Jaipur Literature Festival: जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में हिस्सा लेने आए नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी ने अपनी जीवन यात्रा के बारे में कई बातें साझा की हैं. जयपुर में पाँच दिवसीय फेस्टिवल के पहले दिन उनकी आत्मकथा का विमोचन हुआ जिसका शीर्षक 'दियासलाई' है. बाल मज़दूरी के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले प्रख्यात आंदोलनकारी कैलाश सत्यार्थी को वर्ष 2014 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. मध्य प्रदेश के निवासी कैलाश सत्यार्थी पेशे से इलेक्ट्रिकल इंजीनियर थे मगर 1980 में उन्होंने इंजीनियरिंग छोड़ सामाजिक कार्य का रास्ता अपनाया और बचपन बचाओ आंदोलन नामक एक संगठन की स्थापना की. वर्ष 1998 में उन्होंने बाल मज़दूरी के खिलाफ़ एक बड़ा विरोध अभियान शुरू किया था जिसके बाद संयुक्त राष्ट्र की संस्था अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO)ने बच्चों को शोषण से बचाने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाया था.
कैलाश शर्मा कैसे बन गए सत्यार्थी
जयपुर लिट फेस्ट में कैलाश सत्यार्थी ने अपने जीवन की कई बातें साझा कीं. उन्होंने बताया कि उनका नाम कैलाश शर्मा था, लेकिन एक घटना के बाद उन्होंने विरोध में अपना सरनेम बदल कर सत्यार्थी रख लिया. महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानने वाले कैलाश सत्यार्थी ने बताया कि एक बार उन्होंने 2 अक्तूबर को गांधी जयंती के दिन अछूत महिलाओं को खाना बनाकर गांधी जी के विचारों में विश्वास करने वाले लोगों को खिलाने के लिए कहा. लेकिन गांव के किसी भी व्यक्ति ने खाना नहीं खाया और उनके परिवार ने भी इस पर नाराजगी जताई. उन्हें प्रायश्चित करने के लिए प्रयागराज संगम जाकर स्नान करने और 101 ब्राह्मणों के पैर धोने के लिए कहा गया. इसी घटना से दुखी होकर कैलाश सत्यार्थी ने अपने नाम से शर्मा का त्याग कर दिया और कैलाश सत्यार्थी बन गए.
"कल मैं एक दियासलाई की तीली बनकर
— Kailash Satyarthi (@k_satyarthi) January 27, 2025
खुद को परिभाषित करूँगा
तब मोमबत्ती, अगरबत्ती बन
जलने की जरूरत नहीं पड़ेगी मुझे
भले ही मैं रहूँ- न रहूँ,
तुम रहो- न रहो
ढेरों मोमबत्तियाँ और अगरबत्तियाँ जरूर जलेंगी
हमारे बच्चे
रोशनी और खुशबू में पलेंगे।"
किसे पता था कि किशोरावस्था में लिखी… pic.twitter.com/f3Mt4JwcHA
स्कूल के दिनों की वो घटना जब रोने लगे
कैलाश सत्यार्थी ने एनडीटीवी के साथ एक बातचीत में बताया कि इंजीनियरिंग को छोड़ अपना अलग रास्ता बनाने के उनके निर्णय के पीछे कई घटनाएं थीं. इसमें एक घटना उनके बचपन की है जब वो 6 साल के थे. उन्होंने बताया कि एक दिन जब वो स्कूल जा रहे थे तो स्कूल के बाहर एक मोची का बच्चा सब बच्चों को देख रहा था. उन्होंने जब अपने शिक्षक से पूछा तो उन्होंने कहा कि यह एक साधारण बात है और गरीबों के बच्चे अपने माता-पिता की काम में मदद करते हैं. बाद में उन्होंने अपनी मां और दूसरे लोगों से भी यह बात पूछी तो सब ने ऐसा ही जवाब दिया.
कैलाश सत्यार्थी ने कहा,"रोज मुझे बड़ी बेचैनी और गुस्सा सा आता था. एक दिन हिम्मत कर मैंने उस बच्चे और उसके पिता से पूछने चला गया. बच्चा तो शर्मीला था लेकिन उसके पिता उठकर खड़े हुए और हाथ जोड़कर कहा कि बाबू हम लोग तो यही काम करने के लिए पैदा हुए हैं. स्कूल जाने के लिए तो आप लोग होते हैं.मुझे यह जात-पात, छुआछूत वगैरह का कुछ पता नहीं था.तो मैं फूट-फूट कर रोने लगा."
" लेकिन जब मेरे आंसू सूखे तो मेरी आंखों ने एक नई दुनिया देखना शुरू कर दी कि जो माता-पिता कहते हैं, या जो टीचर कहते हैं, या जो पढ़े लिखे लोग कहते हैं, वह जरूरी नहीं कि न्यायपूर्ण हो, सच हो, और सही हो. वह हजारों साल से चली आ रही बुराई भी हो सकती है जो उनके दिमाग में बैठ चुकी है."
उन्होंने कहा कि ये बातें उन्हें परेशान करती रहीं और इंजीनियरिंग कॉलेज में आते-आते उन्हें समझ में आ गया था कि 'मैं अब इंजीनियर नहीं रहूंगा और कुछ साल बाद इस बुराई के खिलाफ लड़ूंगा.'
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