देश में हर दिन हो रहे हादसे, फिक्र की बात है. ऐसा लग रहा है जैसे सबको आगे निकलने, कहीं जाने, कुछ पाने की जल्दबाज़ी है. एक नामी स्कूल की किशोर उम्र की बच्ची का स्कूल की रेलिंग से कूद जाना, स्कूल और माता-पिता सबकी भूमिका पर सवाल खड़े कर रहा है. लेकिन किसका कितना बस है बच्चों पर आख़िर? कोटा और कोचिंग वाले शहरों में कितने बच्चे हर साल जीवन से हार मान लेते हैं, घर-बार और स्कूल के माहौल से आहत होकर कितने बच्चे ग़लत कदम उठा लेते हैं. ये ख़बरें कुछ दिन झकझोरती हैं, फिर भी हम उसी ढर्रे पर चलते रहते हैं. वही होड़, वही दबाव, वही तनाव और वही बुरा बर्ताव.
दुख से उपजे गीत
हाल ही में, राष्ट्रीय सेवा योजना के एक आयोजन में एक वक्ता ने परिवार में संवाद की कमी को ऐसे हादसों का ज़िम्मेदार बताया. तब ये ध्यान में आया, कि अपने बचपन के दौर में भी माता-पिता से खुला संवाद तो नहीं था. उलझनें भी नहीं थी और जब होने लगीं, तब तक हम अपने सुख-दुख ख़ुद ही सहना सीखने लगे. दुख का सामना करने के अनेक तरीके थे, लिखना, साहित्य पढ़ना, काम में ऐसा टूटकर लगना कि सोचने के लिए समय ही न रहे या फिर थोड़ा रो-धोकर, विविध भारती के गाने, कार्यक्रम या ग़ज़लें सुनकर, अपने मन के काम में लगकर तसल्ली कर लेना.
ऐसे कई तरीके थे, उस टूटे हुए मन को फिर अपनी जगह ले आने के. ये सब कभी फ़िज़ूल नहीं गया. कभी-कभी घरवालों के व्यवहार से आहत भी होते, उनसे घमासान की नौबत भी आती, मगर फिर लिहाज आड़े आ जाता. सृजन का सूत्र, संघर्ष में ही छिपा होता है, ये आज का नहीं, सदियों का सार है. तभी तो अंग्रेज़ी कवि शेली ने अपनी कविता ‘टू द स्काईलार्क' में कहा: दुख भरे भाव ही सबसे मीठे गीत होते हैं. वाल्मीकि ने एक क्रौंच पक्षी के जोड़े के दुख सुनकर ही तो ‘रामायण' का पहला श्लोक लिखा था.
क्या वाकई?
वो दौर भी आता है, जब अपने से ध्यान हटकर अपने साथ काम करने वाले साथियों के दुखड़ों पर ध्यान जाता है. बाल-बच्चे वाले हों या भरे पूरे परिवार वाले, उनके मायूस मन को भी कोई सुनने समझने वाला नहीं होता. ख़ास तौर से पुरुष साथियों की ये तकलीफ़ देखी है. वो अपना दर्द या तो शराब और सिगरेट में दबाने की कोशिश करते या फिर बड़ी मुश्किल से वहाँ खुल पाते जहाँ से उनकी बातें और कहीं तक न पहुँच पायें. लेकिन न खुलकर कहना, न अपने शौक पूरे करना, न सृजनशील रहना, ये घुटन कब किस मर्ज़ में बदलेगी, ये समझना आसान नहीं. पेशेवर दुनिया में कौन किसकी कमज़ोरी का क्या फ़ायदा उठा ले, ये आशंका अच्छी दोस्ती पनपने ही नहीं देती.
बड़ों की फिर समझी जा सकती है, लेकिन बच्चों की मनःस्थिति की कल्पना करना और भी मुश्किल लगने लगा है. उनकी एक दुनिया वो, जो हमें दिख रही है, और बाक़ी वो जो मोबाइल की घुसपैठ और दोस्तों से बातचीत से रोज़ बनती-बिगड़ती है.
ऑस्ट्रेलिया जैसे कुछ देश ये खतरा भांप रहे हैं, और 16 साल से कम उम्र बच्चों की ‘सोशल मीडिया' गतिविधियों को दायरे में बांध दिया है. अमेरिकी कलाकार एरोन पॉल ने बेहद संजीदा तरीके से अपनी छोटी बच्ची के साथ का वाक़या सुनाया. जब उन्होंने बेटी से वादा किया कि वो उससे बात करते सामने पूरा ध्यान उन पर देंगे, फ़ोन को नहीं. इस पर बेटी की प्रतिक्रिया ने उन्हें शर्मिंदा कर दिया. बेटी ने बेहद आश्चर्य से कहा: क्या वाकई?
तालों में सुझाव
भारत में आज करीब 70 करोड़ लोगों के हाथ स्मार्ट फ़ोन है, जिसने कई अवसर भी बढ़ाए हैं मगर बड़ी आबादी को भ्रमित भी किया है. हमारी आबादी में संसाधनों की असमानता ने, झल्लाहट भी बढ़ाई है. आर्थिक तौर पर कमजोर परिवारों में बच्चों को उनकी पसंद का मोबाइल न दिला पाना, अवसाद का कारण बन रहा है. जिन किशोर हाथों में मोबाइल है, उनमें खेल, सट्टे या रील्स की लत का कोई तोड़ किसी के पास नहीं. और समृद्ध परिवारों में भी फ़ोन और ऑनलाइन गतिविधियों ने उन्हें बाज़ार और उपभोग में ऐसा फँसाया है कि उनका नज़रिया, जीवन की असलियत से मेल नहीं खाता. परिवार ख़ुद नई पीढ़ी की भाषा और उनकी दुनिया से इतना अनजान है कि उनके बीच संवाद, औपचारिकता बनता जा रहा है.
फिर भी सारा दोष तकनीक और फ़ोन पर मढ़ना भी ठीक नहीं. आज फ़ोन की सीधी घुसपैठ ने पूरी दुनिया खोलकर रख दी है और फ़िल्टर ख़त्म कर दिए हैं. ऐसे में चारों तरफ़ की वो घेराबंदी ज़रूरी है जो व्यक्तित्व निर्माण पर ज़ोर दे. शिक्षक और अभिभावकों की रोज़ की आदतों और व्यवहार में ही बड़ी सीख छिपी होती है, जो क्लासरूम के हर तनाव को खेलने की ताक़त देती है. शिक्षक, व्यापारी और फ़ैशनबाज़ हों और परिवारजन, बच्चों की उलझनों से अनजान, तो भी बच्चों को संभालने की क्षमता समाज में रहे, ये कोशिश और तेज होनी चाहिए.
उनकी सुनवाई के लिए सामुदायिक या पारिवारिक व्यवस्थाएं हों तो फिर कहीं कठिनाई नहीं. यूँ तो शिक्षण संस्थानों में ही मनोविज्ञानी की नियुक्ति ज़रूरी है, पर काफ़ी काम काग़ज़ी ही हैं. सुझाव पेटियां ताले में बंद हैं और शिक्षक चाहें भी तो एक-एक बच्चे पर ध्यान लगाने का समय नहीं निकाल पाते. पूरी शिक्षण व्यवस्था संक्रमित है, नौकरी की मानसिकता में हैं, सेवा की नहीं.
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मदद की घंटी
माता पिता ख़ुद भी तय नहीं कर पा रहे कि आख़िर बच्चों को कैसे समझें, क्या समझायें? कितना डाँटें, कितना दुलार करें? कितनी छूट दें, कितनी लगाम लगायें? सबसे बड़ी बात है कि बच्चे और हर उम्र के लोगों को वो जगह मिले, जहाँ वो ख़ुद को ख़ाली कर सकें. एक न एक कला, कोई न कोई हुनर, किसी न किसी तरह का शौक, संभलने में मददगार होता है. और अगर, कोई अच्छा राज़दार मिल जाये तो फिर तो जीवन की हर उथल-पुथल सहना बेहद आसान हो जाता है. ये राज़दार, हमउम्र भी होते हैं, जो खेल-खेल में, बातों-बातों में, जाने-अनजाने उलझनों से निकाल लाते हैं.
कभी बड़े-बुजुर्ग भी आपके हमराज़ होते हैं. सबसे बड़ी खूबी होती है, बड़ी-बड़ी बातों की बजाय छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देना. हम आहत भी उसी से होते हैं और राज़ी भी उसी से. जहाँ कहने सुनने वाला कोई नहीं, वहाँ फ़ोन है, राष्ट्रीय हेल्पलाइन 1098 भी है, जिसके बारे में जागरूकता ज़रूरी है. ज़्यादातर शिक्षण संस्थान जानबूझकर इसके बारे में ज़्यादा बात नहीं करते कि उनके यहाँ के बच्चे इसे इस्तेमाल करेंगे तो बदनामी होगी. सरकारी शिक्षण संस्थाओं में तो अनिवार्य है इसलिए उनके परिसर में कहीं न कहीं बड़े-बड़े अक्षरों में ये हेल्पलाइन नंबर लिखा देखा जा सकता है.
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आश्वासन नहीं आश्वस्ति
कुछ संस्थान, एक कदम आगे बढ़कर काम कर रहे हैं. एक सरकारी स्कूल के बारे में पढ़ा, सुझाव पेटी में एक बच्चे ने लिखा कि मेरा खाना कोई चुरा लेता है, तो इसकी पड़ताल की और खाना चोर की पहचान कर समाधान किया. ये बात छोटी सी है, लेकिन बच्चों को आश्वस्त करना ज़रूरी है कि उनकी बात सुनी जाएगी, और उसके बारे में कोई कदम उठाया जाएगा. बालमन सिर्फ़ आश्वासन से नहीं मानता. उसे बहलाने की बजाय उसे समझना, उसे राहत देना ही अच्छा पालन-पोषण है.
हमने कई साल पहले एक अभियान के दौरान बच्चों से उनकी यूनिफार्म के बारे में पूछा तो सरकारी स्कूल के लगभग हर बच्चे ने कहा कि कपड़ों का रंग बदलवा दो. चुनावी अभियानों तक में हमने बच्चों की बात सुनी. उनके बोलने-कहने की जगह रखी. और उनकी ही नहीं, दिव्यांग बच्चों और युवाओं को भी अपनी राय व्यक्त करने की व्यवस्था बनाई.
अपनी मन का कहने से कोई छूटा न रहे, ये तो ध्यान रखना ही होगा. चुप्पी तोड़ने के कई अभियान, पहले भी कई ज़िलों में चले हैं, जिनमें लड़कियां फोकस में रही हैं. अब, जब भारतीय न्याय संहिता ने भी अपनी भाषा बदलकर लड़के-लड़की के भेद को ख़त्म किया है, तो ये बात सबके लिए ही ज़रूरी है लड़का हो या लड़की. सब कहें, लिखें, ख़ुद को अभिव्यक्त करें, और अपनी घुटन या खलबली को आने-जाने का रास्ता दें. सबको बग़ैर जल्दबाज़ी, अपने-अपने समय और समझ के हिसाब से पनपने दें, इसकी तैयारी हमें कर लेनी है.
मुरझाये मन, खिले रहें, ये ज़ोर-ज़बरदस्ती से नहीं, सिर्फ़ सोच और संवाद की उन छोटी-छोटी खिड़कियों को खोलने से होगा, जहाँ से ताज़ा हवा आती-जाती रहे. ‘मार्शमैलो' का प्रयोग फिर से ध्यान में लाना होगा, बच्चे जितना सब्र रखना सीखेंगे, उतना ही जीवन में आगे बढ़ेंगे. आश्वस्ति का कोई तोड़ नहीं और जीवन भी, कोई अंधी दौड़ नहीं है. ये बड़ों के सीखने की बात ज़्यादा है, बीज तो वहीं हैं.
परिचयः डॉ. क्षिप्रा माथुर जयपुर स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं जो मीडिया और अध्यापन में तीन दशकों से सक्रिय हैं. अपने लेखन और वक्तव्यों में उन्होंने विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक विषयों को उठाया है, जिनमें समाज के उपेक्षित तबकों और उनके मुद्दों की विशेष रूप से चर्चा की गई है. भारत के चुनाव आयोग ने उन्हें नेशनल मीडिया अवॉर्ड से सम्मानित किया है.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.
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