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रतन टाटा: मुश्किलों में तप कर हुए तैयार

Apurva Krishna
  • विचार,
  • Updated:
    अक्टूबर 11, 2024 14:29 pm IST
    • Published On अक्टूबर 11, 2024 13:40 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 11, 2024 14:29 pm IST
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Ratan Tata : रतन टाटा के देहांत के बाद उनकी करिश्माई शख्सियत के बारे में बहुत कुछ बताया गया. बताया गया कि वो कितनी सादगी से रहते थे, और कितने विनम्र थे. विनम्र तो बहुत लोग होते हैं, मगर हर कोई कामयाब नहीं होते. और कई लोग कामयाब होने के बाद विनम्र नहीं रहते. रतन टाटा की खासियत यही बताई जाती है कि सफलता के सर्वोच्च शिखर पर जाने के बाद भी उनकी विनम्रता में रत्ती भर फर्क नहीं आया. वह विनम्र पहले भी थे, और कामयाब होने के बाद भी विनम्र बने रहे.

दरअसल विनम्रता दो तरह की होती है. नकली और असली. नकली विनम्रता वह होती है, जिसमें व्यक्ति सुविधानुसार विनम्र होता है. वह किन्हीं खास लोगों के साथ अलग व्यवहार करता है, और दूसरे लोगों के साथ अलग. वह किसी एक माहौल में विनम्र लगता है, मगर दूसरे माहौल में बदला सा नजर आता है.

ऐसा अक्सर होता है जब कोई व्यक्ति दुनिया के सामने तो विनम्रता की प्रतिमूर्ति लगता है, मगर असल ज़िंदगी में, अपने घर में, अपने दफ्तर में, अपने आस-पास के लोगों के साथ, अपने से कमज़ोर लोगों के साथ, उसका व्यवहार ठीक उलट होता है. यह ओढ़ी हुई विनम्रता होती है.

असली विनम्रता ठोस होती है. उसमें बड़ा-छोटा, समर्थ-कमज़ोर, ऊँच-नीच यह देखकर सुविधानुसार व्यवहार नहीं किया जाता. ऐसा व्यक्ति भेदभाव नहीं करता. विनम्रता उसका चरित्र यानी कैरेक्टर होती है. रतन टाटा उन लोगों में थे जिनके लिए विनम्रता उनके चरित्र का हिस्सा होती है.

“कमज़ोर व्यक्ति का विनम्र होना कोई बड़ी बात नहीं…लेकिन कोई व्यक्ति असल में कैसा है, यह जानना है तो उसके हाथ में ताकत दे दो. इससे बड़ा कोई टेस्ट नहीं है.”

अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की विनम्रता की बड़ी चर्चा होती है. उनके बारे में एक बहुचर्चित लेख में लिखा गया था - “कमज़ोर व्यक्ति का विनम्र होना कोई बड़ी बात नहीं…लेकिन कोई व्यक्ति असल में कैसा है, यह जानना है तो उसके हाथ में ताकत दे दो. इससे बड़ा कोई टेस्ट नहीं है. अब्राहम लिंकन की विशेषता यही है, कि सर्वोच्च सत्ता होने के बाद भी, उन्होंने उसका कभी दुरुपयोग नहीं किया.”

लिंकन जैसे पहले विनम्र रहे होंगे, वैसे ही रतन टाटा भी रहे होंगे. लिंकन जैसे राष्ट्रपति बनने के बाद भी विनम्र बने रहे, वैसे ही रतन टाटा भी बड़े उद्योगपति बनने के बाद भी विनम्र रहे. क्योंकि विनम्रता उनके चरित्र का हिस्सा थी. और चरित्र बिना मुश्किलों को भोगे नहीं बनता. लिंकन ने बचपन में भयानक गरीबी भोगी थी, तो रतन टाटा ने भी बचपन से ही दर्द भोगा.

बचपन की कड़वी यादें

वरिष्ठ पत्रकार कूमी कपूर ने पारसियों के बारे में अपनी किताब में रतन टाटा के जीवन के बारे में लिखा है. रतन टाटा को सबसे पहला दर्द घर में ही मिला. केवल 10 साल के थे, जब मां उन्हें और उनके छोटे भाई जिमी को छोड़ कर चली गईं. बचपन मां सूनू और पिता नवल के झगड़ों के बीच गुज़रा और आख़िर मां-बाप का तलाक़ हो गया.

मां के जाने के बाद, दादी नवजबाई ही रतन के लिए मां बन गईं. पिता ने दूसरी शादी की, स्विट्ज़रलैंड की सिमोन सौतेली मां बन कर आईं. मगर रतन की नई मां से नहीं बनीं, उनके लिए मां का मतलब दादी ही थीं. 

पिता से भी स्नेह था, मगर पिता कड़क थे. अनाथालय में पले बढ़े, और बाद में गोद लिए जाने से टाटा परिवार का हिस्सा बने, रतन टाटा के पिता नवल टाटा को अभाव का मतलब पता था. उन्होंने अपने दोनों बेटों को हिदायत दे रखी थी कि वो अपनी अमीरी की नुमाइश ना करें.

पिता नवल टाटा कड़क और अनुशासन पसंद थे. अनाथालय में पले बढ़े और बाद में टाटा परिवार का हिस्सा बने रतन टाटा के पिता को अभाव का मतलब पता था. उन्होंने दोनों बेटों को हिदायत दे रखी थी कि वो अपनी अमीरी की नुमाइश ना करें.

नवल टाटा अनुशासन पसंद थे, इतने ज़्यादा कि जब बाद में रतन टाटा इंजीनियरिंग और आर्किटेक्चर की पढ़ाई के लिए न्यूयॉर्क की कॉर्नेल यूनिवर्सिटी गए, तो वहां पैसों के लिए बर्तन साफ़ करने जैसे काम करने पड़े, क्योंकि उन दिनों रिज़र्व बैंक के नियमों की वजह से एक सीमित मात्रा में ही पैसे विदेश भेजे जा सकते थे, और नियमों को मानने वाले रतन टाटा के पिता किसी जुगाड़ से पैसे भेजने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे.

वैसे रतन टाटा के रहने-पढ़ने में कोई दिक्कत नहीं थी. एक्स्ट्रा पैसे उन्हें फ़्लाइंग सीखने के लिए चाहिए थे.

रतन टाटा पढ़ाई के बाद अमेरिका में ही एक बड़ी कंपनी में काम करने लगे. सात साल अमेरिका रहे, और वहीं रहना चाहते थे. मगर दादी ने उनके लिए कुछ और सोच रखा था. दादी ही रतन टाटा के लिए सब कुछ थीं. जब वो गंभीर रूप से बीमार हुईं, और ख़ास तौर पर रतन को याद किया, तो रतन टाटा अमेरिका की शानदार ज़िंदगी को छोड़ लौट आए.

और जब आए तो घर बदल चुका था. पिता का नया परिवार बस चुका था. घर में एक और सौतेला भाई आ गया था - नोएल - जो 20 साल छोटा था. सौतेली मां से दूरी बनी रही. रतन टाटा घर में लोगों से घिरे होने के बाद भी शायद अकेले थे. 

अमेरिका में प्यार भी हुआ था, मगर वह भी किसी मुकाम तक नहीं पहुंचा. अमेरिकी प्रेमिका के घरवाले नहीं माने.

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शुरुआती दौर की मुश्किलें

मगर रतन टाटा को अब अपनी दादी का वह सपना पूरा करना था. जमशेदजी नसरवानजी टाटा की विरासत संभालनी थी. मगर यह इतना आसान नहीं था. क्योंकि तब तक टाटा की सारी कमान दूर के रिश्तेदार जे आर डी टाटा के हाथों में आ गई थी.

जे आर डी टाटा बहुत बड़ा नाम थे. मगर वो रतन टाटा के पिता नवल टाटा को बिल्कुल पसंद नहीं करते थे, क्योंकि दोनों अलग मिज़ाज के व्यक्ति थे. नवल टाटा नर्मदिल इंसान थे और मानवता को कारोबार से ऊपर रखते थे. जे आर डी टाटा के लिए कारोबार सब कुछ था.

रतन टाटा जब 1962 में टाटा समूह में काम करने आए तो उन्हें जमशेदपुर भेज दिया गया. लंबे समय तक ना तो कोई काम दिया गया, ना कोई जिम्मेदारी दी गई, ना कोई ओहदा मिला. कभी एक विभाग, तो कभी दूसरे विभाग में भेजे जाते रहे. रतन टाटा चुपचाप ज़लालत झेलते रहे, मगर टूटे नहीं.

इस कड़वाहट का नतीजा ये हुआ कि रतन टाटा ने 1962 में जब टाटा समूह में काम शुरू किया, तो उन्हें जमशेदपुर भेज दिया गया. लंबे समय तक ना तो कोई काम दिया गया, ना कोई जिम्मेदारी दी गई, ना कोई ओहदा मिला. कभी एक विभाग, तो कभी दूसरे विभाग में भेजे जाते रहे. रतन टाटा चुपचाप ज़लालत झेलते रहे, मगर टूटे नहीं.

ये दौर ख़त्म हुआ, तो ऐसे काम दिए गए जो बड़े कठिन थे. घाटे वाले कारोबार चलाने के लिए सौंप दिए गए. मगर रतन टाटा ने अपनी काबिलियत से उनका कायापलट कर डाला. जमशेदपुर में मुश्किलों के बीच बीते उन छह सालों ने रतन टाटा को निखार डाला. इतना कि जे आर डी टाटा भी उन्हें चाहने लगे, और समझ गए कि अगर उनके बाद टाटा की विरासत को अगर कोई संभाल सकता है, तो वह रतन टाटा हैं.

रतन टाटा 1991 में टाटा सन्स के चेयरमैन बने. और फिर उनकी अगुआई में अगले दो दशक में टाटा के साम्राज्य का देशों में विस्तार होता गया. मगर सबसे बड़ी बात. सिर्फ कंपनी बड़ी नहीं हुई, रतन टाटा का क़द भी बड़ा होता गया, जो मुश्किलों में तप कर तैयार हुआ था.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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