Mangarh Dham: देश को आजादी दिलाने के लिए हजारों वीर सपूतों ने अपने प्राणों की आहुति दी है, जिन्हें पूरा देश आज भी नम आंखों से याद करता है, लेकिन 111 साल पहले 17 नवंबर 1913 को राजस्थान में हुए उस नरसंहार को याद कर आज भी दिल दहल जाता है, जिसमें बांसवाड़ा के मानगढ़ धाम में 1500 आदिवासियों ने एक साथ आजादी दिलाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी, जो आज भी गुमनामी के साये में खोया हुआ है.
1500 आदिवासियों को उतारा था मौत के घाट
17 नवंबर 1913 को मानगढ़ की पहाड़ी पर देश का सबसे बड़ा नरसंहार हुआ था जो अंग्रेजों की गुलामी से आजादी पाने के लिए गोविंद गुरु के जरिए शुरू किया था. इस आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेजी सेना ने अंधाधुंध गोलियां बरसाकर शांतिपूर्वक आंदोलन कर रहे 1500 आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिया था. यह नरसंहार 1919 के जलियावाला बाग हत्याकांड से भी बड़ा था. मानगढ़ की पहाड़ी पर गोविंद गुरु के नेतृत्व में भगत आंदोलन हुआ था.
17 नवंबर को हर साल मनाया जाता है शहीदी दिवस
गोविंद गुरु के इस आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने 17 नवंबर 1913 को पहाड़ी को चारों तरफ से घेर लिया और गोलियां बरसाईं, जिसमें 1500 से ज्यादा आदिवासी शहीद हुए. इस आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने मेजर हैमिल्टन को कमान सौंपी. उनके तीन अफसरों ने सशस्त्र बलों के साथ मानगढ़ पहाड़ी को तीन तरफ से घेर लिया. खेरवाड़ा से आई अंग्रेजी सेना ने रात में ही पूरा रास्ता तय किया और पहाड़ियों पर हथियार जमा कर दिए. अगली सुबह जैसे ही ब्रिटिश सेना के कर्नल शटन का आदेश मिला, सेना ने गोलीबारी शुरू कर दी. आदिवासियों पर उस समय की तोपों और मशीनगनों से हमला किया गया. इस हमले में 1500 आदिवासी मारे गए. उन शहीदों की याद में हर साल 17 नवंबर को मानगढ़ धाम पर शहीदी दिवस मनाया जाता है.
राष्ट्रीय स्मारक घोषित होने की उम्मीद अधर में
लाखों आदिवासियों के आस्था स्थल मानगढ़ धाम पर शहीद हुए शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कई राज्यों के मुख्यमंत्री, कांग्रेस नेता राहुल गांधी तक मानगढ़ धाम आकर शहीदों को श्रद्धांजलि दे चुके हैं, फिर भी आज तक मानगढ़ धाम को राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा नहीं मिल पाया है. जिसके कारण मानगढ़ धाम को वह सम्मान नहीं मिल पाया है जो मिलना चाहिए था.
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