टाइगर और लेपर्ड - नए रिफ्यूजी

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Sunayan Sharma

Tigers and Leopards: पिछले साल कई महीनों से मेवाड़ के आदिवासी इलाक़ों के कई हिस्सों से इंसानों की चीखें सुनाई देती रहीं. इसका ज़िम्मेदार एक लेपर्ड था जिसने उदयपुर फ़ॉरेस्ट डिवीज़न के गोगुंदा रेंज में रहनेवाले कई लोगों पर हमले किए हैं और मार डाला. वन विभाग ने हमलों से फैली दहशत के बीच तेंदुए या तेंदुओं को पकड़ने के लिए एक बड़ा अभियान शुरू किया. इसके लिए सेना की भी मदद ली गई. आख़िर में अलग-अलग जगहों से चार तेंदुओं को पिंजड़ों में पकड़ा गया.

वैसे मैं उम्मीद करूंगा कि ये वही लेपर्ड रहे होंगे जिनकी तलाश थी, क्योंकि लेपर्ड को देखकर पहचान लेना संभव नहीं है, जब तक कि किसी शारीरिक चोट या विकलांगता की वजह से वो अलग ना दिखे, और ये ख़ास तौर पर उसके गद्देदार पैरों के निशान (पगमार्क) में नज़र आता है.

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इन तेंदुओं को पकड़ने से इस इलाक़े के आदिवासी लोगों को फ़िलहाल राहत मिल सकती है, और हम भी यही चाहते हैं, लेकिन तेंदुओं को पकड़ने का मतलब ये नहीं है कि कोई नया तेंदुआ हमला नहीं कर सकता. ना ही तेंदुओं को पकड़ना और बंद कर देना जायज़ है.

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जंगल के राजा बाघ की भी यही कहानी है. अक्सर देश के अलग-अलग इलाक़ों में बाघों के इंसानी बस्तियों में देखे जाने की ख़बरें आती रहती हैं. हर बार वन विभाग उन्हें पकड़ने के लिए अभियान चलाने लगता है. यह हंगामा कुछ दिन चलता है और या तो जानवर को पकड़ लिया जाता है, या वो जंगल में लौट जाता है. लेकिन, फिर कहीं और से ऐसी एक नई घटना सुनाई देने लगती है. मध्य प्रदेश में कई बार बाघों के भोपाल में रिहाइशी इलाक़ों में देखे जाने की घटनाएं सामने आई हैं.

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इस ज़रूरी मुद्दे पर हमारी सरकारों का रवैया लचर रहा है, लेकिन पूरे देश में लगातार होनेवाली इस समस्या के स्थायी हल के लिए इस पर गंभीरता से विचार करना ज़रूरी है.

बाघों का अपना इलाका होता है
Photo Credit: ANI

बफ़र ज़ोन

सरिस्का में पिछले साल नए साल के आगमन के आस-पास पता चला कि हरियाणा के अंदर आनेवाले कुछ गांवों में खेतों में एक बाघ को घूमते देखा गया है. एक ग्रामीण के बाघ देखने की ये ख़बर देखते-देखते फैल गई और पूरे इलाक़े में दहशत का माहौल बन गया. यह इलाक़ा सरिस्का टाइगर रिज़र्व की पूर्वोत्तर सीमा से सटा था. निश्चित तौर पर, ये बाघ टाइगर रिज़र्व से बाहर निकल गया होगा, जिसे इस इलाक़े में बाला किला-सिलिसेढ़ जंगल कहा जाता है, और जो टाइगर रिज़र्व के बफ़र ज़ोन के अंतर्गत आता है.

वन्यजीव विशेषज्ञों ने बफ़र ज़ोन की व्यवस्था ये सोचकर बनाई थी, जिससे कि रिज़र्व क्षेत्रों में रहनेवाले जानवर और इसकी सीमा पर रहनेवाले इंसानों के बीच कोई संघर्ष नहीं हो. आदर्श ये है कि यह क्षेत्र इस तरह से बनाया जाए जिससे कि यह जंगल के चारों ओर एक रिंग के जैसा बन जाए जो इंसानों और वन्यजीवों के बीच दूरी रखने का काम करे.

ये व्यवस्था तब बन सकती है जब हर तरह के जंगली जानवरों को इस सुरक्षित क्षेत्र में आने से रोकने का प्रयास किया जाए. इसके लिए ज़रूरी है कि इस बफ़र क्षेत्र में ना तो पीने के पानी के स्रोत बनाए जाएं और ना ही चारागाह का विकास हो जिससे ना तो जंगल और ना ही आस-पास के गांवों के जानवर वहां खाने-पीने की तलाश में आएं.

शुरू में इस व्यवस्था से काफ़ी फ़ायदा हुआ और संघर्ष कम हुए, लेकिन बाद में बाघों और तेंदुओं की संख्या बढ़ाने को लेकर शुरू हुई होड़ से नियम बदलने लगे. 

Photo Credit: tigerwatch.net

सरिस्का में अव्यवस्था का उदाहरण  

सरिस्का इसका एक जीता जागता उदाहरण है. जैसे बाला किला जंगल पहले अलवर का हिस्सा होता था जिसे एक दशक पहले सरिस्का के बफ़र ज़ोन में शामिल कर लिया गया है. पहले यहां केवल कुछ लेपर्ड शिकार के मक़सद से दिखाई देते थे लेकिन अब बाघों की संख्या बढ़ाने की होड़ में यहाँ बाघों को लाने की हरसंभव कोशिश की जा रही है. 

इस वजह से यहां पड़ोस के पनिधाल-लोज-नाथूसर क्षेत्र के बाघों ने यहाँ डेरा डाल दिया. इनमें से दो ने - ST-18 बाघ और ST-19 बाघिन ने यहाँ दो शावकों को जन्म दिया है जिनके नाम ST-2302 और ST-2303 हैं. ये चारों बाघ यहाँ नहीं रह सकते क्योंकि यहाँ उनके खाने के लिए पर्याप्त शिकार नहीं हैं.

इन शावकों के लिए एकमात्र विकल्प ये है कि वो पास ही में अपनी मां के माता-पिता के इलाक़े राइका-पानीढाल-लोज-नाथूसर जंगलों में चले जाएँ जो सरिस्का रिज़र्व का उत्तरी ज़ोन है. लेकिन इसी बीच बाघिन का परिवार भी बढ़ रहा है और दूसरी ओर वहाँ शिकार की और भी कमी हो गई है.

जनवरी 2024 में भूख से परेशान होकर वह हरियाणा के रेवाड़ी ज़िले में इंसानी बस्तियों में चला गया. एक ग्रामीण ने उसे देखा जिसके बाद हड़कंप मच गया.

ऐसी परिस्थिति में ST-2023 के पास रिज़र्व से दूर जाने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा था. इसलिए जनवरी 2024 में भूख से परेशान होकर वह हरियाणा के रेवाड़ी ज़िले में इंसानी बस्तियों में चला गया. एक ग्रामीण ने उसे देखा जिसके बाद हड़कंप मच गया. वन विभाग और गांव के लोग उसके पीछे पड़ गए. मगर लौटने की जगह बाघ और आगे बढ़ने लगा. वन विभाग पर सरकार और ग्रामीणों का दबाव बढ़ने लगा और उन्होंने सरिस्का में काम करने वाले ग्राउंड कर्मचारियों पर ज़ोर डालना शुरू किया.

एक दिन हीरा लाल बलायी नाम के एक फील्ड कर्मचारी ने बाघ को रेवाड़ी के बतसाना गांव में सरसों के एक खेत में  खोज लिया. हीरा उसे वापस सुरक्षित इलाके में भेजना चाहता था, लेकिन सिर्फ़ एक लाठी लेकर बाघ को भगाना असंभव था. बाघ उत्तेजित हो गया और उसने हमला कर दिया और सरिस्का के इस हीरो के शरीर पर बैठ गया. उसने उसका एक हाथ अपने जबड़े में डाल लिया. हीरा की आवाज़ सुनकर उसका भतीजा मुकेश कुमार और एक अन्य कर्मचारी दौड़े आए, लेकिन बाघ को संभालना आसान काम नहीं होता. मुकेश ने उसके बाद भी लाठी से हीरा का हाथ छुड़ाया और चाचा-भतीजा ने मिलकर बाघ को भगा दिया. यह एक चमत्कार से कम नहीं था. हीरा को सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया, उसे सुपर एस्पेशियलिटी ट्रीटमेंट की ज़रूरत थी, लेकिन वो ऐसे ही ठीक हो गया.

बाघ हरियाणा में एक से दूसरे गांव घूमता रहा. आखिर एक दिन वो जंगल में लौट गया, शायद रोज़-रोज़ की गांववालों की चीख-पुकार से उब कर. पिछले साल अगस्त में फिर वही बाघ हरियाणा के कई और गांवों में देखा गया. वन विभाग के कर्मचारी इस बाघ को ट्रैक कर रहे थे, लेकिन ऐसा कब तक चल सकता है?

पर्यटन लॉबी का दबाव

ST-2303 के मामले से वन्यजीवों का प्रबंधन करनेवाले लोगों को एक सीख लेनी चाहिए. वो ये कि बफ़र ज़ोन बनाने से काम नहीं चलेगा. और गांवों को बिना सोचे-समझे दूसरी जगह हटाना तो और ख़तरनाक हो सकता है. असल में ऐसा करने का मतलब होगा बाघों के लिए और अधिक इलाक़ा छोड़ देना. ऐसे उदाहरण हैं जब बिना सोचे समझे गांवों को हटाया गया जिससे दूसरी समस्या पैदा हो गई. ऐसे इलाक़े बहुत सारे शाकाहारी जानवर दशकों से भोजन के स्रोत होते हैं और अचानक गांवों को हटा देने से उनकी संख्या अचानक से घट गई. ऐसी परिस्थिति में गांवों को हटाने से पहले एक समग्र योजना बनाई जानी चाहिए ताकि मौजूद बाघों के लिए पर्याप्त शिकार रहे.

बाघों और लेपर्ड के संरक्षण का मतलब सिर्फ़ उनका प्रदर्शन नहीं होना चाहिए बल्कि जैवविविधता का ध्यान रखते हुए जंगल का संरक्षण भी होना चाहिए.

दुर्भाग्य से पर्यटन लॉबी के बढ़ते दबाव की वजह से वाइल्डलाइफ़ मैनेजमेंट पर गंभीर असर पड़ा है. बाघों और लेपर्ड के संरक्षण का मतलब सिर्फ़ उनका प्रदर्शन नहीं होना चाहिए बल्कि जैवविविधता का ध्यान रखते हुए जंगल का संरक्षण भी होना चाहिए, ताकि ये मांसाहारी जानवर एक प्राकृतिक माहौल में वास कर सकें. 

यह दुःखद है कि सरकारें इस उद्देश्य से दूर हटती दिखाई दे रही हैं. मुझे लगता है कि सरकारों को इस क्षेत्र में अच्छा अनुभव रखनेवाले जानकारों की सहायता से एक योजना बनानी चाहिए. इसमें वाइल्डलाइफ़ इंस्टीच्यूट ऑफ़ इंडिया, वेटरिनरी डिपार्टमेंट और वर्ल्ड वाइल्डलाइफ़ फंड जैसे संगठनों की मदद ली जानी चाहिए.

अक्सर राजस्थान या देश के दूसरे हिस्सों से लेपर्ड के हाथों किसी इंसान के मारे जाने की ख़बर आती है. और ये हमारी वन-वन्यजीव मैनेजमेंट की बदहाली से होता है. मुझे लगता है सरकार सिर्फ़ हत्या करनेवाले लेपर्ड को पकड़कर संतुष्ट ना हो जाए. असल अपराधी को भी पकड़ा जाना चाहिए. जंगल के राजाओं को इंसानी बस्तियों में रिफ्यूजी की तरह दर-बदर की ठोकरें खाते देख मेरा मन बड़ा दुखता है.

परिचयः सुनयन शर्मा एक पूर्व भारतीय वन सेवा अधिकारी (IFS)हैं. उन्होंने दो बार प्रोजेक्ट टाइगर सरिस्का के फ़ील्ड डायरेक्टर की ज़िम्मेदारी निभाई (1991-96 और 2008-10). वह भरतपुर स्थित केवलादेव नेशनल पार्क के डायरेक्टर रह चुके हैं जो एक वर्ल्ड हेरिटेज साइट है.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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