Election 2023: चुनाव में राजनीतिक दलों को जिस चीज की सबसे ज्यादा जरूरत होती है वो है चंदा और पार्टियों पर चंदे को लेकर सबसे ज्यादा सवाल खड़े होते रहे हैं ब्लैक मनी, भ्रष्टाचार के आरोप राजनीतिक चंदे के इर्द-गिर्द घूमते हैं चंदे में पारदर्शिता की चुनौती से पार पाने के मकसद से 2017 में केंद्र सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम लेकर आई. इसके तहत कोई भी भारतीय नागरिक, कंपनी इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए अपनी पसंद के राजनीतिक दल को चंदा दे सकती है इसकी न्यूनतम कीमत एक हजार और अधिकतम एक करोड़ रुपये है लेकिन चंदा देने वाले की पहचान गोपनीय रहती है राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता लाने के लिए लाई गई इस स्कीम पर सबसे बड़ा पेंच यहीं फंसा है कुछ एनजीओ और विपक्षी दल आरोप लगाते हैं कि मोदी सरकार द्वारा लाई बॉन्ड स्कीम से सबसे ज्यादा फायदा खुद बीजेपी को ही हो रहा है इस पर रोक लगाने के लिए मामला सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंच पर अदालत ने रोक लगाने से इनकार कर दिया अब एक बार फिर चुनावी मौसम में इलेक्टोरल बॉन्ड में अपारदर्शिता, गोपनीयता न होने और मनी लॉन्डरिंग के आरोपों के साथ मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा हैं. जहां संविधान पीठ ने इसकी सुनवाई शुरू कर दी है इससे पहले, केंद्र ने एफिडेविट दायर कर साफ कह दिया कि नागरिकों को दलों को मिलने वाले चंदे के स्रोत जानने का अधिकार नहीं है सुप्रीम कोर्ट में एफिडेविट दायर कर अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने जवाब दिया है कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत भारत के लोगों को सब कुछ जानने का कोई सामान्य अधिकार (जनरल राइट) नहीं है सरकार का तर्क है कि इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम राजनीतिक दलों को फंडिंग का पारदर्शी तरीका है और दानदाता की गोपनीयता भी रखती है लेकिन पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने पलटवार कर कहा कि बीजेपी बॉन्ड्स के जरिए कॉरपोरेट से गुपचुप चंदा लेती है अगर बॉन्ड की जगह छोटे डोनर्स के चंदे से फंडिंग में पारदर्शिता आ सकती है तो क्या है आखिर इलेक्टोरल बॉन्ड्स से जुड़ा विवाद और कितना सही है अपारदर्शिता का तर्क, इसी पर करेंगे हम चुनावी चर्चा.