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व्यवस्था की रग-रग में समाई 'वसूली'

डॉ. क्षिप्रा माथुर
  • विचार,
  • Updated:
    सितंबर 23, 2025 14:21 pm IST
    • Published On सितंबर 23, 2025 14:14 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 23, 2025 14:21 pm IST
व्यवस्था की रग-रग में समाई 'वसूली'

राजनीतिक घटक चेतना के किस पायदान पर पहुँच चुके हैं इसका अंदाज़ लेना हो तो देश के शीर्षस्थ धर्मगुरू पुरी के शंकराचार्य की बातों पर गौर करना चाहिए. उनका कहना है कि - एक करोड़ कैकेयी सी कठोरता जब आती है तब जाकर कोई राजनेता बनता है. बात इसलिए गंभीर है, कि ये कठोरता और कर्कशता यहीं खत्म नहीं होती, उनकी पीढ़ियों की रगों में, और उनकी देखा-देखी व्यवस्था में ऊपर-मध्यम-निचले सभी दर्जों में उतर आती है. अभी चिंता ऊपर के पायदानों के मुकाबले निचली व्यवस्था की ज़्यादा है, जिससे जूझ सब रहे हैं पर खुलकर कोई नहीं बोल रहा.

भारत अभी जिस दिशा में बढ़ रहा है, वो हिमालय सी ऊंचाई है जो वैश्विक मायने में आश्वस्त करती है. लेकिन अमेरिका के सिरफिरेपन के बीच, जो  ‘स्वदेशी जागरण' हमारे अस्तित्व की धुरी बनेगा, उसके रास्ते की सबसे बड़ी अड़चन है ‘बाबूगिरी' और ‘भ्रष्टाचार'. देश का चरित्र महान बने बग़ैर, देश महान बनाने का जादुई मंत्र, किसी महासत्ता के पास नहीं.

बांग्लादेश के बाद, ‘हिन्दू राष्ट्र' का गौरव पाले नेपाल में जो घटित हुआ है, उसमें कई सुलगते सवाल हैं. निरंकुश शासन के इस अंत का किसी को मलाल नहीं. लेकिन, बेकाबू हुए इन देशों में, बड़े घरों और बंगलों में आम नागरिकों ने जो लूटपाट की, उसकी बानगी दुनिया ने देखी. विकल्प के तौर पर फिर से ‘राजशाही' की आस, सच्चे प्रजातंत्र के लिए तरस रहे देश की मजबूरी हो सकती है, लेकिन उसे अपनी गिरेबान में भी झाँकना होगा.

‘जेन ज़ी' अपने-अपने देशों में सत्ताओं के रवैये से विकल भले हों लेकिन ऐसे अराजक कभी न हों, ये पूरे विश्व के लिए ज़रूरी है. ऐसे हालात भारत में पैदा ही न हों इस पर भी प्रभावशाली व्यक्तियों-समूहों की वैचारिक दखल होनी चाहिए. और भड़काऊ बयानों से नेताओं को बाज़ आना चाहिए. 

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वसूली का रिवाज़

हम इस सच से आँख नहीं मूँद सकते कि, आज छोटे से छोटे काम के लिए ‘वसूली' करने का मौका कोई नहीं छोड़ रहा. ठेकेदार हो, थानेदार, या ज़मीनों के सौदे करने वाले नए ज़मींदार या चालाक रिश्तेदार. उगाही भी एक पेशा है, जिससे कई घरों में खूब दिखावा पल रहा है. ऐसा हिसाब जो न दुनिया भर पर निगाह रखने वाली ‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल' पकड़ पा रही है ना ही हमारे देश की सबसे भरोसेमंद मानी जाने वाली ‘कैग' जैसी संस्था. न एसीबी, न विजिलेंस, न विभागीय समितियां. ये छोटे-छोटे ‘वसूलीबाज़' हर धरपकड़ से बचे हुए हैं. छोटे-बड़े सरकारी काम और कागजों के लिए हो रहे रोज़ाना के लेन-देन अब ‘रिवाज़' ही बन चुके हैं.

बातों से नहीं, कर्मठता से बने किरदार ही स्थायी हैं, ये याद दिलाने वाले कुछ क्रांतिकारी संत, समाज को झकझोर रहे हैं. सत्तर-अस्सी के दशक की भी यही व्यथा-कथा थी, जब महादेवी वर्मा ने कहा - मशीनें तो हमने बहुत खूब बना ली, इंसान अच्छे बनाये क्या?

उगाही से तैयार हुए इस अति-उत्साही संभ्रांत वर्ग की जीवनशैली, उनकी नाच-पार्टियां, उस पर सफलता के फ़लसफ़े और झूठा गुणगान, ऐसा आकर्षण है जिसकी गिरफ़्त में ‘जेन ज़ी' ही नहीं, बड़े-बुजुर्ग तक हैं. दिखावे का ढिंढोरा, भद्दा होते हुए भी सोशल मीडिया के मार्फ़त महामारी की तरह फैल चुका है. मशीन और तकनीक को कितना भी कोस लें, ये आपकी और आपके देश की कमज़ोरियों को भुनाकर ही, अपने कारोबार बढ़ाने में कामयाब हुई हैं. इसलिए इस पर तो दिमाग़ खपाना ही होगा कि ये कमज़ोरियाँ उपज कहाँ रही हैं? 

बातों से नहीं, कर्मठता से बने किरदार ही स्थायी हैं, ये याद दिलाने वाले कुछ क्रांतिकारी संत, समाज को झकझोर रहे हैं. सत्तर-अस्सी के दशक की भी यही व्यथा-कथा थी, जब महादेवी वर्मा ने कहा - मशीनें तो हमने बहुत खूब बना ली, इंसान अच्छे बनाये क्या? तो क्या ‘मशीनी सैलाब' के सामने कुछ मुखर संत-स्वामी असर दिखा पाएंगे? हमारी याददाश्त में ये भी ज़्यादा देर नहीं टिक पा रहा कि, छोटी-छोटी बातें नज़रअंदाज़ करने का ख़ामियाज़ा क्या होगा? सनातन-समाज की खनक और अर्थ तंत्र की सारी चमक कैसे बचेगी? 

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हाल ही में, भारत ने जीएसटी में बदलाव का जश्न भी मनाया, जनता और उद्योग जगत के मानस को ध्यान में रखकर फैसला भी किया. लेकिन नए उद्यमियों का जीएसटी नंबर लेने के लिए, राज्य व्यवस्था से पाला पड़ता है, तब उन्हें ‘भ्रष्टाचार' की पहली झलक मिलती है.

नई कंपनी खोलने के लिए बाक़ी सारी औपचारिकताएं डिजिटल होने से बेहद आसानी है लेकिन फिर जीएसटी के लिए आवेदन के बाद, आपके दफ्तर की पूछताछ के बहाने जो ‘छुटभैया' आयेगा, वो ‘सुविधा शुल्क' लिए बगैर नहीं जाएगा. उसकी बेशर्मी पर आपको तो शर्म आयेगी, लेकिन अगर आपने उसकी इस ‘सुविधा' में ख़लल डाला तो आपकी फ़ाइल पर दो शब्द का नोट, आपको इस ‘ऊपर की कमाई' की क़ीमत समझा देगा. सब काग़ज़ साफ़ सुथरे होते हुए भी, आपके जायज़ काम में टाल-मटोल, कोई आज की कहानी नहीं. मगर आज भी, आप सफ़ाई देते फिरिए और ‘डिजिटल भारत' के इन ‘ह्यूमन बग्स' से निपटते रहिए. मन मसोसने के सिवाय कोई उपाय नहीं इसका. 

नई कंपनी खोलने के लिए बाक़ी सारी औपचारिकताएं डिजिटल होने से बेहद आसानी है लेकिन फिर जीएसटी के लिए आवेदन के बाद, आपके दफ्तर की पूछताछ के बहाने जो ‘छुटभैया' आयेगा, वो ‘सुविधा शुल्क' लिए बगैर नहीं जाएगा.

नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी रहे अमिताभ कांत ने देश के आर्थिक सुधार की जो दस प्राथमिकताएं गिनाईं हैं, उसमें ‘डीप टेक्नोलॉजी' में निवेश से लेकर ‘फ्री एंटरप्राइज' खड़ा करना सब शामिल है. लेकिन उगाही से निपटने और पारदर्शिता का कहीं कोई ज़िक्र नहीं? यानी देश को पटरी पर लाने वाले, पटरी में रोज़ाना हो रही तोड़-फोड़ को दुरुस्त किए बग़ैर, गाड़ी आगे खींचना चाहते हैं. देश के बड़े आदर्शों और ऊँचे लक्ष्यों की हवा निकलने वालों का भी कुछ इलाज कभी होगा कि नहीं? या भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ एक और आंदोलन का इंतज़ार करना होगा? 

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व्यवस्था में बसा लालच

चलिए धरातल का एक मोटा सा अंदाज़ लगाते हैं, कॉर्पोरेट अफेयर्स मंत्रालय के आंकड़े उठाते हैं. देश में पिछले साल 1,85,312 नई कंपनियां रजिस्टर हुईं हैं. मान लिया कि इसमें से दस फ़ीसदी लोग ही इस छोटी-मोटी ‘माँग' का शिकार हुए, यानी सिर्फ़ 18 हज़ार. और व्यक्तिगत अनुभव से ये मान लें कि इन नए उद्यमियों से औसतन 2 से 5 हज़ार तक वसूले गए, तो गणित बैठता है - हर महीने ढाई से नौ करोड़ की रिश्वतखोरी. यानी आपके अर्थतंत्र को छेदकर-भेदकर निकली पूंजी. 

पिछले साल के मुक़ाबले, अब तक देश में रजिस्टर होने वाली नई  कंपनियों में 24 फ़ीसदी का उछाल, भारत का ऊँचा होता मस्तक है. मगर, व्यवस्था की रग-रग में बसा लालच, इसे झुकाने पर आमादा है.

पिछले साल के मुक़ाबले, अब तक देश में रजिस्टर होने वाली नई  कंपनियों में 24 फ़ीसदी का उछाल, भारत का ऊँचा होता मस्तक है. मगर, व्यवस्था की रग-रग में बसा लालच, इसे झुकाने पर आमादा है. ऐसा ही एक आकलन कभी हमने ठेला-थड़ी लगाने वालों से होने वाली ‘हफ़्ता वसूली' का किया था. करोड़ों जा रहे हैं जेबों में जिन्हें कोई नहीं टटोलता. ऐसे असंगठित क्षेत्र पहले ही ढेर आफ़त झेलते हैं, ऊपर से नगर निगम और छोटे नेता, लूट में कोई कसर नहीं छोड़ते. 

ज़मीनों की ख़रीद फरोख्त से अंधी कमाई करने वाले, अगल-बगल क़ब्ज़े कर, कैसे आम लोगों को परेशान करते हैं, और छुट्टे घूमते हैं. और सच कहें तो बात सिर्फ व्यवस्था में रचे-बसे लालच की नहीं. घर-परिवार में भी कहाँ-कैसे किसके हक़ का छीन लें, लिहाज वाले रिश्तों पर कितना बोझ लाद दें, फ़ायदा उठा लें, संपत्ति के लोभ में कितना सच दबा कर रखें, और मुखौटा लगाकर, स्वीकार्य बने रहें, ये चतुराई सब सीख गए हैं.

ऐसे घर परिवारों और परिवेश से जो समाज पनप रहा है, उसकी चेतना कितनी और गिरेगी क्या मालूम. ऐसे में जो मिट्टी का दीप जलाए चल रहे हैं, मशीन और तकनीक को इंसानियत की कद्र करने में इस्तेमाल कर रहे हैं, वो अल्पसंख्यक न रहें बहुलता में हों, इसके लिए पूरे समाज को अपना ‘एल्गोरिदम' बदलना ही पड़ेगा. सच्चा नेतृत्व, संत वाणी और क्षत्रिय दम, यही पार लगायेगा. नया गढ़ते हुए, बढ़ना तो आगे ही है, हफ़्ते-हफ़्ते का हिसाब रखते हुए और अवैध वसूली के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हुए. सच्चे-सरल स्वभाव के बिना न स्वदेश वृत्ति पनपेगी, न वैश्विक हित के मानक तैयार हो पाएंगे.

परिचयः डॉ. क्षिप्रा माथुर जयपुर स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं जो मीडिया और अध्यापन में तीन दशकों से सक्रिय हैं. अपने लेखन और वक्तव्यों में उन्होंने विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक विषयों को उठाया है, जिनमें समाज के उपेक्षित तबकों और उनके मुद्दों की विशेष रूप से चर्चा की गई है. भारत के चुनाव आयोग ने उन्हें नेशनल मीडिया अवॉर्ड से सम्मानित किया है. 

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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