रणथंभौर (Ranthambhore) - जहां जंगल की निःशब्दता में भी गणेश का नाम गूंजता है, जहां सिंह और संत एक ही भूमि को साझा करते हैं, वहां अब असहज सन्नाटा पसरा है. बीते तीन महीनों में बाघों द्वारा तीन लोगों की जान ली गई. यह आंकड़ा केवल एक अलार्म नहीं, बल्कि चेतावनी है - वह चेतावनी, जिसे हमने अनसुना कर रखा था.
रणथंभौर का त्रिनेत्र गणेश मंदिर हजारों वर्षों से श्रद्धा का केंद्र रहा है. किंवदंतियाँ कहती हैं कि इस मंदिर की रक्षा स्वयं बाघ करते हैं. अनेक श्रद्धालु यह मानते हैं कि बाघों ने उन्हें जंगल में दिशा दी, रक्षा की, और चमत्कारी अनुभव कराए. यह विश्वास वर्षों तक जंगल और मानव के बीच सह-अस्तित्व की नींव रहा. परंतु अब तस्वीर बदल रही है.
त्रिनेत्र मंदिर की ओर जाने वाले मार्ग पर श्रद्धालुओं की भीड़ बढ़ती जा रही है. मोबाइल फोन, शोरगुल, और लापरवाही - यह आस्था की वह आधुनिक परछाई है जिसने बाघों की शांति और दिनचर्या भंग कर दी है. और जब कोई जंगली जानवर असहज होता है, तो वह स्वाभाविक रूप से रक्षात्मक और आक्रामक होता है.
रणथंभौर में बाघों की आबादी, उनके संरक्षण के प्रयासों के कारण तेज़ी से बढ़ी है, जो एक सकारात्मक संकेत है. परंतु इसी के साथ तेंदुओं और रीछों की संख्या में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. इन प्रजातियों के आपसी क्षेत्रों में ओवरलैप होने के कारण अब संघर्ष की स्थिति बनने लगी है.
विशेष रूप से बाघ, जो स्वभाव से अत्यंत क्षेत्रीय होते हैं, अपने इलाके में किसी भी अन्य शिकारी का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं करते. परंतु जब तेंदुआ या रीछ उसी क्षेत्र में आ जाए, और मानव भी उसी पगडंडी पर चलने लगे - तो बाघ की प्रतिक्रिया हिंसक हो जाना स्वाभाविक है.
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इस परिप्रेक्ष्य में यह भी देखा जा रहा है कि जंगल में शिकारों (जैसे नीलगाय, सांभर, चीतल) की संख्या में कमी आई है, जिससे बाघ और अधिक अस्थिर और आक्रामक हो रहे हैं. कुछ युवा बाघ भोजन और क्षेत्र दोनों के लिए संघर्षरत हैं, और ऐसे में मानव उनके लिए आसान शिकार की श्रेणी में आने लगा है.

रणथंभौर में पर्यटकों की संख्या बढ़ने के साथ आधुनिक सुविधाएँ बढ़ती जा रही हैं Photo Credit: Unsplash
रणथंभौर में मनोरंजन और खनन
रणथंभौर में अनियंत्रित पर्यटन और तेजी से फैलता रिसॉर्ट कल्चर अब जंगल की शांति पर गंभीर चोट कर रहा है. बाघों की गतिविधियों को “अद्भुत दृश्य" मानकर उनका पीछा करने वाले वाहन, जंगल की सीमाओं तक फैलते हुए रिसॉर्ट्स की कृत्रिम रोशनी और तेज़ संगीत – ये सब न सिर्फ वन्यजीवों की दिनचर्या को बाधित कर रहे हैं, बल्कि उनके प्राकृतिक व्यवहार को भी विकृत कर रहे हैं.
बफर ज़ोन में उग आए ये लग्ज़री ढांचे अब धीरे-धीरे कोर ज़ोन के इर्द-गिर्द मानव दखल का मजबूत घेरा बना रहे हैं. जब जंगल मनोरंजन का साधन बन जाए और बाघ एक सेल्फी का विषय, तब यह स्पष्ट संकेत है कि हमने "इको-टूरिज्म" को "इगो-टूरिज्म" में बदल दिया है.
इसी के साथ, अवैध खनन माफिया इस नाजुक पारिस्थितिकी पर एक और घातक वार कर रहे हैं. रेत, पत्थर और खनिजों की अवैध खुदाई ने न सिर्फ बाघों के कॉरिडोर काट दिए हैं, बल्कि झाड़ियों, पहाड़ियों और जल स्रोतों को भी बर्बाद कर डाला है. भारी ट्रकों की आवाजाही, विस्फोटों का कंपन और जंगल की छाती पर किए जा रहे ये खनन घाव, न केवल जीव-जंतुओं को विस्थापित कर रहे हैं, बल्कि पूरे रणथंभौर के पारिस्थितिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर रहे हैं.
जंगल की आत्मा पर अब दोहरी मार पड़ रही है - एक दिखावे की पर्यटन संस्कृति से, और दूसरी मुनाफे की लालसा में खोई खनन लूट से.

क्या है उपाय
विशेषज्ञों के अनुसार, राजस्थान में ही नहीं बल्कि देश के कई हिस्सों में अभी भी ऐसे वन क्षेत्र हैं जहां पर्यावरणीय परिस्थिति बाघ के लिए अनुकूल है, परंतु वहाँ बाघ नहीं हैं. इन्हें "टाइगर डेफिसिट ज़ोन" कहा जाता है.
रणथंभौर और सरिस्का जैसे क्षेत्रों के प्रबंधन में वर्षों तक सक्रिय रहे पूर्व आईएफएस अधिकारी सुनयन शर्मा इस बात पर जोर देते हैं कि अब रणथंभौर जैसे अधिक बाघ घनत्व वाले क्षेत्रों से बाघों का अन्य स्थानों पर पुनर्वास कराना ही एकमात्र समाधान है. इससे न केवल रणथंभौर में तनाव घटेगा, बल्कि अन्य क्षेत्रों में बाघों की उपस्थिति बढ़ेगी – जिससे पारिस्थितिकी संतुलन स्थापित होगा.
एक और महत्वपूर्ण सुझाव है: मंदिर तक श्रद्धालुओं के लिए रोपवे (केबल कार) का निर्माण. यह विचार आधुनिक है, सुरक्षित है और पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण से विवेकपूर्ण भी.
वर्तमान में जो पैदल मार्ग है, वह बाघों के मुख्य क्षेत्र से होकर गुजरता है और न केवल श्रद्धालुओं को जोखिम में डालता है, बाघों को भी परेशान करता है. यदि रोपवे की व्यवस्था हो जाए और पैदल मार्ग पूर्णतः प्रतिबंधित कर दिया जाए, तो यह समस्या का स्थायी समाधान हो सकता है. न तो आस्था रुकेगी और न ही वन्य जीवन को क्षति पहुंचेगी.

प्राकृतिक क्षेत्रों में स्थित मंदिरों में दर्शन करना श्रद्धा की बात हो सकती है, परन्तु वह पर्यावरणीय विवेक से परे नहीं हो सकता. रणथंभौर एक राष्ट्रीय उद्यान है, न कि तीर्थयात्रा का स्थल. जब बाघ अपने क्षेत्र में विचरण करता है, तो वह प्राकृतिक है. जब इंसान उसके क्षेत्र में अव्यवस्थित होकर प्रवेश करता है, तो वह अतिक्रमण है.
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रत्येक हमले के बाद हमारी प्रतिक्रिया केवल बाघ को आदमखोर घोषित करने तक सीमित होती है, जबकि समस्या की जड़ में मानव की अनुशासनहीनता है.
बाघ न तो राक्षस हैं, न चमत्कारी देवता. वे प्रकृति की एक अद्भुत रचना हैं - अपने ही घर में, अपनी ही रीति से जीने वाले . त्रिनेत्र मंदिर की महिमा तभी सुरक्षित रह पाएगी जब उसके रक्षक बाघ -सुरक्षित रहेंगे.
अब भी समय है कि हम चमत्कारों की कहानियों से चेतावनी का अर्थ निकालें. संरक्षण और श्रद्धा का संतुलन ही रणथंभौर की असली गरिमा है . और यह तभी संभव होगा जब विज्ञान, नीति और संवेदना एकसाथ चलें. बाघ का जंगल बचाइए, तभी गणेश का मंदिर भी बचेगा.
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लेखक परिचय: मनु सिंह जयपुर स्थित पर्यावरणविद् तथा सामाजिक न्याय और शांति कार्यकर्ता हैं. वह एक आध्यात्मिक प्रशिक्षक (Spiritual Trainer) हैं, तथा वरेण्यम (Varenyum) नामक एक संगठन के मुख्य संरक्षक हैं जिसका उद्देश्य एक ध्यानपूर्ण जीवन शैली का विकास और समग्र कल्याण सुनिश्चित करना है. मनु सिंह नियमित रूप से पर्यावरण और आध्यात्मिक विषयों पर लेख लिखते हैं.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.