राजस्थान के डूंगरपुर जिले में महात्मा गांधी नरेगा योजना आज खुद 'वेंटिलेटर' पर है. गरीबों के लिए 'संजीवनी' कहा जाता था, वह बजट के अभाव में दम तोड़ रही है. पिछले 3 सालों से करोड़ों का भुगतान बकाया है, जिससे मजदूर से लेकर सरपंच तक सभी परेशान हैं. मनरेगा के सफल क्रियान्वयन के आड़े 'बजट' का एक बड़ा रोड़ा आकर खड़ा हो गया है. हालात यह हैं कि पिछले 3 सालों से सामग्री मद का करीब 280 करोड़ रुपए का भुगतान बकाया है. सिर्फ सामग्री ही नहीं, इस योजना को जमीन पर उतारने वाले कारीगर भी दाने-दाने को मोहताज हैं.
करीब डेढ़ करोड़ रुपए का मानदेय अटका
पिछले एक साल से इनका करीब डेढ़ करोड़ रुपए का मानदेय प्रशासन की फाइलों में दबा पड़ा है. काम पूरा हो चुका है, लेकिन जेबें खाली हैं. सरपंचों का कहना है कि बजट के अभाव में अब नए काम शुरू करना तो दूर, पुराने कामों की देनदारी चुकाना मुश्किल हो गया है. प्रशासन की ओर से आश्वासन तो मिलते हैं, लेकिन धरातल पर पैसा नहीं पहुंच रहा.
आदिवासियों के हक का पैसा रोका जा रहा- रोत
मनरेगा का संकट सिर्फ आंकड़ों का खेल नहीं है, बल्कि उन हजारों परिवारों की रोजी-रोटी का सवाल है, जिनका चूल्हा इसी मजदूरी से जलता है. इस मुद्दे ने अब राजनीतिक तूल भी पकड़ लिया है. बांसवाड़ा-डूंगरपुर सांसद और बीएपी नेता राजकुमार रोत ने इस मुद्दे पर सीधा सरकार को घेरा है. रोत का आरोप है कि भाजपा सरकार जानबूझकर आदिवासियों के हक के पैसे को रोक रही है, जिससे इस क्षेत्र में पलायन का खतरा फिर से मंडराने लगा है.
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