
बीकानेर राजस्थान के पश्चिमी भाग में स्थित एक शुष्क और रेगिस्तानी क्षेत्र है. यहाँ जल की कमी हमेशा से एक बड़ी चुनौती रही है. इस इलाके में औसत वर्षा अत्यत कम होती है और भूमिगत जलस्तर भी काफी नीचे होता है. ऐसे में प्राचीन काल से ही यहाँ के निवासियों ने जल संचयन के अनूठे और पारंपरिक उपायों को अपनाया. इन उपायों में सबसे प्रभावी और दूरदर्शिता से भरा हुआ कार्य था तालाबों का निर्माण. इसके तहत यहाँ कई तालाबों का निर्माण हुआ और कालांतर में वे इस सूखे क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिए बहुत मददगार साबित हुए.
सामूहिक प्रयासों पर आधारित जल प्रबंधन की परंपरा
बीकानेर में जल प्रबंधन की परंपरा सामूहिक प्रयासों और प्राकृतिक भूगोल की समझ पर आधारित रही है. वर्षा जल को संचित करने के लिए ढलानों और प्राकृतिक ढालों का उपयोग कर तालाबों की संरचना की जाती थी, जिससे वर्षा का पानी स्वतः बहकर तालाबों में एकत्र हो सके. इसके अलावा घरों की छतों और गलियों से बहकर आने वाले पानी को भी ‘पायन' नामक नालों के माध्यम से तालाबों तक पहुँचाया जाता था. यह एक सुव्यवस्थित पारंपरिक जल प्रबंधन प्रणाली थी, जिसमें वर्षा जल को इकट्ठा कर पीने, सिंचाई और धार्मिक कार्यों के लिए संग्रहित किया जाता था.

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तालाबों में पानी आने के स्रोत
इन तालाबों में मुख्यतः वर्षा जल एकत्रित किया जाता था. जल ग्रहण क्षेत्र को इस तरह डिज़ाइन किया जाता कि आसपास की भूमि से पानी बहते हुए तालाबों में पहुँचे. इसके अलावा, कुछ तालाबों में कुंड, बावड़ी, और जल-निकासी चैनलों के ज़रिए भी पानी पहुँचता था. शहर की गलियों में बनी ‘पायन' व्यवस्था (नालीनुमा संरचना) विशेष रूप से इस कार्य के लिए प्रयुक्त होती थी. इन संरचनाओं में बरसात का पानी बहकर सीधे तालाब में गिरता था. यह प्रणाली जल अपव्यय को रोकने और अधिकतम संचयन सुनिश्चित करने में सहायक होती थी.
स्थानीय शासकों, सेठों और जन-साधारण द्वारा हुआ तालाबों का निर्माण
बीकानेर के इतिहास में कई शासकों, सेठों और जनसाधारण ने मिलकर तालाबों का निर्माण करवाया. सबसे प्रसिद्ध तालाबों में संसोलाव, हर्षोलाव, धरणीधर, कोडमदेसर, सुरसागर, लक्ष्मी तालाब, गजनेर और देशनोक तालाब आदि का नाम लिया जा सकता है. महाराजा गंगा सिंह जैसे दूरदर्शी शासकों ने तो बड़े जलाशय और नहर परियोजनाएं भी शुरू कीं. इसके साथ ही समाज के धनी वर्गों ख़ास तौर से सेठ-साहूकारों और व्यापारी वर्ग ने भी पुण्य कार्य समझकर तालाबों का निर्माण करवाया. यह कार्य सिर्फ़ जन-कल्याण का ही प्रतीक नहीं था बल्कि सामाजिक प्रतिष्ठा और धार्मिक आस्था से भी जुड़ा हुआ था.

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तालाबों का धार्मिक महत्व
बीकानेर के तालाब न केवल जल-संग्रहण के सिर्फ़ रहे बल्कि धार्मिक आस्थाओं के भी बन गए. तालाबों के किनारे मंदिर, छतरियाँ और धर्मशालाएँ बनाई जाती थीं. मान्यता थी कि जल ही जीवन है, और शुद्ध जल के बिना धार्मिक कार्य अधूरे हैं. खासतौर पर अमावस्या, पूर्णिमा और पितृपक्ष में तालाबों पर स्नान, पूजा और तर्पण जैसे धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न होते थे और अब भी होते हैं.
तालाबों में धार्मिक गतिविधियाँतालाबों में विविध धार्मिक गतिविधियाँ आज भी आयोजित होती हैं. पितृपक्ष में ‘तर्पण' का आयोजन तालाबों में विशेष रूप से किया जाता है. लोग अपने पितरों की आत्मा की शांति के लिए तालाब में स्नान कर विधिवत पिंडदान और तर्पण करते हैं. इसके अलावा छठ पूजा, गंगा दशहरा, कार्तिक पूर्णिमा जैसे पर्वों पर भी तालाबों के किनारे धार्मिक भीड़ उमड़ पड़ती है. कई तालाबों के नज़दीक ही मंदिर होने की.वजह से ये स्थान स्थानीय तीर्थ के रूप में भी दर्जा रखते हैं.
बीकानेर के तालाब सिर्फ़ जल संचयन की संरचनाएं नहीं हैं बल्कि सांस्कृतिक धरोहर और धार्मिक आस्था के प्रतीक हैं. वे पर्यावरणीय समझ, सामाजिक सहयोग और धार्मिक परम्पराओं का अदभुत संगम हैं.
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