पानी से ही सिंचेगा विकास का पौधा

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Dr. Shipra Mathur

Rajasthan: दुनिया की कोई भी हस्ती भारत आए, राजस्थान की धरती पर तो कदम रखती ही है. ये जानते हुए कि ये क़िल्लत वाले इलाक़े हैं मगर यहाँ की धरोहर को देखे बग़ैर भारत की सैर का पूरा आनंद भी नहीं. इन नामी लोगों की सरकारी महकमे से, शहर के ख़ास लोगों से मुलाक़ातें भी तय होती हैं. भरपूर मेहमान नवाज़ी होती है. बंद कमरों में, उनसे राज्य के मुद्दों पर चर्चाओं के दौर चलते हैं, और कुछ व्यापारिक समझौतों की बात होती है. लेकिन, इससे आम-अवाम को क्या हासिल होता है? बरसों से खड़े मूल सवालों का क्या हल निकल पाता है? ये बात इसीलिए दिमाग़ में आई कि जब अमेरिकी हितों की सोचने वालों से राजस्थान के हितों की बात छेड़ी, तो पता चलता है उन्हें इससे कोई लेना-देना नहीं. 

ये बात इसलिए करनी ज़रूरी है कि ट्रंप के छेड़े टैरिफ़ वॉर के बाद दुनिया में जो खलबली मची है, उसमें राजस्थान जैसे प्रदेशों के लिए कुछ नए अवसर भी हैं. निर्यात को लेकर भले असमंजस हो, लेकिन अपने हुनर, पैदावार और कला को उद्यम में बदलकर, आगे बढ़ने के रास्ते और खुलने चाहिए.

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राजस्थान निवेश का नया ठिकाना बन सकता है. इसी तैयारी में, अच्छी कामकाजी फौज के साथ पानी की उपलब्धता और गुणवत्ता सबसे बड़ा पैमाना होगा. 

चाहे बाहर के कारोबारी आएँ और रोज़गार के मौके यहाँ मुहैया करवायें या फिर हमारे अपने काम धंधे ही और आकार लें, सबमें पानी के सवाल बड़े हैं. ये मूलभूत बात है, जिससे पहले जनता जूझेगी और बाद में यहाँ लगने वाले उद्योग. जब नए कारोबार, सस्ते श्रम की चाह में भारत आएँगे तो नए ठिकाने ढूँढेंगे. अब जब बाक़ी बड़े शहरों में आबादी का दबाव बढ़ रहा है, राजस्थान नया ठिकाना बन सकता है. नज़र में आएगा तो निवेशक, बाक़ी की सहूलियत भी देखेंगे. इसी तैयारी में, अच्छी कामकाजी फौज के साथ पानी की उपलब्धता और गुणवत्ता सबसे बड़ा पैमाना होगा. 

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आमेर किले में मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा और उपमुख्यंत्री दिया कुमारी के साथ जेडी वेंस और उनका परिवार
Photo Credit: ANI

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अमेरिकी उपराष्ट्रपति का राजस्थान दौरा

हाल ही में अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस राजस्थान का दौरा करके गए. अपने अतीत और ओहायो के मिडिलटाउन की कहानी सुनाते हुए, अपनी वहाँ की आबादी की तकलीफ़ बयानी उन्होंने की, जिसकी वजह से अमेरिका फिर से उत्पादन का गढ़ बनने का ज़ोर लगा रहा है. हम सबने उन्हें रूबरू सुना और लगा ये तो हमारे अपने आस-पास के लोगों की जैसी ही कहानी है. जब कस्बों और गाँवों के रोज़गार ख़त्म हुए, मशीनों का बोलबाला हुआ, पलायन हुए. 

इसके अलावा, हमारे यहाँ और भी बहुत कुछ हुआ, किसान परिवारों की नई पीढ़ी ने खेती छोड़ दी, ज़मीनें बेच दीं, हाथ का काम छोड़ दिया. ग़रीब किसान मज़दूर बन गया और अमीर किसान, ज़मींदार. इस बीच जो संकट सबसे ज़्यादा गहराया वो रहा, पानी का. लेकिन इतने मूलभूत मुद्दे पर बड़े लोगों के बीच कोई बात ही नहीं हो पाती. उन्हें बाक़ी की दुनिया के मसले हल करने से पहले, ख़ुद को महान बनाने की फ़िक्र करनी है. अपना ख़ज़ाना भरना है, इसलिए पानी-पर्यावरण को वैश्विक चर्चाओं से पूरी तरह बाहर धकेल दिया गया है.  

प्रदेश के आम चुनावों में पहली बार इतने ज़ोर शोर से पानी और उससे जुड़ी बड़ी योजनाओं की बात उठी थी. उस पर जमकर राजनीति हुई, इसके बाद उन पर काम भी शुरू हुआ. नदियों को जोड़ने वाली परियोजना में राजस्थान की बड़ी हिस्सेदारी तय हुई. राजस्थान के 21 जिलों के करीब 43 हज़ार हेक्टेयर इलाके को फ़ायदा मिलना है पार्वती-कालीसिंध-चंबल योजना से. इस बीच, जो काम बेहद ज़रूरी था, जल जीवन मिशन से हर घर नल का, उसमें पिछली सरकार के किए घोटालों का पर्दाफाश हुआ है. नेताओं की धरपकड़ भी शुरू हुई है और अभी तो और छानबीन होगी तो और धूल छँटेगी. 

गर्मियों में पशु-पक्षियों को भी पानी का अभाव झेलना पड़ता है
Photo Credit: PTI

पानी की पुरानी क़िल्लत

पश्चिमी राजस्थान के जोधपुर और चूरू जैसे इलाक़ों से पानी को लेकर झड़प की ख़बरें अभी से आने लगी हैं. ये अच्छा संकेत नहीं है. हर बार, नहरबंदी के दौरान लोगों की तकलीफ़ बढ़ जाती है. राजधानी के पास के इलाकों में भी बच्चों और महिलाओं से बात करने पर पता चलता है कि रसूख वालों का तो अपना कुआँ है, ट्यूबवेल है. बाक़ी, घर-घर पानी की लाइन पहुँच भी है तो उनमें पानी नहीं है. 

बात ये है कि बड़ी सरकारी योजनाओं की ज़रूरत तो रहेगी, लेकिन सदियों तक साथ निभाने वाले जोहड़, खड़ीन, झालरा, तालाब, झीलें, नाड़ी, बेरी और टांके सहित सभी पारंपरिक जल-संरचनाओं को बचाने और उनके रखरखाव के काम में ज़्यादा तेज़ी चाहिए. जल-स्वावलंबन और फ़ार्म पॉण्ड जैसे असरदार काम की बदौलत, पारंपरिक पद्धतियों पर फिर ध्यान तो गया. जिससे सीखकर, लोग अपने खर्चे पर भी खेतों में पानी बचाने का इंतज़ाम कर रहे हैं. 

फिर भी, गाँव-गाँव दौरा करने पर देखना होता है कि बच्चे और महिलाएं हैंडपंप पर, या सार्वजनिक नलों से पानी के इंतज़ाम में दिन के कई घंटे लगा देते हैं. मीलों चलकर पानी लाने की तकलीफ़ आज भी महिलाएं सहती हैं. सरकारी आँकड़े कुछ भी कहें, लेकिन सैंकड़ों सरकारी स्कूल हैं जहाँ बच्चों को पीने का पानी अब तक नसीब नहीं. और अगर है भी तो कितना साफ़ और कितना पीने लायक, पता नहीं. 

केंद्रीय पेयजल स्वच्छता मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है कि भारत की कुल 70,340 बस्तियों में पीने का साफ पानी नहीं है, और इनमें से सबसे ज़्यादा 19,573 बस्तियां, अकेले राजस्थान में हैं.

पानी की क्वालिटी की चुनौती

पानी की किल्लत के साथ, जब हम पीने के पानी की गुणवत्ता पर गौर करते हैं तो भयावह तस्वीर सामने आती है. केंद्रीय पेयजल स्वच्छता मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है कि भारत की कुल 70,340 बस्तियों में पीने का साफ पानी नहीं है, और इनमें से सबसे ज़्यादा 19,573 बस्तियां, अकेले राजस्थान में हैं. कई हिस्सों में पीने के पानी में फ्लोराइड, नाइट्रेट और खारेपन से सेहत का बड़ा खतरा है . 

पानी में घुला फ्लोराइड राज्य के हर इलाके की हकीकत है. गांवों के गाँव देखे, ऑस्टियोआर्थराइटिस, जोड़ों की तकलीफ, दांतों का पीलापन और खून की कमी जैसी बीमारियों की पकड़ में हैं. दांत और हड्डियों के टेढ़ेपन के कारण इस पूरे क्षेत्र को कभी 'बांकापट्टी' कहा जाता था. 

एक लीटर पानी में 1.5 मिलीग्राम से अधिक फ्लोराइड स्वास्थ्य के लिए खतरा होता है. पानी की गुणवत्ता का संकट, खास तौर से फ्लोराइड प्रदूषण, राजस्थान में गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य का संकट है. सेहत के साथ, सामाजिक और आर्थिक विषमता भी इससे बढ़ी हैं. गरीब और हाशिए पर रहने वाले समुदाय अक्सर दूषित पानी के संपर्क में आते हैं. बीमारियों के इलाज का खर्च गरीब परिवारों पर भारी पड़ता है और इससे उनकी उत्पादकता और आय दोनों पर असर आता है. खास तौर से दूर दराज के पिछड़े और दुर्गम इलाकों में सरकार का खास ध्यान होना चाहिए. 

शहरों की ओर बढ़ते पलायन के कारण, साल 2030 तक पानी की माँग 50% बढ़ जाएगी. अभी के हाल ये हैं कि 60% कुएँ खारे हो चुके हैं, सांभर झील जैसी अनूठी वेटलैंड्स सिकुड़ रही हैं. राज्य के 4000 से ज़्यादा गाँव टैंकर के भरोसे ज़िंदा हैं, जो सेहत से खिलवाड़ भी है और जेब पर भार भी. प्रदेश के 80% ब्लॉक्स सूखे हैं. खेत, पशु और सेहत राज्य की ग्रामीण आबादी का सबसे बड़ा धन है. हमारा पूरा अर्थतंत्र इनकी उत्पादकता पर टिका है. 

तालाब के पानी में एक विदेशी प्रजाति की बत्तख
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'जल-आंदोलन' की ज़रूरत

बच्चों की सेहत और भविष्य भी पानी से जुड़ा है और महिलाओं के समय और ऊर्जा की बचत भी. रोज़गार और व्यापार भी वहीं पनपेगा जहाँ पानी मुहैया होगा. पिछले सालों में ‘जल-आंदोलन' की कहानियाँ लिखने के बहाने देश के कई इलाक़ों को टटोला, देखा समुदाय जहाँ सजग है वहाँ वो अपनी संस्कृति, सेहत और ख़ुशहाली सब बचाए रखेगा. लेकिन सच बात ये है कि गाँव और ग़रीब किसी की फ़िक्र में नहीं हैं. 

इस वक्त, जब देश और दुनिया में भरोसे का संकट सबसे बड़ा है, हमें समाधान वाले लोग भी चाहिए और संवेदनशील निस्वार्थ भाव वाले सहयोगी भी. ‘इंडस वाटर ट्रीटी' खत्म करने से राजस्थान को पाकिस्तान जाने वाला पानी कैसे मिलेगा, इससे क्या बदलेगा, ये बहस अभी शुरू होगी. फ़िलहाल, हमें अपना गला तर करने की फिक्र ज़ोर शोर से करनी है. 

राजस्थान के कुछ युवा पानी के लिए अपनी देसी बुद्धि से बहुत नेक काम कर रहे हैं, ये असल जल-आंदोलन है जिसे बड़े पैमाने पर फैलाने और ज़मीन के पानी को ज़मीन, खेत का पानी खेत और छत का पानी घरों में सहेजने के लिए समाज और संगठनों को मिलकर ठोस काम करना चाहिए. जल-नीति पर फिर बहस हो और सरकार शहरों में भी बारिश के पानी को सहेजने पर ज़ोर दे, तो और अच्छा.

परिचयः डॉ. क्षिप्रा माथुर जयपुर स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं जो मीडिया और अध्यापन में तीन दशकों से सक्रिय हैं. अपने लेखन और वक्तव्यों में उन्होंने विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक विषयों को उठाया है, जिनमें समाज के उपेक्षित तबकों और उनके मुद्दों की विशेष रूप से चर्चा की गई है. भारत के चुनाव आयोग ने उन्हें नेशनल मीडिया अवॉर्ड से सम्मानित किया है. 

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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