न्याय की धीमी रफ्तार: 1991 में निकाले गए कर्मचारी को सुप्रीम कोर्ट ने दी आंशिक राहत, एक साल पहले निधन

कोर्ट ने कहा कि श्रम न्यायालय की सुनवाई में कंपनी आरोप साबित नहीं कर सकी. कोर्ट ने कहा कि व्यक्ति के परिवार को 50% बैक वेजेस यानी पुरानी सैलरी प्रदान की जाए. 

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Rajasthan News: अक्सर कहा जाता है कि समय पर न्याय ना मिलना भी अन्याय के बराबर है. कभी कभी न्यायिक प्रक्रियाएं बहुत धीमी चलती है. लेकिन कभी इतनी धीमी की जिंदगी भी उससे तेज चलने लगे. इन बातों को चरितार्थ करता एक मामला सुप्रीम कोर्ट में आया. दरअसल, एक आईटीडीसी के कर्मचारी को नौकरी से निकालने के मामले में फैसला आने में 34 साल लग गए. आज सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता के पक्ष में फैसला सुनाया, लेकिन उसका एक साल पहले ही देहांत हो चुका है.

दरअसल, राजस्थान के डी.के. शर्मा को 1991 में कंपनी ने नौकरी से निकाल दिया था. वे आईटीडीसी में काम करते थे. उन्होंने कंपनी के इस फैसले के खिलाफ उन्होंने लेबर कोर्ट में अपील की. लेबर कोर्ट ने 2015 में उन्हें फिर से नौकरी पर रखने और पुरानी सैलरी देने का आदेश दिया.

2020 में सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा था मामला 

आईटीडीसी में हाइकोर्ट में अपील की. सिंगल बेंच ने 100 प्रतिशत पिछली सैलरी देने की बजाय 50 प्रतिशत देने के आदेश दिया. इसके बाद मामला डबल बैंच में गया. राजस्थान हाईकोर्ट की खंडपीठ ने उनकी नौकरी पर बहाली और पुरानी बकाया सैलरी देने के फैसले को रद्द कर दिया. इसके बाद डी के शर्मा ने 2020 में सुप्रीम कोर्ट में अपील की. मामले में सुनवाई के बाद अब होटल को 50% बैक वेजेस देने का निर्देश दिया है.

सुनवाई में कंपनी आरोप साबित नहीं कर सकी

जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस उज्जल भुयन की बेंच ने ये आदेश दिया. कोर्ट ने कहा कि श्रम न्यायालय के समक्ष यह विशेष बयान नहीं हुआ था कि अपीलकर्ता अंतरिम अवधि में कहीं और लाभकारी रूप से नियोजित नहीं था. कोर्ट ने कहा कि श्रम न्यायालय की सुनवाई में कंपनी आरोप साबित नहीं कर सकी. कोर्ट ने कहा कि व्यक्ति के परिवार को 50% बैक वेजेस यानी पुरानी सैलरी प्रदान की जाए. 

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