'हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमां पर फिर भी कम निकले' यह महज़ एक शेर नहीं है, बल्कि इसे जिया है राजस्थान के बांसवाड़ा जिले के एक बुजुर्ग बजूणा मछार ने...ख्वाहिशें जीते जी दम तोड़ दें, इससे पहले अपनी सारी इच्छाएं पूरी कर लेनी चाहिए. कुछ ऐसा ही वाक़या हुआ बांसवाड़ा ज़िला मुख्यालय से करीब 10 किलोमीटर दूर बोरतालाब गांव में, जहां अपनी अनूठी इच्छा को पूरा करने के लिए एक 70 वर्षीय बजूणा मछार ने अपने जीवनकाल में ही खुद की मूर्ति बनवा कर चौराहे पर लगा दी है.
हाथ में बंदूक लिए घोड़े पर बैठे अपनी मूर्ति बुजुर्ग ने बांसवाड़ा-रतलाम मुख्य मार्ग के पास अपने खेत में लगाई है, जो हर किसी के लिए आकर्षण का केंद्र बनी हुई है. गांव के लोग खेत के इस हिस्से को अब बजूणा काका मूर्ति क्षेत्र के नाम से बुलाने लगे हैं. बजूणा काका खुद हर रोज़ अपनी खुद की मूर्ति की साफ-सफाई और देखभाल करते हैं.
आदिवासी समाज ताल्लुक रखने वाले बुजुर्ग बजूणा ने बताया कि उनके पांच बेटे हैं और सभी की शादी हो चुकी है, वो सभी अलग-अलग रहते हैं, उन्हें अपने बेटों से उम्मीद नहीं थी कि उनके मरने के बाद वो उनके लिए मूर्ति बनवाएंगे, इसलिए मजदूरी कर पाई-पाई जोड़कर अपनी खुद की मूर्ति बनवा दी. बजूणा ने बताया कि घोड़ा व बंदूक का उन्हें जवानी में बहुत शौक था, लेकिन यह मिल नहीं मिल न सका, इसलिए मूर्ति बना कर इस शौक़ को पूरा कर लिया.
समाज में मौत के बाद मूर्ति बनाने की है परम्परा
आदिवासी समाज में एक ख़ास परम्परा है, जिसमें मरने वाले हर व्यक्ति को एक ख़ास स्थान चीरा बावजी पर शरण दी जाती है, यानी किसी खास जगह पर मूर्ति स्थापित की जाती है. ऐसी मान्यता है कि यहां उनकी यादें ज़िंदा रहती हैं और उस जगह को उनके कुनबे का देवता स्थान बना दिया जाता है और ख़ास मौकों पर उनकी पूजा की जाती है.
जीवन काल में इसलिए मूर्तियां बनवा लेते हैं बुजुर्ग
संपन्न परिवार मरने वाले अपने परिजनों की याद में मूर्ति बनवाते हैं, वहीं समाज में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिन्हें यह आशंका रहती है कि उनके मरने के बाद परिवार में उनका कोई नाम लेवा नहीं होगा या उनकी मूर्ति नहीं बनवाएगा. ऐसे लोग अपने जीवन में ही खुद की मूर्तियां बनवा लेते हैं। जब तक वो जीवित रहते हैं ये मूर्तियां आम स्थान पर रखी जाती हैं और मरने के बाद इन मूर्तियों को चीरा बावजी स्थान पर पहुंचा दिया जाता है.