनाए रखा. योजनाओं में क्या खामियां हैं, क्या और करने की गुंजाइश है, किस तरह उन्हें और आसान-असरदार बनाया जाए, ये बात उनसे तो पूछी ही जानी चाहिए जिनके लिए ये योजनाएं बनाई जाती हैं.
लोकहित और आर्थिक मुद्दों के लिए काम करने वाली ‘इंडिक' संस्था की ‘लैंगिक बजट' पर तैयार की एक रिपोर्ट हाल ही में पढ़ी और समझी. महिलाओं के लिए बनाई योजनाओं में किए खर्च की ज्यादा राशि होने के मायने ये नहीं कि असल खर्च भी ज्यादा होगा. खर्च के बाद उसके असर और उससे हासिल बेहतरी का मूल्यांकन ही असल पैमाना है. बजट को महिलाओं और पूरे समाज के लिए आर्थिक फायदे के नजरिए से देखा जाना बेहद जरूरी है. जब लातवी अमेरिका, महिलाओं की पगार और रोजगार पर गौर करने लगा, तो महिलाओं की आय 50% बढ़ गई, और जीडीपी पर 5% तक का असर हुआ. केन्या ने कृषि उत्पादन और शिक्षा तक समान पहुंच का लक्ष्य बनाया, तो महिला किसानों की उत्पादन की ताकत 20% बढ़ गई. भारत में खेती-किसानी में 32% से अधिक महिलाएं किसान हैं, और 70-80% खेती उनके बूते ही होती है. स्वास्थ्य, शिक्षा, खेती में अच्छा निवेश करना और संसाधन के बंटवारे, खर्च और असर सब पर नजर रखना इसीलिए जरूरी है.
राजस्थान में कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ "लाड़ो" का मीडिया अभियान छेड़ा था, तब साल 2011 का सेंसस आया ही था. तब लिंग अनुपात 888 और बाल लिंग अनुपात 928 था, राष्ट्रीय औसत से काफी कम. तब इस दाग को मिटाने के लिए रणनीति बनाने के दौरान, एनजीओ सेक्टर के पेशेवर लोगों का नजरिया जानकर हैरत भी हुई. उन्हें, अभियान के खाके से ज्यादा सरोकार नहीं था, उसके नाम से जरूर एतराज था.
उन पर ध्यान देने की बजाय अपने रास्ते चलना था, और तेजी से हुई तब्दीलियों पर नजर रखनी थी. ज्यादा बेटियां जन्म लेने लगीं, ज्यादा जिंदा रहने लगीं और इस पहल को कई मंचों पर केस स्टडी की तरह पेश किया जाने लगा. प्रदेश सरकार के हिस्से भी खूब वाहवाही आई और आखिरकार, सरकार ने अपनी एक योजना का नामकरण ही ‘लाडो' कर दिया. इसके बावजूद, लैंगिक समानता को लेकर सामाजिक संस्थाओं और बजट विश्लेषकों के तैयार चमकदार दस्तावेज, ठोस नीतिगत मूल्यांकन का कोई आधार देने में कभी कामयाब नहीं हुए.
सरकार जब बजट का बंटवारा करती है, तो खुद या जानकार संस्थाओं के जरिये उसे जमीनी जामा पहनाने की जिम्मेदारी भी लेती है. राजस्थान की ‘एसडीजी स्टेटस रिपोर्ट 5.0' में महिलाओं के पक्ष के 33 पैमाने शामिल हैं, जो निवेश के कई फैसलों और उनमें सुधार का आधार बन सकते हैं. हालांकि, 2018 की ‘कैग' की रिपोर्ट में लैंगिक-बजट लागू करने में गंभीर अनियमितताओं का खुलासा हुआ, जिसमें किशोरियों की योजनाओं में रखे फंड का केवल 0.37% उपयोग सामने आया. ये चेतावनी भी थी और सुधार का रास्ता भी. ओडिशा ने लैंगिक-बजट को सबसे पहले अपनाया और इसके बाद राजस्थान ने भी 2009 में ‘जेंडर-सेल' की स्थापना की. इसके बाद 2012-13 से यहां के वित्तीय प्रबंधन में लैंगिक-बजट का लेखा-जोखा शामिल होने लगा. थोड़े कागज और काले होने लगे, फाइलें और थोड़ी मोटी होने लगीं, जिसे देखने-जानने की फुर्सत अब भी किसी को नहीं थी.
ये नीतिगत जड़ता, लैंगिक न्याय के रास्ते की बड़ी अड़चन है. नीति आयोग ने ‘लैंगिक बजट अधिनियम' की सिफारिश भी की है, जिसमें डेटा इकट्ठा करने वाले संस्थानों के जरिये सांख्यिकी विश्लेषण साझा करने की भी बात है. लैंगिक-बजट के दो हिस्से होते हैं. एक उन योजनाओं पर केंद्रित होता है जो पूरी तरह महिलाओं के लिए ही हैं और जिनमें 100% आवंटन होता है, जैसे मातृत्व अवकाश. और दूसरा जिसमें महिलाएं अकेली या प्रमुख लाभार्थी नहीं होतीं, जिनमें 30-99% खर्च होता है. महिलाओं की पूरी आबादी की ख्वाहिशों का ख्याल कैसे रखा जाए, इसका खाका हर चुने हुए नेता के पास हो तो अच्छा हो. तभी वे अपने इलाके की महिला आबादी की खुशहाली के लिए ठोस काम कर सकते हैं.
बजट महिलाओं के सदियों पुराने घावों पर लगाई जाने वाली मरहमपट्टी भर नहीं है, बल्कि समाज के उसूलों को नया सिरा थमाने का जरिया भी है. ‘घूंघट हटाओ' जैसे फरमान और बजट की बंदरबांट से कुछ नहीं सधेगा. नतीजों के पदचिह्न देखता, उनके बही खाते तैयार करता लैंगिक-बजट, हर भेद को उघाड़ सके, ऐसा वित्तीय ढांचा बनाया जा सके तो राजस्थान पर बच्चियों-युवतियों से बर्ताव के लगे सारे दाग धुल सकेंगे.
डॉ. क्षिप्रा माथुर जयपुर स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं जो मीडिया और अध्यापन में तीन दशकों से सक्रिय हैं. अपने लेखन और वक्तव्यों में उन्होंने विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक विषयों को उठाया है, जिनमें समाज के उपेक्षित तबकों और उनके मुद्दों की विशेष रूप से चर्चा की गई है. भारत के चुनाव आयोग ने उन्हें नेशनल मीडिया अवॉर्ड से सम्मानित किया है.
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