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This Article is From Oct 29, 2023

मिठाईयां कल्ला के लिए बंटी, लेकिन जीत का सेहरा बंधा जितेंद्र सिंह के सिर, जानिए 1990 का यह रोचक किस्सा

कांग्रेस की टिकट पर गांधीवादी नेता और पश्चिमी राजस्थान के गांधी कहे जाने वाले गोवर्धन कल्ला ने चुनाव लड़ा था. उनके सामने जनता दल ने राजपरिवार के सदस्य डॉ. जितेंद्र सिंह को टिकट देकर चुनाव लड़वाया. इस साल भाजपा व जनता दल ने मिलकर प्रदेश में चुनाव लड़ा था और जैसलमेर की सीट जनता दल के हिस्से आई. भाजपा के स्थानीय कार्यकर्ता जितेंद्र सिंह के नाम से सहमत नही थे तो भाजपा से बागी होकर जुगत सिंह ने निर्दलीय ताल ठोक दी और यह दंगल अब त्रिकोणीय हो गया.

मिठाईयां कल्ला के लिए बंटी, लेकिन जीत का सेहरा बंधा जितेंद्र सिंह के सिर, जानिए 1990 का यह रोचक किस्सा
(प्रतीकात्मक तस्वीर)
जैसलमेर:

कला, संस्कृति, धोरों की धरती के रूप में विशेष पहचान रखने वाली स्वर्णनगरी, जो अपने घोटुवा लड्डू, ऐतिहासिक दुर्ग व कलात्मक हवेलियों के साथ गड़ीसर सरोवर के लिए विश्व भर में जानी जाती है. लेकिन जैसलमेर सियासत में अप्रत्याशित परिणामों व रियासत से लेकर सियासत तक के किस्सों के लिए भी जाना जाता है. आज बात करेंगे उस सियासी किस्से की जिसमें जैसलमेर से बीकानेर तक मिठाईयां तो गांधिवादी गोवर्धन कल्ला के लिए बंटी, लेकिन जीत का सेहरा बंधा राज परिवार के सदस्य जितेंद्र सिंह के सिर, यह किस्सा साल 1990 के विधानसभा चुनाव का है, तब इस जिले में केवल एक ही विधानसभा क्षेत्र जैसलमेर था.

सियासी किस्से ने यहां से लिया जन्म

कांग्रेस की टिकट पर गांधीवादी नेता और पश्चिमी राजस्थान के गांधी कहे जाने वाले गोवर्धन कल्ला ने चुनाव लड़ा था. उनके सामने जनता दल ने राजपरिवार के सदस्य डॉ. जितेंद्र सिंह को टिकट देकर चुनाव लड़वाया. इस साल भाजपा व जनता दल ने मिलकर प्रदेश में चुनाव लड़ा था और जैसलमेर की सीट जनता दल के हिस्से आई. भाजपा के स्थानीय कार्यकर्ता जितेंद्र सिंह के नाम से सहमत नही थे तो भाजपा से बागी होकर जुगत सिंह ने निर्दलीय ताल ठोक दी और यह दंगल अब त्रिकोणीय हो गया. जुगत सिंह के बागी होने से कांग्रेस की राह आसान माने जाने लगी थी. चुनाव हुए और फिर दिन आया मतगणना का जहां से इस सियासी किस्से ने जन्म लिया.

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उस दौर में मतपत्रों पर होता था मतदान

मतगणना का दिन था, उस दौर में मतपत्रों पर मुहर लगाकर मतदान किया जाता था और मतों की गिनती सुबह से देर शाम तक चलती थी. मतगणना की शुरुआती दौर में जगत सिंह ने अच्छी बढ़त ली थी, लेकिन फिर लगातार कल्ला आगे चल रहे थे. मतगणना के आखिरी दौर तक कल्ला प्रतिद्वंद्वी पर हजारों मतों की बढ़त बना चुके थे. इस सूचना से कांग्रेस कार्यकर्ताओं और कल्ला समर्थकों में खुशी की लहर दौड़ गई. मिठाइयां बंटने का दौर तक शुरू हो गया. कल्ला की रिश्तेदारों के यहां बीकानेर तक खुशी का यही आलम था.

न जाने किस करवट जा बैठी सियासत

मतगणना के अंतिम दौर में राजपूत बाहुल्य वाले गांवों व कुछ कांग्रेस के गढ़ों की पेटियों के मतों की गिनती में जनता दल के जितेंद्र सिंह को एकतरफा वोट मिले. सब हक्के-बक्के रह गए. सियासत न जाने किस करवट जा बैठी, कांग्रेस के गढ़ में कल्ला जब पीछे रहे तो जैसलमेर शहर में चिंता बढ़ने लगी. देखते ही देखते हजारों की बढ़त वाले कल्ला अंतिम परिणाम में करीब 2 हजार मतों से पीछे हो गए. हालांकि 1998 में कल्ला ने चुनाव लड़ा और लगभग 15 मतों से जीते. कल्ला के कार्यकाल को आज भी लोग याद करते है. आज जब हम आपको इस किस्से से रूबरू करवा रहे है, इस वक्त गांधीवादी नेता गोवर्धन कल्ला इस संसार में नही है. हालांकि उनके प्रतिद्वंदी जितेंद्र सिंह ने जब हमसे बातचीत की तो वो कल्ला की तारीफ़ करते नही थके.

निडर होकर जीना, उसूलों पर मरना, जिसे ठीक मानों वही कर गुजरना, यही जिंदगी है-यही जिंदगी है. यह गीत गुनगुनाते हुए कल्ला ने इस दुनिया से विदा ले लिया. पूर्व विधायक गोवर्धन कल्ला कांग्रेस संगठन में राष्ट्रीय स्तर पर जाना पहचाना नाम था.

कल्ला जिनकी तारीफ करते थे विरोधी

पश्चिमी राजस्थान के गांधी कहे जाने वाले पूर्व विधायक कल्ला ने अपने जीवन में गांधी की विचारधारा को ही अपना कर रखा और उन्होंने माणिक्य लाल वर्मा के साथ भी काम किया था. उनके निधन से पहले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत उनकी कुशलक्षेम पूछने व उनसे मिलने उनके जैसलमेर निवास पर भी आए थे. इंदिरा गांधी नहर को जैसलमेर तक लाने में उनका बड़ा योगदान बताया जाता है. आज भी लोग उनके कार्यकाल को याद करते है. उन्होंने 1989 में कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़ा और केवल 2200 मतों से हार गए थे. लेकिन फिर उन्होंने अगला चुनाव लड़ा और जीता.

उनके बारे राजनीतिक गलियारों में कहा जाता है कि जातिगत वोट नहीं होने के बावजूद गोवर्धन कल्ला ही थे, जो चुनाव लड़े, क्योंकि कल्ला पुष्करणा ब्राह्मण समाज से आते है और उनका जैसलमेर विधानसभा में जातिगत आधार पर कोई बड़ा वोट बैंक तब भी नहीं था.

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