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सरकारी स्कूलों को पछाड़ने की साज़िश

Dr. Shipra Mathur
  • विचार,
  • Updated:
    मई 23, 2025 16:31 pm IST
    • Published On मई 23, 2025 15:29 pm IST
    • Last Updated On मई 23, 2025 16:31 pm IST
सरकारी स्कूलों को पछाड़ने की साज़िश

सीमा से सटे इलाक़ों में सरकारी स्कूलों की दशा और प्रदेश भर में, कई सरकारी स्कूल बंद किए जाने पर, जाने कितनी ही बार कहना और लिखना रहा है. इस मुद्दे को लेकर दशक भर पहले ज़मीनी आंदोलन भी हमने छेड़े हैं. जिसकी धमक ये थी कि अच्छे सरकारी स्कूलों में दाखिले खूब बढ़े और स्कूलों की मदद करने लोग आगे आए. समुदाय भी, सरकारी स्कूलों और शिक्षक की भूमिका को लेकर सचेत हुए. लेकिन, आंदोलन की कमान, आगे के लोगों के थामे बगैर, सारे पिछले काम ‘फिसलपट्टी' जैसे हो जाते हैं, जिस पर चढ़ने में कितना दम लगा ये कोई याद नहीं रखता, और आगे सबके हाथ आती है, सिर्फ़ फिसलन. 

देश की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लक्ष्य बड़े हैं और पढ़ाई का मज़बूत होना, देश के दमदार विकास की धुरी है. इसलिए भी सरकारी स्कूलों की बात लगातार दोहराने की है. हमारी आबादी के 50% से ज़्यादा बच्चे, सरकारी व्यवस्था से ही जुड़े हैं. और सरकारी स्कूलों की पहुँच, गाँव-ढाणी तक है. मगर, जब सर्वे में बच्चों की संख्या में गिरावट का आंकड़ा आता है, तो फ़िक्र होती है, कि ये बच्चे स्कूल से गए कहाँ? और कहीं ये, हमारी शिक्षा व्यवस्था में धीरे-धीरे हो रही टूटन की चेतावनी तो नहीं? 

पाकिस्तान से बढ़ते तनाव के बीच, नागरिक-फौज सहित बड़ों और बच्चों सभी को, सुरक्षा, समाधान और निर्माण सबके लिए तैयार करना बेहद ज़रूरी है. अभी, हाल ये है कि राजस्थान के बॉर्डर से नशे का कारोबार और ड्रोन से तस्करी लगातार जारी है. नई पीढ़ी और बच्चों को नशे की लत लगाकर, बरगलाकर, परिवारों को बर्बाद करने में लगे ये लोग, अदृश्य दुश्मन हैं. देश के सभी सीमांत इलाकों में आतंकवाद की यही सूरत है.

हालांकि, पुलिस और सशस्त्र बलों के गहन प्रशिक्षण में बड़ा बदलाव ये है, कि नशे का सेवन करने वालों को अपराधी की तरह नहीं, रोगी के तौर पर देखा जाये. मगर, नशा कारोबारियों पर एनडीपीसी कानून के तहत भरपूर सख्ती की जाये. ये संदर्भ इसलिए याद रहने के हैं, कि जहाँ-जहाँ हमारी दरारें गहरी हैं, वहाँ-वहाँ ख़तरे ज़्यादा बड़े हैं. जिस तरह हमारे दूर-दराज और देहात के इलाक़े, राष्ट्र विरोधी ताकतों के निशाने पर हैं, हमारी निगाह भी हमारे बच्चों पर टिकी रहना ज़रूरी है. आने वाले वक्त की सबसे बड़ी झलक होती है, आज के बच्चों की तैयारी, उन्हें संवारने और सहलाने के लिए, हमारे हाथों हो रहे काम.

सरकारी स्कूलों में घट रही बच्चों की संख्या 

पहलगाम आतंकी घटना के बाद, बाड़मेर के इलाके के एक निजी स्कूल के जयदेव नाम के एक बच्चे के वीडियो सोशल मीडिया पर काफ़ी सराहे गए. फौजी बनने के उसके जुनून और घर परिवार के अच्छे संस्कार दिखाते इस वीडियो में दूसरी कक्षा के इस बच्चे का भोलापन भी सबको भाया. ये बच्चा, बाड़मेर सीमा पर पाकिस्तान के हमले की वजह से स्कूल की छुट्टी होने और सीमा पार के ‘गुंडों' की धुनाई होने पर, ख़ुशी जताता है.

उसे सुनकर लगता है, देश के बच्चे इतने ही भोले, इतने ही सच्चे, आखों में इतनी ही चमक वाले रहने चाहिए. अच्छे शिक्षकों, अच्छी सुविधाओं और घर के बुजुर्गों से उसकी संगत की वजह से जयदेव जैसे बच्चे हमें आश्वस्त करते हैं. जबकि, देश भर के सरकारी स्कूलों में क्या कुछ चल रहा है, और पढ़ाई का क्या हाल है, ये किसे पता? इसकी खैर खबर, ताज़ा ‘यूडाइस' की रिपोर्ट से या फिर ‘प्रधानमंत्री पोषण' योजना में भोजन पाने वाले बच्चों की संख्या से लग रही है. पिछले साल, सरकारी स्कूलों में डेढ़ करोड़ बच्चे कम हुए और इस साल तो मामला और गंभीर हुआ है. 

23 राज्यों में बच्चों ने सरकारी स्कूल छोड़ दिया है. इनमें से राजस्थान सहित 8 राज्य ऐसे हैं जहाँ ये घटत, एक लाख से ज़्यादा की है. यानी लाखों बच्चे, स्कूल ‘छोड़' चले. उत्तर प्रदेश (21.83 लाख), बिहार (6.14 लाख), राजस्थान (5.63 लाख) और पश्चिम बंगाल (4.01 लाख) और कर्नाटक (2.15 लाख), की ये स्थिति खतरे की घंटी है. असम, तमिलनाडु, दिल्ली, जम्मू-कश्मीर, और गुजरात भी इसी लिस्ट में हैं. 

नीति निर्माता, जब 33 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में ‘पोषण' अभियान का आकलन और बजट पर चर्चा करने बैठे, तो आंखें खुलीं. पता चला कि 23 राज्यों में बच्चों ने सरकारी स्कूल छोड़ दिया है. इनमें से राजस्थान सहित 8 राज्य ऐसे हैं जहाँ ये घटत, एक लाख से ज़्यादा की है. यानी लाखों बच्चे, स्कूल ‘छोड़' चले. उत्तर प्रदेश (21.83 लाख), बिहार (6.14 लाख), राजस्थान (5.63 लाख) और पश्चिम बंगाल (4.01 लाख) और कर्नाटक (2.15 लाख), की ये स्थिति खतरे की घंटी है. असम, तमिलनाडु, दिल्ली, जम्मू-कश्मीर, और गुजरात भी इसी लिस्ट में हैं. 

सवाल ये है कि जो बच्चे सरकारी स्कूल छोड़कर निकले, वो गए कहाँ? उन्होंने पढ़ाई ही छोड़ दी? वो माता पिता के जीवन संघर्ष में झोंक दिए गए? या उन्हें सरकारी की बजाय निजी स्कूलों में प्रवेश लेना ठीक लगा? या फिर बात ये है कि सरकारी स्कूलों में नामांकन ज़्यादा बताने का पहले से चला आ रहा फ़र्ज़ीवाडा, अब तक जारी था. पोषण सर्वे ने सिर्फ़ गणना के अपने पैमाने बदलकर, सबकी पोल खोल दी है? अब, सफ़ाई भी सरकार को ख़ुद ही देनी होगी. हकीकत का सामना कर लेना और सुध लेना भी दिलेरी का काम है. 

पनप रहे हैं निजी स्कूल

भारत सरकार की ‘पोषण' योजना में शामिल बच्चों की घटी संख्या के बहाने, देश में और कई खुलासों की ज़रूरत है. स्कूल की दशा बताने में जिन आंकड़ों का पिछली बार हमने सहारा लिया था, उसमें पश्चिमी क्षेत्र के सरकारी स्कूलों में करीब 28 फ़ीसदी खाली पड़े पदों की बात थी. इस मामले में सरकार के रवैये पर विधानसभा में सवाल तो लगते हैं, दिशा नज़र नहीं आती. सरकारी स्कूलों और वहाँ के बच्चों से किसी को क्या लेना देना? ये मज़हब का मामला नहीं है, वोट का मामला नहीं है, विदेशी फंडिंग का भी मामला नहीं है. यहाँ, पढ़ाई छूटने पर किसी के आँसू हैं भी, तो वो अपनी रोज़ी-रोटी की व्यवस्था में फँसे, घर के चूल्हे, या काम में खपते हुए ग़रीब माता-पिता के हैं, जिसे देखकर पिघलने की किसे फुर्सत है? 

नेता और व्यवस्था तो जनता से दबाव में काम करवाने की आदी हैं. उन पर दबाव कौन बनायेगा? ये शर्म और दुख दोनों की बात है कि जहाँ हमारा, सबसे ज़्यादा ध्यान होना चाहिए, वही मुद्दे हमसे छूटे हुए हैं. सरकारी स्कूलों में बच्चों की घटी संख्या, एक दिन की अख़बार की सुर्ख़ी से परे, बेहद गंभीर बात है. ये पूरी तरह सच है कि जैसे ही कोई परिवार अपने आपको सक्षम पाता है, वो बच्चे को निजी स्कूल में ही भर्ती करवाता है.

यदि, बच्चों की सरकारी स्कूल में कमी, कुछ दहाई, कुछ सैंकड़ा, कुछ हज़ार बच्चों की भी पढ़ाई छूटने की घटना है, तो भी ये बड़ी आपदा ही है. यहाँ संख्या नहीं, एक एक मासूम चेहरे हैं, किसी घर का चिराग है. जिसमें से हर एक का हक़ है, अच्छी और सस्ती शिक्षा. इनमें से, हर एक भावी भारत की उजली तस्वीर बने, ये लक्ष्य हम सबका है, जिसमें सरकार-समाज-संगठन, सब एक ही इकाई हैं. 

सरकार की इच्छाशक्ति, उसकी योजनाओं से झलकती है. उसमें कोई कमी नहीं है, बात उसे ज़मीन तक जोड़ने की है, जिसका ज़िम्मा विभागीय तंत्र का है. पिछले सालों में कुछ अच्छा भी सुनने को मिला है. साल 2024-25 के इकोनॉमिक सर्वे के मुताबिक भारत में 14.72 लाख स्कूल हैं, जिनमें 24.8 करोड़ बच्चे पढ़ते हैं और 98 लाख शिक्षक हैं. अब 57.2% स्कूलों में कंप्यूटर हैं, 53% में इंटरनेट है. 

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सरकारी स्कूलों में दाखिलों के आंकड़े बेहतर होने के बाद एक बार फिर चिंता पैदा कर रहे हैं
Photo Credit: ANI

पिछले साल, सरकारी बयान आया कि, इस वजह से स्कूलों से ‘ड्रॉप' होने की रफ़्तार में काफ़ी कमी है. प्राथमिक कक्षाओं से 1.9%, उच्च प्राथमिक से 5.2% और सेकेंडरी लेवल से 14.1% बच्चे हर साल पढ़ाई छोड़ रहे हैं. ये सर्वे, पहले के मुक़ाबले स्कूलों की बेहतरी दिखा रहे थे. मगर हाल में नज़र आ रही गिरावट ने ये सारी बात उलट दी. अब ये भी टटोला जाए कि निजी स्कूलों का पनपना, गुणवत्ता पर गौर करने की वजह से है या सरकारी स्कूलों की बदहाली का नतीजा है? बात तो ये भी है, कि गाँव-गाँव में पनपे मनमानी फीस और दिखावे वाले निजी स्कूलों में किसके निवेश हैं? और सरकारी स्कूल कमजोर बने रहें, इसमें किसकी स्वार्थ-सिद्धि है? 

ये भी सच है कि सरकार की पूरी व्यवस्था में भ्रष्टाचार और कामचोरी का दीमक लगा है. शिक्षकों के चयन से लेकर, उनकी नियुक्ति और स्थानांतरण तक का खेल सब जानते हैं. इस व्यवस्था से चुनकर आए, ऐसे शिक्षकों की प्रतिबद्धताएं क्या होंगी? पूछकर देखिए कभी, गरीब परिवार सिर्फ मजबूरी में ही सरकारी स्कूल में भेजते हैं बच्चे को. पढ़ाने से जी चुराते, शराब पीकर स्कूल आते और बुरे बर्ताव वाले शिक्षकों से सामना होने  का एक अनुभव, हाल ही उत्तराखंड में रह रहे एक मित्र से सुना. ये सब व्यवस्था को नहीं दिखता, इसकी शिकायत नहीं होती, कोई सबक़ नहीं सीखे जाते? 

भारत की छवि ख़राब करने की साज़िशों में हमारी बुनियादी शिक्षा व्यवस्था पर वार करना शामिल रहा है. आज भी देश में, विदेशी ताकतों और हितों से पली-बढ़ी संस्थाएं हैं, जिन्हें सरकारी स्कूलों की ख़राब दशा में अवसर दिखाई देते हैं. ऐसे कुछ पाँच-सात स्कूलों को चमकाकर, चिकनी रिपोर्ट्स बनाकर, नेताओं, मीडिया और सोशल मीडिया सबकी वाहवाही बटोर ली जाती है.

भारत की छवि को नुक़सान

हमारी स्वदेशी-तकनीक, सरहद पार खूब काम आई. ये हमारे स्वाभिमान का परिचय था, जिसने हमारे सुरक्षा कवच को मज़बूत किया. प्रौद्योगिकी की हर दिन जहाँ सख़्त ज़रूरत है वो है, सरकारी स्कूल. निगरानी, नज़र, और समय से संसाधन मुहैया कराने वाला हर काम आसान हो सकता है. अच्छे लोगों का चुनाव, उनकी अच्छी तैयारी और श्रेष्ठ पढ़ाई की जवाबदेही सबमें तकनीक मददगार बने, ये ज़रूरी है. हम, सरकारी स्कूलों को सिरे से सुधारने को, अपनी प्राथमिकता में शामिल नहीं कर सकते?

कब तक, देश में सिर्फ ‘सेलिब्रिटीज़',  ‘इन्फ़्लुएंसर्स' और ‘पावरफुल' की ही सुनवाई होती रहेगी? कब तक, आम-आदमी की आवाज़, उसके मुद्दे, ऐसे ही किसी सोशल मीडिया पोस्ट, किसी व्लॉगर की भूली-भटकी नज़र के भरोसे ‘वायरल' रहेंगे? इस तरह के छिटपुट ‘एक्टिविज्म' से स्थायी समाधान कैसे निकलेगा? क्या, समाज की उघड़ी हुई बातों पर, ख़ुद कभी किसी का ध्यान नहीं जाएगा? आगे बढ़कर कोई नहीं बोल पाएगा?

सरकारों के लिए एक बात और समझने की है, कि भारत की छवि ख़राब करने की साज़िशों में हमारी बुनियादी शिक्षा व्यवस्था पर वार करना शामिल रहा है. आज भी देश में, विदेशी ताकतों और हितों से पली-बढ़ी संस्थाएं हैं, जिन्हें सरकारी स्कूलों की ख़राब दशा में अवसर दिखाई देते हैं. ऐसे कुछ पाँच-सात स्कूलों को चमकाकर, चिकनी रिपोर्ट्स बनाकर, नेताओं, मीडिया और सोशल मीडिया सबकी वाहवाही बटोर ली जाती है. लेकिन, देश के लाखों सरकारी स्कूलों की बेहतरी के लिए हमने क्या विकल्प तैयार किए हैं? कौनसे स्वदेशी-स्वभाव में हम आते दिख रहे हैं जो समाज के जाति-पूँजी के भेद से बच्चों को परे रख, उन्हें उत्कृष्ट शिक्षा दे पाये? 

ये बात गाँठ बाँधने की है कि हमारे बच्चों की कमजोर ‘नींव' हमारे माथे पर बड़ा कलंक है. ‘सबको पढ़ाने और सबको बढ़ाने' की सोच के बगैर, बच्चों को मुफ्त और गुणवत्ता वाली पढ़ाई का मिला मूल सांविधानिक अधिकार दिला पाना, संभव ही नहीं. जयदेव जैसे बच्चे अभी से, अच्छे शिक्षकों की बदौलत, भविष्य का संकल्प ले सकते हैं, तो देश भी सरकारी स्कूलों के हर बच्चे को बड़े सपने देखने के लिए तैयार कर सकता है. इस बार थोड़ी और ज़ोर से बजी सरकारी स्कूलों की ये घंटी अनसुनी ना रहे, तो अच्छा है. हमारी उम्मीद भी इसी सरकार से लगी रहेगी, जो हर आतंक की घटना को, देश पर हमला मानने और कहने की दृढ़ता रखती  है.

परिचयः डॉ. क्षिप्रा माथुर जयपुर स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं जो मीडिया और अध्यापन में तीन दशकों से सक्रिय हैं. अपने लेखन और वक्तव्यों में उन्होंने विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक विषयों को उठाया है, जिनमें समाज के उपेक्षित तबकों और उनके मुद्दों की विशेष रूप से चर्चा की गई है. भारत के चुनाव आयोग ने उन्हें नेशनल मीडिया अवॉर्ड से सम्मानित किया है. 

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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