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धाय पन्ना दाई ने अपने पुत्र चंदन की बलि देकर उदयस‍िंह की बचाई थी जान, जानें कैसा था उनका जीवन

राणा उदयसिंह ने अपने शासनकाल में मेवाड़ की स्वतंत्रता और सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने के लिए असाधारण प्रयास किए, जिसने उनकी विरासत को अमर बना दिया.

धाय पन्ना दाई ने अपने पुत्र चंदन की बलि देकर उदयस‍िंह की बचाई थी जान, जानें कैसा था उनका जीवन

भारतीय इतिहास के पन्नों को खंगाले तो अनगिनत ऐसे शूरवीर मिलेंगे, जिन्होंने भारत माता की आन-बान और शान को तो बरकरार रखा, साथ ही अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण कदम भी उठाए. ऐसे ही एक शूरवीर थे राणा उदयसिंह, जिन्हें इतिहास में अपनी रणनीति और दूरदर्शिता के लिए जाना जाता है. वे मेवाड़ के महान योद्धा महाराणा प्रताप के पिता थे और सिसोदिया वंश के गौरवशाली शासकों में से एक थे.

4 अगस्त 1522 को उदयसिंंह का हुआ था जन्म  

4 अगस्त 1522 को चित्तौड़ में पैदा हुए राणा उदयसिंह का सफर आसान नहीं रहा. उनके पिता राणा सांगा की मौत के बाद उनके भाई रतन सिंह द्वितीय को राजगद्दी सौंपी गई. हालांकि, रतन सिंह द्वितीय की 1531 में हत्या कर दी गई. इसके बाद उनके भाई महाराणा विक्रमादित्य सिंह ने शासन संभाला.

विक्रमादित्य के शासनकाल में जब 1535 में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर लूटपाट की, तब उदयसिंह को सुरक्षा के लिए बूंदी भेज दिया गया.

बनवीर ने उदय सिंंह को खत्म करने की योजना बनाई   

1537 में बनवीर ने महाराणा विक्रमादित्य की हत्या कर सिंहासन पर कब्जा कर लिया और उदयसिंह को भी खत्म करने की योजना बनाई, लेकिन उदयसिंह की धाय पन्ना दाई ने अपने पुत्र चंदन की बलि देकर उन्हें बनवीर से बचाया और सुरक्षित कुंभलगढ़ ले गईं. 1540 में मेवाड़ के कुलीनों द्वारा कुंभलगढ़ में उनका राज्याभिषेक किया गया.

उदयसिंह की पहली पत्नी महारानी जैवंताबाई सोनगरा से उनके सबसे बड़े बेटे महाराणा प्रताप का जन्म उसी साल हुआ. बताया जाता है कि उनकी बीस पत्नियां और 25 बेटे थे.

1544 में शेरशाह सूरी ने मारवाड़ पर हमला किया 

राज्यभिषेक के बाद उदयसिंह के लिए सबसे बड़ी मुश्किल अपने दुश्मनों से निपटना था. साल 1544 में शेरशाह सूरी ने मारवाड़ पर हमला किया. उस समय उदयसिंह ने मेवाड़ में गृहयुद्ध का सामना किया था और उनके पास शेरशाह से लड़ने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं थे. उन्होंने चित्तौड़ को शेरशाह को इस शर्त के साथ सौंप दिया कि वह मेवाड़ के लोगों को नुकसान नहीं पहुंचाएगा. शेरशाह ने यह शर्त मान ली, क्योंकि उसे पता था कि चित्तौड़ की घेराबंदी लंबी और खर्चीली होगी.

बाज बहादुर को राणा उदयसिंह ने शरण दी

जब उदयसिंह और उनकी परिषद को लगा कि चित्तौड़ सुरक्षित नहीं है, तो उन्होंने मेवाड़ की राजधानी को सुरक्षित जगह पर शिफ्ट करने की योजना बनाई. 1559 में गिरवा क्षेत्र में निर्माण कार्य शुरू हुआ और उसी साल एक मानव-निर्मित झील बनाई गई, जिससे खेती को बढ़ावा मिला. यह झील 1562 में पूरी हुई और नई राजधानी को जल्द ही उदयपुर के नाम से जाना जाने लगा. 1562 में मालवा सल्तनत के आखिरी शासक बाज बहादुर को राणा उदयसिंह ने शरण दी, जिसके राज्य को अकबर ने मुगल साम्राज्य में मिला लिया था. अकबर ने इसे एक अवसर मानते हुए अक्टूबर 1567 में मेवाड़ पर आक्रमण किया. 23 अक्टूबर 1567 को अकबर ने उदयपुर के पास अपना शिविर स्थापित किया.

अकबर ने 1568 को चित्तौड़ पर कब्जा कर लिया 

कविराज श्यामलदास के अनुसार, उदयसिंह ने युद्ध परिषद का आयोजन किया. रईसों ने सलाह दी कि वे चित्तौड़ में एक सेना छोड़कर राजकुमारों के साथ पहाड़ियों में शरण लें. उदयसिंह ने चित्तौड़ को अपने विश्वासपात्र सरदारों जयमल और पत्ता के हवाले कर दिया. अकबर ने चार महीने की घेराबंदी के बाद 25 फरवरी 1568 को चित्तौड़ पर कब्जा कर लिया, जिसके बाद शहर में जमकर लूटपाट की गई.

मेवाड़ की रक्षा और विकास में उदयसिंह का अहम योगदान रहा

1572 में गोगुंदा में उनकी मृत्यु हो गई. उनकी मृत्यु के बाद जगमाल ने गद्दी हथियाने की कोशिश की, लेकिन मेवाड़ के सरदारों ने उसे रोक दिया और 1 मार्च 1572 को महाराणा प्रताप सिंह को राजा बनाया. राणा उदयसिंह का योगदान मेवाड़ की रक्षा और विकास में अहम रहा, और उनकी नीतियों ने मेवाड़ को मुगल शक्ति के खिलाफ मजबूत बनाए रखा.

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