
राजस्थान की अरावली पर्वतमाला की तीसरी सबसे ऊंची चोटी पर स्थित सेंड माता मंदिर सिर्फ एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि एक प्रसिद्ध पर्यटक केंद्र भी है. यहां भक्तों की हर मनोकामना पूरी होने की गहरी मान्यता है. लसानी, देवगढ़ उपखंड क्षेत्र के प्रमुख शक्ति स्थलों में गिना जाने वाला यह मंदिर, लगभग 362 वर्ष पुराना (इतिहासकार शिवनाथ सिंह के अनुसार वि. सं. 1720/1663 ईस्वी) है, और आदिकाल से मां अंबे की शक्ति का गुणगान कर रहा है.
मां ने ऊंट पर दी थीं दर्शन
इस मंदिर का निर्माण आमेट ठिकाने के राव मानसिंह ने विक्रम संवत 1720 (लगभग 1663 ईस्वी) में करवाया था. मंदिर के नाम के पीछे कहा जाता है कि राव मानसिंह एक बार इन जंगलों में भटक गए थे, और उन्हें रास्ते का ज्ञान नहीं था. तभी वहां ऊंटनी (क्षेत्रीय भाषा में 'सेंड') पर सवार होकर एक महिला प्रकट हुईं, जिन्होंने राव को सही रास्ता दिखाया. रात में, माता अंबिका ने राव मानसिंह को स्वप्न में आदेश दिया कि उनका मंदिर उन्हीं जंगलों की सबसे ऊंची पहाड़ी पर बनवाया जाए. इस दैवीय आदेश पर, राव ने अरावली की मनोरम पहाड़ी पर मंदर बनवाकर मूर्ति स्थापित की. चूंकि माता ने ऊंटनी ('सेंड') पर दर्शन दिए थे, इसलिए उन्हें सेंड माता के नाम से जाना जाने लगा.
मजदूरों को दी गई थीं सोने की मोहर
इतिहासकार शिवनाथ सिंह ने अपनी पुस्तक 'शिवनाथ प्रकाश' में उल्लेख किया है कि इस मंदिर के निर्माण में श्रमिकों को एक-एक पत्थर पहाड़ी पर चढ़ाने के बदले एक-एक सोने की मोहर मेहनताने के तौर पर दी गई थी, जो इसकी भव्यता और महत्व को दर्शाता है. समय-समय पर देवगढ़ ठिकाने के रावों द्वारा भी इसका जीर्णोद्धार और सीढ़ियों का निर्माण करवाया गया.
800 सीढ़ियां चढ़कर मंदिर तक जाना पड़ता है
लगभग 40 फीट ऊंचे इस मंदिर की भव्यता देखते ही बनती है. मंदिर के गर्भ गृह में संगमरमर की सुंदर मूर्ति स्थापित है. भीतरी दीवारों पर कांच की भव्य नक्काशी का काम किया गया है. यह मंदिर समुद्र तल से लगभग 6000 किलोमीटर की ऊंचाई (संभवतः 6000 फीट या लगभग 1.8 किमी की ऊंचाई का संदर्भ) पर बना हुआ है, जो दूर से ही इसकी रमणीय स्थिति का आभास कराता है. पहाड़ी पर मैदान से कुछ दूरी तक सीढ़ियां नहीं बनी हुई हैं, जिसके बाद भक्तों को माता के दर्शन के लिए लगभग 800 सीढ़ियां पार करनी पड़ती हैं.
दूसरे प्रदेश से भी भक्त दर्शन के लिए आते हैं
सेंड माता मंदिर सिर्फ राजस्थान ही नहीं, बल्कि महाराष्ट्र, गुजरात, और मध्य प्रदेश के श्रद्धालुओं के लिए भी एक बड़ा आस्था का केंद्र है. यहां आने वाले भक्त यह दृढ़ विश्वास रखते हैं कि माता के दरबार से उनकी झोली कभी खाली नहीं जाती. नवरात्रि के दौरान यहां भक्तों का जनसैलाब उमड़ता है, और पूरे 9 दिनों तक माता के विभिन्न स्वरूपों का पारंपरिक रूप से श्रृंगार और पूजा-अर्चना की जाती है.
नवरात्रि में यहां विधिवत रूप से जवारा भी बोया जाता है, और विसर्जन किया जाता है, जिससे यहां का नजारा किसी मेले से कम नहीं लगता. एक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि पिछले एक दशक में मंदिर पर तीन बार आकाशीय बिजली गिरी, लेकिन मां की प्रतिमा पर कोई असर नहीं हुआ, जिसे भक्त दैवीय चमत्कार मानते हैं.
मंदिर से चित्तौड़गढ़ का किला भी नजर आता है
यह मंदिर एक शानदार पर्यटन स्थल भी है. यहां से 100 किलोमीटर के दायरे में बसे गांव एक टापू की तरह दिखाई देते हैं. मौसम साफ होने पर यहां से लगभग 170 किलोमीटर दूर स्थित चित्तौड़गढ़ का किला भी नजर आता है, जो दूर-दराज के देशी और विदेशी पर्यटकों को भी आकर्षित करता है.
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