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This Article is From Aug 15, 2023

हमें GDP बढ़ाने के लिए और भी 'सलीम नाई' चाहिए...

हिमांशु जोशी
  • विचार,
  • Updated:
    सितंबर 12, 2023 18:01 pm IST
    • Published On अगस्त 15, 2023 12:15 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 12, 2023 18:01 pm IST

बचपन में जब किसी हरे-भरे पेड़ के नीचे कुर्सी लगाकर खड़े नाई के पास बाल कटवाने मम्मी ले जाती थी, तो खूब रोता था. वक्त आगे बढ़ा और उस पेड़ के नीचे वाली कुर्सी की जगह चारदीवारी के अंदर खिसक गई, अब इन दुकानों में मैं अकेले जाने लगा और रोना भी बन्द हो गया. घर से बाहर निकलने पर गर्मी बढ़ने लगी, राह चलते आंखों में चुभने वाली धूल और भी ज्यादा बढ़ने लगी. पेड़ गायब होना इसकी मुख्य वजह रहा है, और आंकड़े बताते हैं कि भारत ने पिछले 30 वर्ष में वनों की कटाई में सबसे अधिक वृद्धि देखी है.

हमारे देश ने साल 1990 से साल 2000 के बीच 3,84,000 हेक्टेयर जंगलों को खो दिया, पर यह आंकड़ा और भी खतरनाक लगता है, जब यह जानकारी हमारे सामने आती है कि साल 2015 और साल 2020 के बीच बढ़कर जंगल खोने का आंकड़ा लगभग दोगुना होकर 6,68,400 हेक्टेयर हो गया.

नाई की वह लकड़ी की सख्त कुर्सी आरामदायक गद्दीदार कुर्सी बन गई और इन दुकानों को अब हेयर सैलून कहा जाने लगा. एक बात जो नहीं बदली, वह थी इन दुकानों में लगे कैलेंडर, उर्दू में छपे इन कैलेंडरों के बिना नाई की कोई भी दुकान अधूरी लगती है.

आज देहरादून में एक नई खुली नाई की दुकान में पहुंचा, तो उसमें कुछ अधूरा-सा लगा. सवाल पूछने से पहले नाई को विश्वास में लेना ज़रूरी था, तो मैंने उनसे पानी मांगा, पानी इसलिए, क्योंकि आजकल कुछ हिन्दुओं का मुस्लिमों से पानी मांगकर पीना भी बन्द हो चला है, पानी पीते ही मैंने नाई से उनका नाम पूछा. 'सलीम', मुझे जो जानना था, वह मैं समझ चुका था.

कोरोना काल के दौरान 30 मार्च, 2020 को दिल्ली में तब्लीगी जमात के धार्मिक आयोजन में शामिल लोगों में से कुछ लोगों की कोरोना से मौत की ख़बर जैसे ही सामने आई, उसके बाद से पूरे देश में मुसलमानों के खिलाफ फ़ेक न्यूज़ की भरमार हो गई. उन्हें कोरोना का वाहक बोला गया और उनसे नफरत का दौर शुरू हो गया. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ मीडिया आउटलेट्स द्वारा तब्लीगी जमात की घटना को सांप्रदायिक रंग देने की आलोचना की थी, पर तब तक इससे होने वाला नुकसान हो चुका था. उत्तराखंड के हल्द्वानी में मुस्लिम ठेले वाले के साथ दुव्यर्वहार का मामला देशभर में चर्चा में रहा था. अभी भी उत्तराखंड के पुरोला में नफरत की इसी कड़ी से जुड़ी घटना देखने को मिली, जब प्रेम प्रसंग से जुड़े एक मामले में मुस्लिमों को दुकान खाली करने के लिए कहा गया.

मैंने सलीम से पूछा, आपने दुकान में कोई कैलेंडर नही लगाया है, जबकि यह किसी भी नाई की दुकान में आम होता है, क्या आजकल एक दूसरे के प्रति फैलाई जा रही नफरत इसके लिए जिम्मेदार है! जिस वजह से अब हम हिन्दू नाई, हिन्दू मीट की दुकान जैसे नाम देख रहे हैं.

सलीम का जवाब था, "जी, बिल्कुल यही बात है... कैलेंडर देखकर कई लोगों के वापस जाने का डर है, इन आठ सालों में जाने क्या हो गया, जो हम सब एक दूसरे से इतनी दूर हो गए हैं... हिन्दू धर्म खतरे में है, जैसी लाइन पता नहीं कैसे, सुनाई देने लगी है... पहले तो हम सब आपस में बहुत प्रेम के साथ रहते आए हैं, अब भी रहते हैं, पर इंसान अच्छे बुरे होते हैं... आजकल युवाओं में यह नफरत ज्यादा दिख रही है..."

सलीम ने साल 1983 से बाल काटने का काम शुरू किया, वह बताते हैं कि उनके पिता भी यही काम करते थे. 1950 के आसपास उन्होंने देहरादून में यह काम शुरू किया था. मैं हाईस्कूल में था और पापा को खाना पहुंचाने आता था, तो यह काम सीख लिया.

सलीम की दो बेटियां और एक बेटा है. वह कहते हैं कि अब अपने लड़के को इस पेशे में नही लाएंगे, क्योंकि इस काम में अब पहले जैसी कमाई नहीं रह गई है. उन्होंने पुरानी जगह छोड़कर नई जगह दुकान किराये पर ली है. आठ हजार किराया उन्हें अभी अपनी जेब से भरना पड़ रहा है. अब नाई को एक दुकान खोलने के लिए लाखों रुपये चाहिए, पहले की तरह लोग कम आकर्षक दुकानों में नहीं आना चाहते हैं.

उनके पिता ने इसी काम से देहरादून में अपना घर बनाया, पर अब महंगाई इतनी है कि घर का खर्चा भी बड़ी मुश्किल से चल पाता है और फिर बच्चों की पढ़ाई पर खर्च भी है ही. सब्जियों के दाम आसमान छू रहे हैं, दिन भर में कभी कभी नौ-दस ग्राहक तक आ जाते हैं, तो कभी कोई भी नहीं आता. महीने की सात-आठ हज़ार बचत से आजकल क्या होता है.

आमतौर पर माना जाता है कि जिन मुस्लिम परिवारों में ज्यादा कमाई नहीं होती, वहां लड़कियों की शिक्षा पर कम खर्च किया जाता है, लेकिन सलीम के बच्चों की पढ़ाई-लिखाई में सब पैसा लगता है.

मैंने इस विषय में गहराई से पूछा. उन्होंने कहा कि उनकी बड़ी लड़की ने बीकॉम किया और उसकी शादी हो गई है. छोटी अभी बीएससी कर रही है, जब उन्होंने दुकान बदली तो घर की माली हालत बहुत ही खराब हो गई थी. ऐसे वक्त में उनकी लड़की ने उनका सहारा बनकर एक गिफ्ट शॉप में काम करना शुरू किया, जिससे घर संभल गया. अब वह पढ़ाई के साथ काम भी करती है.

भारतीय मुस्लिम महिलाएं हमारे देश के कार्यबल में व्यावहारिक रूप से लगभग अदृश्य हैं. भारत में लगभग सात करोड़ शिक्षित मुस्लिम महिलाएं हैं. यह देखते हुए कि भारत की महिला श्रमबल भागीदारी दर लगातार गिर रही है, शिक्षित मुस्लिम महिलाओं को कार्यबल में लाने से देश की GDP बढ़ सकती है. सलीम की तरह स्वतंत्र विचारों के पिता हों, जो अपनी बेटी को उसके पंख फैलाने से न रोकें और उसे बेटे से कमतर न समझें, तो भारतीय मुस्लिम महिलाओं की स्थिति सुधरने से कोई नही रोक सकता.

हिमांशु जोशी उत्तराखंड से हैं और प्रतिष्ठित उमेश डोभाल स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त हैं. वह कई समाचारपत्रों, पत्रिकाओं और वेब पोर्टलों के लिए लिखते रहे हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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