फ़िज़ूलखर्ची: आख़िर, अफ़सरों को भी अखरी?

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Dr. Shipra Mathur

राजस्थान के प्रमुख शासन सचिव स्तर के एक आला अफ़सर ने अपना 80 फ़ीसदी वक़्त बेमतलब के काम में खर्च होने की बात सोशल मीडिया पर लिखी. उस पोस्ट पर आई प्रतिक्रियाओं को लोग पढ़ते गए और आगे बढ़ाते गए. एनडीटीवी ने अपनी शाम की ‘डिबेट' में इस मुद्दे को उठाया, तो अपना पक्ष भी रखने का मौक़ा मिला. जब अफ़सर शीर्ष पद पर रहते हुए, तंत्र की ख़ामियाँ बताते हैं, तो पहले तो माथा ठनकता है. किस मंशा से, किसे निशाना बनाकर कही, और रास्ता क्या सुझाया? 

उन्होंने जो सहा वही कहा होगा, मगर बात उनकी ज़्यादा सुनी जानी चाहिए, जो तंत्र की इस फ़िज़ूलखर्ची की मार सह रहे हैं. वो आम जनता जो अफ़सरों के ‘असल' काम नहीं कर पाने का ख़ामियाज़ा हर रोज़ भुगतती है. वो बेबस लोग जो हर रोज़ अधिकारियों के दफ़्तरों के आगे चक्कर काटते हैं. अपने जायज़ हक़ के लिए, उनके सामने हाथा-जोड़ी करते हैं. इसीलिए, जन-पक्ष की बात ये है कि अब नौकरशाही की जवाबदेही का आकलन बेहद ज़रूरी है.

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भारतीय प्रशासनिक सेवाओं को ‘स्टील फ़्रेम' कहा था सरदार पटेल ने. जो देश को बाँधे रखने के लिए, बिना निजी स्वार्थ के, बिना पक्षपात, बिना भ्रष्ट आचरण और बिना किसी इनाम और अपेक्षा के काम करेंगे. आज इसी नौकरशाही को अपने ही तंत्र से ढेरों शिकायत है और, आम लोगों को इन अफसरों के आचरण और तौर तरीकों से.

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ये ‘स्टील फ्रेम' आज किसकी हिफ़ाज़त में है, ये भी सबको मालूम है और किसके लिए हरकत में रहता है, ये भी. व्यवस्था में रहते हुए, आपको जो ख़ामियाँ नज़र आती हैं, उन पर आवाज़ उठाने के साथ ही उसका तोड़ निकालना बड़ी क्रांति होती है. लेकिन, ग़लत के ख़िलाफ विद्रोह एक दो दिन का नहीं, हर कदम पर होता है. भरपूर बेबाकी, थोड़ी गुस्ताखी और अपने कर्त्तव्य का पूरा निर्वाह, हमारे समाज में न्याय की यही कसौटी होनी चाहिए. 

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टीएन शेषण ने उठाए थे सवाल

देश के मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टीएन शेषण की लिखी किताब है ‘थ्रू द ब्रोकन ग्लास'. एक-दो शिकायती पत्र या पोस्ट लिखकर चर्चा में रहने की बजाय नियम-कायदों में कड़ाई वाले प्रशासक रहे वो. बाद के सालों में जब योजना आयोग में नियुक्ति हुई, तब तक भी उन्होंने, तय समय से ज़्यादा खिंचने वाली बैठकों पर ऐतराज़ जताते हुए, अपने केबिन से घड़ी निकालकर एक नोट, आयोग के सचिव को लिख भेजा कि ‘जहाँ कुछ काम समय पर नहीं होता वहाँ घड़ी की ज़रूरत ही नहीं.' तंत्र की जड़ता के ख़िलाफ़ और पद की स्वायत्तता के लिए वो हमेशा जूझते रहे.

‘योजना आयोग' को उन्होंने भारत सरकार के सबसे ‘यूज़लेस संस्थानों' में अव्वल माना. शुरुआती में पब्लिक ट्रांसपोर्ट विभाग में रहते हुए, ड्राइवर्स और कंडक्टर्स की समस्या समझने के लिए उन्होंने पहले बस चलाने का लाइसेंस लिया, और ड्राइवर और कंडक्टर दोनों भूमिका निभाकर उनका पक्ष समझा, ताकि उनके लिए फैसले, तर्कसंगत हों. 

आज तो पूरा शासन तंत्र, जनता पर नियंत्रण, दण्ड और लेन-देन में जकड़ा है. यहाँ, जन-सुनवाई और राहत की बातें सिर्फ़ रस्मी हैं. ‘प्रशासन जनता के द्वार' जैसे अभियान जनता की आँखों में धूल झोंकने से ज़्यादा कुछ नहीं. प्रशासन तो हर वक्त जनता के दरवाज़े पर ही होना चाहिए, ये कोई एहसान नहीं है लोगों पर. 

लोगों के काम अटकाना, टरकाना, उन्हें टालना और अपने मातहत काम करने वालों से घण्टों वीडियो कॉन्फ़्रेसिंग में हिसाब-किताब लेते रहना, ये सब फ़िज़ूल तरीका है. उन्हीं सूचनाओं के उलटफेर में काबिल कर्मचारियों को उलझाए रखना. घंटों अपने केबिन के बाहर इंतज़ार करवाना और चक्कर कटवाना. ये भारत की नौकरशाही की बड़ी तस्वीर है, जिसके भुक्तभोगी असंख्य लोग हैं. देर कहीं है तो बस जनता की सुनवाई में. देश की अदालतें और अफसर, अपनी छुट्टियों और भत्तों पर फैसले लेने में कभी देरी नहीं करते. लोकतंत्र में असल राज तो इनका ही चल रहा है. 

बेवजह बैठकों में शामिल होने, विभाग संबंधी ख़बरों पर जवाब देते फिरने, जनता के सवाल और अदालतों की पेशी में जाने, और रिपोर्ट्स इकट्ठी करते रहने के झंझट, अफ़सरों को अखर रहे हैं, तो व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त का बीड़ा है किसका? 

अमेरिका के काउंटी दफ्तरों तक में वहाँ नियुक्त शीर्ष अधिकारियों की यात्रा, रहने, खाने समेत सारे खर्च और उनकी बैठकों में उपस्थिति सहित सब हिसाब, उनके आधिकारिक पोर्टल पर दर्ज रहता है. जनता जब चाहे उसे जाँच सकती है, सवाल पूछ सकती है. हालाँकि, ये वही देश है जहाँ दुनिया भर के लोगों के निगरानी रखने और निजी सूचनाएँ इकट्ठा करने का खुफिया प्रोग्राम चला. इसका खुलासा करने वाला स्नोडेन जैसा बुद्धिमान नागरिक, अमेरिका को कभी रास नहीं आया.

लोगों के काम अटकाना, टरकाना, उन्हें टालना और अपने मातहत काम करने वालों से घण्टों वीडियो कॉन्फ़्रेसिंग में हिसाब-किताब लेते रहना, ये सब फ़िज़ूल तरीका है. उन्हीं सूचनाओं के उलटफेर में काबिल कर्मचारियों को उलझाए रखना. घंटों अपने केबिन के बाहर इंतज़ार करवाना और चक्कर कटवाना. ये भारत की नौकरशाही की बड़ी तस्वीर है, जिसके भुक्तभोगी असंख्य लोग हैं.

अफ़सरों की शिकायतें

हमारी ज़मीन पर, नए बीज बोकर, पुराने को चुनौती देने और नई व्यवस्था तैयार करने की बात, पूरे दम से नहीं हो रही. सबके पास सिर्फ़ शिकायतें हैं और यहाँ तो बात रोज़मर्रा के कामों की है, जिन्हें अफ़सरों ने अर्ज़ी और पर्ची में फँसाकर रख दिया है.

देश के रक्षा मंत्रालय में प्रमुख सलाहकार रहे लेफ्टिनेंट जनरल विनोद खंडारे, देश के संसाधनों की बर्बादी लिए ‘कमजोर गवर्नेंस', कानूनों की अवहेलना और कमतरी का ज़िक्र करते सुनाई दिए. उन्होंने प्रशासनिक और न्यायिक सुधार की बात भी उठाई है. उनका ये कहना सही है कि सुरक्षित और आत्मनिर्भर भारत के लिए ऐसे नौकरशाह चाहिए जो ‘विकसित भारत' के लक्ष्यों के लिए समर्पित हों. नौकरशाही से ये अपेक्षा रखना भी जायज़ है कि वो सिर्फ़ प्रबंधक नहीं बल्कि भारत के विकास को गति देने वाले नायक बनें. 

अफ़सरों का पक्ष है कि उनका संख्या बल कम है, और नीचे की कड़ी में भी सरकारी भर्तियाँ नाकाफ़ी हैं. इसीलिए अफ़सर, इतनी समितियों, इतने बेमतलब के काम से लदे रहते हैं, कि असल काम के लिए वक्त ही नहीं मिलता. एक महकमे से दूसरे को जल्दी-जल्दी लाँघते हुए, अलग-अलग ज़िम्मेदारी उठाने में हर विषय को गहराई में जान लेना आसान नहीं. इसीलिए ज़्यादातर अफ़सर को हर क्षेत्र की ऊपरी जानकारी तो होती है लेकिन विषय में माहिर तो नहीं हो पाते. 

एआई से बनाई गई प्रतीकात्मक तस्वीर
Photo Credit: AI Image

‘डोमेन-विशेषज्ञ' बनने के लिए तो गहन प्रशिक्षण और कड़ा अनुभव ही काम का होता है. प्रशासनिक सुधार की बात करने वालों ने पहले भी ये सुझाव रखे हैं कि अधिकारियों को दो साल से पहले, बिना वजह पद से ना हटाया जाये. लेकिन पद पर टिके रहने से ज़्यादा ज़रूरी, काम की दक्षता ही है. 

नेताओं और जनता को गुमराह करने की बजाय, जनहित के काम से देश को कैसे राज़ी रखा जाए, ये भी दुविधा है अफसरों के सामने. देश की सबसे कठिन परीक्षा देकर, प्रशासनिक सेवा में आए अधिकारियों को आज भी, बुद्धि और राय देने, वही संगठन और समूह बुलाये जाते हैं, जिनकी अगुवाई इनकी ही बिरादरी के लोग कर रहे हैं. क्योंकि अंदर की सारी बातें और एक-एक आहट उन्हें सुनाई देती हैं. 

विदेशी कंसल्टिंग कंपनियों या विदेशी आकाओं के हाथ खेल रहे संगठनों के हाथ कमान देकर, देश की प्रतिभाओं और संसाधनों का शोषण होते देखना, गंभीर बात है. भारत के हितों से जुड़े ‘डोमेन' विशेषज्ञों की सरकारी तंत्र में जगह ठीक से बनाई जाये, ये नीतिगत फैसला प्राथमिकता में आयेगा, इसकी कोई सूरत अभी नहीं दिख रही. 

साल 1997 में देश में ‘सिटीजन चार्टर' लाया गया था, ताकि जनता की ज़रूरतें और हक़ केंद्र में रहें. उनके काम समय पर, और बिना किसी दलाल के हों. भारत सरकार ने पिछले दस सालों में ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस' की सोच को सामने रखा, ई-गवर्नेंस पर ज़ोर दिया, कई योजनाओं को सीधे बैंक खातों से जोड़कर, शासन और जनता के बीच की खाई पाटने की कोशिश की. सरकार कम से कम दखल करने की मंशा जता चुकी है, लेकिन तंत्र के मुस्तैद हुए बगैर इसके कोई मायने नहीं. 

एआई से बनाई गई प्रतीकात्मक तस्वीर
Photo Credit: AI Image

साल 2018 में भारत सरकार ने दस ऐसे क्षेत्रों की पहचान की, जहाँ विषय के विशेषज्ञ और उत्कृष्ट लोगों को शीर्ष प्रशासनिक कमान दी जाए. इसे ‘लेटरल एंट्री' कहा गया, जिसके नतीजे देखने को मिलने लगे थे. लेकिन ये बात प्रशासनिक सेवा के अफ़सरों को रास नहीं आई कि उनकी अहमियत कम हो और उन्हें कोई बताए कि कोई काम कैसे और बेहतर होगा. सरकार की कई महत्वाकांक्षी परियोजनाएं, अहम के इसी टकराव की भेंट चढ़ गई. 

साल 2015 में ‘प्रगति' नाम की एक व्यवस्था भी केंद्र में बनी. मकसद था, प्रो एक्टिव गवर्नेंस एंड टाइमली इम्प्लीमेंटेशन. इस त्रिस्तरीय व्यवस्था में प्रधानमंत्री कार्यालय, केंद्रीय सचिव और राज्यों के मुख्य सचिव शामिल किए गए. आकड़ा कहता है कि अब तक बेहद ज़रूरी करीब 340 परियोजनाएं, ‘प्रगति' के मार्फ़त ही आगे बढ़ीं. साल 2021 में प्रशासन को और गतिशील बनाने के लिए प्रधानमंत्री ‘गतिशक्ति' भी अमल में आई, ताकि निर्माण कार्यों में फ़ैसले जल्दी हों और रुकावटें दूर हों. गुजरात के सुशासन मॉडल में ‘डैशबोर्ड' से काम की प्रगति और  निगरानी बड़ा हिस्सा था. सभी केंद्रीय मंत्रालयों की घोषणाओं और कामकाज की ‘ई-समीक्षा' भी शासन प्रक्रिया का हिस्सा है, जिससे अधिकारियों पर काम को समय से पूरा करने का दबाव बना है.

लेकिन, बेवजह के काम ख़ुद ओढ़कर, मूल काम से परहेज करने वाले अधिकारी कैसे पूरे तंत्र का फ़ायदा, अपने सगे-संबंधियों और जाति बंधुओं को पहुँचाते हैं, ये कोई छिपी बात नहीं. राजस्थान में कांग्रेस के मुख्यमंत्री काल में युवाओं के लिए शुरू हुई ‘इंटर्नशिप योजना' में करीब 50 फीसदी युवा, अधिकारियों और नेताओं के रिश्तेदार निकले. 

पंचायतों में होने वाले टेंडर का एक अध्ययन करें, तो वहाँ भी करीब-क़रीब सभी टेंडर, अधिकारियों और नेताओं की पहचान वालों को मिलने का खुलासा हर बार हुआ है. उसके बाद भी किसी का कुछ नहीं बिगड़ता. टूटते ब्रिज, धँसी सड़कें, जर्जर इमारतें, बिजली के खुले तार, सरकारी स्कूलों की कमजोर नींव और लाइलाज अस्पताल, सब हमारी दुखती रग बने हुए हैं. भ्रष्ट और नकारा तंत्र, मुखौटा बदल-बदलकर वहीं खड़ा है. सरकारी पैसों की लूट, अपराधियों और अफसरों की साँठ-गाँठ, और जनता को दोयम दर्जे का नागरिक मानने की मानसिकता ज्यों कि त्यों है. 

बेवजह के काम ख़ुद ओढ़कर, मूल काम से परहेज करने वाले अधिकारी कैसे पूरे तंत्र का फ़ायदा, अपने सगे-संबंधियों और जाति बंधुओं को पहुँचाते हैं, ये कोई छिपी बात नहीं. राजस्थान में कांग्रेस के मुख्यमंत्री काल में युवाओं के लिए शुरू हुई ‘इंटर्नशिप योजना' में करीब 50 फीसदी युवा, अधिकारियों और नेताओं के रिश्तेदार निकले.

प्रशासनिक सुधार की आवश्यकता

प्रशासनिक सेवा की पहली सीढ़ी पर ‘कलेक्टर' का पद होता है. ब्रिटिश राज में इनका काम ही ‘कर वसूली' और सबको ‘काबू' में करना था. आज तो भूमिका वसूलने की नहीं, जन-कल्याण की है. तो कलेक्टर जैसे पदनामों से भी छुटकारा पाना चाहिए. आज के अफ़सरों को, सरकार की योजनाओं को अंजाम तक ले जाने और जनता की परेशानियाँ दूर करने के साथ, भारत की तरक्की के रास्ते भी खोलने हैं. 

इसलिए ज़रूरी है कि उत्कृष्टता, परिपक्वता और समयबद्धता, मूल ध्येय रहे. देश में अलग-अलग समय पर प्रशासनिक सुधार आयोगों और समितियों ने अधिकारियों को अनुशासित और उपयोगी बनाये रखने की कई अनुशंसाएँ की हैं. बीसवीं सदी में तैयार और उन्नीसवीं सदी वाली सोच से पोषित व्यवस्था, इक्कीसवीं सदी से आख़िर कैसे तालमेल बैठाए? 

पूर्व अधिकारी नरेश चंद्र सक्सेना ने अपने एक आकलन में लिखा है, कि प्रशासनिक सेवा में रहते हुए - अनभिज्ञता और अहंकार दोनों में बढ़ोतरी होती है. बात ये भी आई कि जो आँकडे और सूचनाएं अधिकारियों के पास आती हैं, वो सिर्फ सदन में पूछे गए जवाबों के लिए इस्तेमाल होती हैं. उनका उपयोग ‘डेटा' और ‘समीक्षा' आधारित सुधार और दूरगामी फैसलों के लिए कभी नहीं होता.

काग़ज़ पर तैयार योजना और उनके वित्तीय नियोजन में भी कोई तालमेल नहीं है. काम के जिस ढर्रे को ‘सरकारी' कहने का अर्थ ही ये माना जा चुका है कि वहाँ आम आदमी को सामान्य काम-काज तक के लिए धक्के खाने होंगे. इस प्रवृत्ति से कैसे छुटकारा मिले, ये बहस बड़ी है. तकनीक इसे बहुत आसान बना सकती है, बशर्ते उसके लिए काबिल लोगों की सलाह ली जाये. 

अफ़सरों का दर्द तो सबको सुनाई दिया, लेकिन जनता की तकलीफ़ों के जल्द निपटारे लिए ‘सुशासन' क़ी बड़ी क़वायद अभी बाक़ी है.क़ाबिल और जनसेवा वाले स्वार्थ से परे रहने वाले गिनती के अफ़सर भी अपवाद के तौर पर तंत्र में हैं. कहीं दर-बदर, तो कहीं हाशिये पर. वक्त और उसूल दोनों पर टिके रहने वालों को सर-माथे बैठायें, ये समाज और सरकार दोनों का ज़िम्मा है.

परिचयः डॉ. क्षिप्रा माथुर जयपुर स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं जो मीडिया और अध्यापन में तीन दशकों से सक्रिय हैं. अपने लेखन और वक्तव्यों में उन्होंने विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक विषयों को उठाया है, जिनमें समाज के उपेक्षित तबकों और उनके मुद्दों की विशेष रूप से चर्चा की गई है. भारत के चुनाव आयोग ने उन्हें नेशनल मीडिया अवॉर्ड से सम्मानित किया है. 

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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