राखी के बाद राजस्थान में शुरू हुई गवरी, 40 दिन तक दिखेगी दुनिया के प्राचीन नृत्य की झलक

Udaipur News: लोक संस्कृति के जानकार 40 दिन चलने वाले 'गवरी' को दुनिया के पुरानों नृत्यों में से एक बताते हैं.

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गवरी में कई पात्रों का अभिनय भी शामिल होता है.

Gavri of the mewar bhils: राखी के अगले दिन यानी रविवार (10 अगस्त) से भील समुदाय का "गवरी" नृत्य शुरू हो गया है. दुनिया की प्राचीन पवर्तमालाओं में गिनी जानेवाली अरावली की गोद में बसे मेवाड़-वागड़ अंचल में भील समुदाय गवरी खेलता है, जिसे लोक संस्कृति के जानकार दुनिया के पुराने नृत्यों में से एक बताते हैं. इसमें नाच, गान और वादन तीनों ही रूप नजर आते हैं. गवरी के प्रमुख पात्रों में बूडिया ( भुड़िया, भूड़लिया, वयोवृद्ध या कलजयी), लज्जा और धज्जा राई (इच्छा और क्रिया रूप शक्तियां) शामिल हैं. ये पात्र अपने शरीर के कंधे, सीना, घुटने, पांव को भी आग के ऊपर से निकालता है. गवरी को सिर्फ नृत्याभिनय के तौर पर नहीं देखा जाता है, बल्कि यह तपस्या भी है. इसमें कलाकार 40 दिन तक नहाते नहीं है. दिन में एक बार भोजन और हरी सब्जी, मांस-मदिरा के सेवन से भी दूर रहते हैं. कलाकार जमीन पर सोने जैसे नियमों का पालन करते हैं. 

मान्यता- पवित्रता की अग्निपरीक्षा है गवरी

लोक संस्कृति और इतिहास के जानकार डॉ. श्रीकृष्ण 'जुगनू' के अनुसार, मान्यता है कि जब कलाकार अग्नि का करतब दिखाते हैं तो गवरी की आग उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाती है, जिन्होंने नियमों की पालना की हो. लेकिन नियमों की पालना नहीं होने पर आग उसे नुकसान पहुंचाती है. इस तरह गवरी के सदस्य इसे पवित्रता की अग्निपरीक्षा से जोड़ते हैं.

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गवरी कलाकार के पीछे उसकी मां और पत्नी 40 दिन व्रतानुष्ठान करती हैं. दोपहर से संध्या तक मिट्टी के मांदल और कांसे की थाली की लयकारी पर घुंघरू घमकते हैं और गावणी अरथावणी के साथ खेल शुरू और समाप्त होता है. जब भी नया खेल आता है, परदे के पीछे आता है और फिर मंडल में नर्तन बिलोवन के साथ पर्दा हटा दिया जाता है. कुछ पात्र छाता लेकर उसकी आड़ बनाते हुए भी आते हैं, जैसे : बंजारा, हठिया, भियावड़, खड़लिया, कालूकीर.

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ऐसे होता है गवरी का नृत्य 

आदिवासी लोकनृत्य गवरी में भाग लेने वाले कलाकार अगले 40 दिनों तक अपने आप को पवित्र साबित करने के लिए अग्निपरीक्षा से गुजरेंगे, इसे गवरी में माताजी का 'होला डालना' कहते हैं. इस परीक्षा में लौठे पर आटे की लोई से एक बड़ा दीपक बनाकर उसके चारों तरफ से बड़ी रूई को घी में भिगोकर जलाया जाता है, फिर गवरी में भाग लेने वाला खास सदस्य (भोपा, राई और बुढ़िया सहित करीब 10 लोग) अपने मुंह और दाढ़ी को आग की लपटों के ऊपर से निकाल कर उसे गिराता है.  

नृत्य कला के विकास की कहानी है गवरी

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नृत्य कला के विकास और गवरी के संबंध पर डॉ. 'जुगनू' कहते हैं, "नृत्य के विकास में 'शिकार कला' की बड़ी भूमिका रही है. फिर आहार- जैसे मधु (शहद) संचय, मछली मारना और जंगली भैंसों के संहार, खेती के विकास और वृक्षों के संरक्षण के लिए जनजातिय सामूहिक प्रयासों ने भी नृत्य और उसके अभिनय पक्ष को मजबूत किया है. ये प्रमाण मध्य भारत के शैल चित्रों से लेकर वर्तमान में अभिनीत होने वाले जनजातीय गवरी नृत्य में प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं."

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