
रेगिस्तान की बंजर जमीन और कठोर जलवायु में कम बारिश के कारण बाजरे की फसल भी मुश्किल से मिलती थी, वहां बाड़मेर के प्रगतिशील किसान देवाराम पंवार और उनकी पत्नी धापू ने मेहनत और नवाचार से असंभव को संभव कर दिखाया. बूंद-बूंद सिंचाई पद्धति का उपयोग कर उन्होंने रेत के धोरों में गुग्गल (कॉमीफोरा वाइटी), एक औषधीय पौधे की सफल खेती कर न केवल इलाके में पहचान बनाई, बल्कि देशभर के लिए मिसाल कायम की.
गुग्गल के 500 से अधिक पौधे लगाए
देवाराम ने कोविड काल में प्रेरणा लेकर गुग्गल के 500 से अधिक पौधे लगाए, जो आज अच्छी वृद्धि दिखा रहे हैं. कई बार दीमक के कारण कुछ पौधों को नुकसान हुआ, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और नए पौधे लगाकर अपनी खेती को जीवित रखा. इसकी शाखाओं में चीरा लगाकर निकलने वाला सफेद दूध सूखने पर गोंद (राल) में बदल जाता है, जो हल्की सुगंध वाला और चिपचिपा होता है. इस गोंद का उपयोग हृदय रोग, जोड़ों के दर्द, थायराइड, और मोटापा कम करने जैसी औषधीय जरूरतों के लिए किया जाता है. भारत में गुग्गल की राल की मांग अधिक है, और इसे अक्सर विदेशों से आयात करना पड़ता है. इसके अलावा, गुग्गल का उपयोग पूजा-पाठ में भी होता है.

गुग्गल के पौधे से उपज 8 साल बाद मिलती है
देवाराम बताते हैं कि गुग्गल के पौधे से उपज 8 साल बाद मिलती है, लेकिन एक बार स्थापित होने के बाद यह पौधा सालों तक उत्पादन देता है. बूंद-बूंद सिंचाई जैसी आधुनिक तकनीक ने इस खेती को संभव बनाया. उन्होंने साबित कर दिया कि सीमित संसाधनों के बावजूद मेहनत और नवाचार से खेती में नई राहें खोली जा सकती हैं.
खेती से किसानों की आय बढ़ सकती है
देवाराम का मानना है कि पारंपरिक खेती के साथ-साथ औषधीय पौधों की खेती से किसानों की आय बढ़ सकती है, और वैश्विक बाजार में भारतीय औषधीय पौधों की मांग पूरी हो सकती है. उनकी यह पहल न केवल स्थानीय किसानों के लिए प्रेरणा है, बल्कि यह दर्शाती है कि रेगिस्तान जैसी विषम परिस्थितियों में भी नवाचार से समृद्धि का रास्ता बनाया जा सकता है.
बाड़मेर के रेगिस्तान में गुग्गल की खेती कर देवाराम और धापू ने यह दिखा दिया कि दृढ़ संकल्प और नवाचार के बल पर कोई भी चुनौती छोटी हो सकती है. उनकी यह उपलब्धि अन्य किसानों के लिए एक नया रास्ता खोल रही है, जो औषधीय खेती के माध्यम से आर्थिक समृद्धि और आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ सकते हैं.
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