ख़तरनाक है अरावली की क्षति को प्रतिशत में आंकना

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मनु सिंह

भारतीय सभ्यता में पर्वत केवल भौगोलिक संरचनाएँ नहीं रहे, बल्कि वे सांस्कृतिक स्मृति, आध्यात्मिक चेतना और पारिस्थितिक संतुलन के जीवंत प्रतीक रहे हैं. स्कंदपुराण में वर्णित कथा के अनुसार, एक समय महर्षि वशिष्ठ की दिव्य कामधेनु नंदिनी उत्तर-मध्य भारत की एक दुर्गम गहरी खाई में जा गिरी. दीर्घ अन्वेषण के पश्चात भी जब ऋषि को उसका पता न चला, तब उन्होंने महादेव शिव की आराधना की. करुणामय शिव ने अपने गण अरबुद को सहायता हेतु भेजा, जो एक दिव्य नाग था. अरबुद ने नंदिनी का उद्धार किया और प्रत्युपकार स्वरूप शिव से वर माँगा कि वह उस भयावह खाई को भरकर एक पर्वतमाला में रूपांतरित हो जाए, जहाँ जलस्रोत, वनस्पति, जीव-जंतु और दिव्य पारिस्थितिकी का वास हो. शिवकृपा से अरबुदारण्य की सृष्टि हुई, जिसका उल्लेख महाभारत के वनपर्व में पाण्डवों के प्रिय निवास-स्थल के रूप में मिलता है, और जो कालांतर में अरावली के नाम से विख्यात हुई.

अरावली के विनाश के दुष्परिणाम

आज लगभग 1.8 अरब वर्ष पुरानी यह भू-धरोहर, जो भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं में से एक है, अस्तित्वगत संकट के सम्मुख खड़ी है. हालिया नीतिगत व्याख्याएँ और खनन-सम्बंधी निर्णय इस अत्यंत संवेदनशील पारिस्थितिकी को अपूरणीय क्षति की ओर धकेलने की आशंका उत्पन्न करते हैं. अरावली के विनाश के बहुआयामी दुष्परिणाम हो सकते हैं. अरावली का क्षरण केवल स्थानीय नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आपदा के बीज बोता है. इससे होनेवाले कुछ दुष्प्रभाव इस प्रकार हैं.

●    मानसूनी पवन-प्रणालियों में व्यवधान, जिससे उत्तर भारत में मरुस्थलीकरण तीव्र होगा.

●    धूल, उत्सर्जन और हरित आवरण के क्षय से वायु गुणवत्ता (AQI) में कई गुना गिरावट.

●    पहले से उच्च जोखिम वाले क्षेत्र में भूकंपीय एवं विवर्तनिक संरचनाओं में खतरनाक हस्तक्षेप.

●    भूजल भंडारों का तीव्र क्षय, जो दिल्ली-एनसीआर सहित विस्तृत क्षेत्रों की जीवनरेखा हैं.

●    अत्यंत संवेदनशील वनस्पति एवं जीव-जंतुओं का विनाश और आवास-खंडन.

अरावली संरक्षण के मुद्दे पर देश में गंभीर बहस छिड़ी हुई है
Photo Credit: Unsplash

प्रतिशत में गणना के ख़तरे

वास्तविक चिंता खनन हेतु चिह्नित भूमि के प्रतिशत में नहीं, बल्कि राजस्थान में खनन-शासन के नियमों के पालन में निहित है. राज्य पहले से ही व्यापक अवैध खनन से जूझ रहा है, जो सीमित अनुमतियों के बावजूद अनुमेय सीमाओं से कई गुना अधिक बताया जाता है. स्वयं शासन द्वारा बार-बार स्वीकार की गई नियमन-असमर्थता के परिप्रेक्ष्य में खनन के और उदारीकरण के प्रस्ताव गंभीर आशंकाएँ उत्पन्न करते हैं.

पर्यावरणीय प्रभाव का मूल्यांकन केवल पट्टों के क्षेत्रफल तक सीमित नहीं किया जा सकता,  जैसा कि बार बार राजनेताओं द्वारा दोहराया जा रहा है. मुद्दा यह नहीं है कि खनन के लिए अनुमति दी गई कुल भूमि मात्र 1.9 प्रतिशत है. 

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यदि किसी व्यक्ति को गोली लगे, तो क्या क्षति का आकलन इस आधार पर किया जाएगा कि शरीर का कितना प्रतिशत भाग सीधे प्रभावित हुआ, या फिर उस आघात से उत्पन्न समग्र, आंतरिक और दूरगामी क्षति को देखा जाएगा?

यदि किसी व्यक्ति को गोली लगे, तो क्या क्षति का आकलन इस आधार पर किया जाएगा कि शरीर का कितना प्रतिशत भाग सीधे प्रभावित हुआ, या फिर उस आघात से उत्पन्न समग्र, आंतरिक और दूरगामी क्षति को देखा जाएगा? इसी प्रकार, दिल्ली में स्थित कूड़े के पहाड़ राजधानी के कुल भू-क्षेत्र का 0.001 प्रतिशत से भी कम भाग घेरते हैं, किंतु उनसे उत्पन्न पर्यावरणीय, स्वास्थ्यगत और सामाजिक विनाश मात्रात्मक आकलन से परे है. इसलिए पर्यावरणीय विमर्श में क्षेत्रफल की गणना नहीं, बल्कि प्रभाव की तीव्रता और व्यापकता निर्णायक होनी चाहिए.

द्वितीयक और संचयी कुप्रभाव भी यहाँ अहम बन जाते हैं - भारी डंपरों की आवाजाही, धूल प्रदूषण, उत्सर्जन, आवास-खंडन, भूजल दोहन और अपशिष्ट-ढेर - पट्टों की सीमाओं से बहुत आगे तक फैलते हैं और विरासत-सम्पन्न, नाजुक परितंत्रों को अनुपातहीन क्षति पहुँचाते हैं. दिल्ली के कूड़ा-पर्वतों का उदाहरण द्रष्टव्य है. नगण्य क्षेत्रफल के बावजूद उनके विषाक्त सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रभाव तत्काल हस्तक्षेप की माँग करते हैं. अतः स्थानिक गणित नहीं, प्रभाव-तीव्रता पर्यावरणीय शासन का केंद्रबिंदु होनी चाहिए.

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बारिश के मौसम में अरावली हरी-भरी दिखती है
Photo Credit: ANI

वक़्त की ज़रूरत

यह समय है कि नीति-विमर्श प्रतिशत-आधारित औचित्य से ऊपर उठकर पारदर्शी, प्रभाव-आधारित और एहतियाती मूल्यांकन को अंगीकार करे. अंततः यह केवल पर्यावरण का प्रश्न नहीं, बल्कि सभ्यतागत उत्तरदायित्व का प्रश्न है. आइए, हम माता अमृता देवी बिश्नोई के बलिदान-संकल्प, बाबा रामदेव जी की सांस्कृतिक चेतना, करणी माता की करुणा और भील, जाट, मीणा व बिश्नोई समुदायों की सामुदायिक प्रकृति-निष्ठा को स्मरण कर सामूहिक चेतना को जाग्रत करें. अरावली को बचाने का अर्थ है भारत की स्मृति, श्वास और भविष्य को बचाना. 

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लेखक परिचय: मनु सिंह जयपुर स्थित पर्यावरणविद् तथा सामाजिक न्याय और शांति कार्यकर्ता हैं. वह एक आध्यात्मिक प्रशिक्षक (Spiritual Trainer) हैं, तथा वरेण्यम (Varenyum) नामक एक संगठन के मुख्य संरक्षक हैं जिसका उद्देश्य एक ध्यानपूर्ण जीवन शैली का विकास और समग्र कल्याण सुनिश्चित करना है. मनु सिंह नियमित रूप से पर्यावरण और आध्यात्मिक विषयों पर लेख लिखते हैं.

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डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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