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मैथ के बाद साइंस और सोशल-साइंस में भी 'डबल-स्टैंडर्ड'! कमज़ोरी की राह पर चलने की तैयारी

Dev Sharma
  • विचार,
  • Updated:
    दिसंबर 07, 2024 11:50 am IST
    • Published On दिसंबर 07, 2024 11:50 am IST
    • Last Updated On दिसंबर 07, 2024 11:50 am IST
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CBSE: पिछले कुछ दिनों से स्कूली-शिक्षा के क्षेत्र में नेशनल एजुकेशन पॉलिसी-एनईपी, 2020 के तहत एक बड़े परिवर्तन की चर्चा है, सुगबुगाहट है. परिवर्तन यह है कि सीबीएसई मैथेमेटिक्स की तर्ज पर साइंस तथा सोशल साइंस विषयों में भी सेकेंडरी स्तर पर 'डबल-स्टैंडर्ड' लागू करने की तैयारी में है. तात्पर्य है कि नवीं कक्षा में विद्यार्थी को साइंस तथा सोशल साइंस विषयों में भी 'बेसिक' तथा 'स्टैंडर्ड' स्तर के चयन की सुविधा होगी. निश्चित तौर पर 'बेसिक' आसान होगा तथा 'स्टैंडर्ड' मुश्किल, ठीक गणित विषय की भांति. सेकेंडरी स्तर पर कुल पांच-विषयों में से तीन-विषयों के शैक्षणिक-स्तर पर समझौता करने का विचार निश्चित रूप से छात्रों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए आया है. लेकिन इससे कई सवाल पैदा होते हैं.

क्या विद्यार्थी की संघर्ष क्षमता पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा? क्या ये विद्यार्थी जिन्हें 'आसान-विकल्प' को चुनने की आदत हो गई है, वो भविष्य की चुनौतियों का सामना कर पाएंगे? क्या यह नेशनल एजुकेशन पॉलिसी (NEP 2020) से भटकाव नहीं है? 

विज्ञान ही तो तर्क-क्षमता का जनक है और बौद्धिक-विकास की प्रक्रिया में तर्क अत्यंत आवश्यक है. तार्किक तौर पर कमजोर युवा-पीढ़ी भारत जैसे विकासशील देश के विकसित राष्ट्र बनने की राह में बाधक हो सकती है.

एनईपी-2020 का तो आधार ही विषय का ज्ञान तथा विषय-ज्ञान का अज्ञात परिस्थितियों में उपयोग है. यही कारण है कि स्कूली शिक्षा के पेपर-पैटर्न में विषय-ज्ञान के उपयोग से संबंधित प्रश्नों, केस-स्टडी पर संबंधित प्रश्नों का समावेश करने की प्रक्रिया जारी है. प्रश्न पत्रों में इस प्रकार के प्रश्नों का प्रतिशत बढ़ाया जा रहा है.

एनईपी-2020 का मूल उद्देश्य तो विद्यार्थियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तैयार करना है! क्योंकि भविष्य का संघर्ष जिले, राज्य और राष्ट्र स्तर पर तो ठहरेगा नहीं. उच्च-शिक्षा में,नौकरियों में तथा व्यवसाय में तो वर्तमान समय में संघर्ष अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ही होगा. निश्चित तौर पर यह अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा का दौर है.

पूर्व के निर्णय में गणित विषय में 'बेसिक' तथा 'स्टैंडर्ड' के चयन की सुविधा तार्किक थी. उच्च-शिक्षा में कला-साहित्य तथा वाणिज्य के विषयों में रुचि रखने वाले विद्यार्थियों को गणित-विषय के अनावश्यक उच्च स्तरीय ज्ञान एवं समझ की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, तो फिर विषय की कठिनाई का अनावश्यक तनाव क्यों पाला जाए?

किंतु क्या विद्यार्थियों को समाज के विज्ञान अर्थात सामाजिक-विज्ञान को समझने की भी आवश्यकता नहीं है? क्या विद्यार्थी को दैनिक जीवन में घटित होने वाली घटनाओं के पीछे के विज्ञान को समझने की आवश्यकता भी नहीं है?

विज्ञान ही तो तर्क-क्षमता का जनक है और बौद्धिक-विकास की प्रक्रिया में तर्क अत्यंत आवश्यक है. तार्किक तौर पर कमजोर युवा-पीढ़ी भारत जैसे विकासशील देश के विकसित राष्ट्र बनने की राह में बाधक हो सकती है.

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गौरवशाली भारतीय सभ्यता, संस्कृति की समझ अनिवार्य

गौरवशाली भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति, स्वतंत्रता संग्राम की संघर्षपूर्ण यात्रा, बलिदान की गाथाएं, धर्मनिरपेक्ष-संविधान तथा विविधता में एकता की सामान्य एवं उथली नहीं अपितु गहरी समझ आवश्यक है. इस गहरी समझ से ही स्कूली-विद्यार्थियों के मानस पटल पर राष्ट्रप्रेम तथा राष्ट्रवाद की परिभाषा अंकित होती है. सोशल-साइंस स्टैंडर्ड को छोड़ बेसिक का चयन करने का विकल्प क्या हमारी सामाजिक-व्यवस्था पर प्रहार नहीं होगा?

प्रत्येक भारतीय में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का होना तो संविधान के तहत मौलिक कर्तव्यों की श्रेणी में आता है. ऐसी स्थिति में 'बेसिक' अर्थात 'आसान' के चयन की सुविधा विद्यार्थियों में कर्तव्य विमुख होने की प्रवृत्ति को जन्म भी देगी और बढ़ावा भी. 

कमजोर संघर्ष क्षमता ही विद्यार्थियों में 'भय' उत्पन्न करती है. 'भय' के कारण ही विद्यार्थी विषय-वस्तु के ज्ञान तथा समझ को 'परखे' जाने की प्रक्रिया से डरने लगता है. 'परीक्षा' देने से भागने लगता है.

विद्यार्थियों के पलायनवादी होने का ख़तरा

आसान विकल्पों की उपलब्धता निश्चित तौर पर संघर्ष-क्षमता को कमजोर कर पलायन को बढ़ावा देती है. कमजोर संघर्ष क्षमता ही विद्यार्थियों में 'भय' उत्पन्न करती है. 'भय' के कारण ही विद्यार्थी विषय-वस्तु के ज्ञान तथा समझ को 'परखे' जाने की प्रक्रिया से डरने लगता है. 'परीक्षा' देने से भागने लगता है, परीक्षा नहीं देने हेतु बीमारी के बहाने तक बना लेता है. स्थिति यह हो जाती है कि विद्यार्थी सदैव आसान विकल्प ढूंढने लगता है और आसान विकल्पों की अनुपलब्धता में विद्यार्थी 'पलायनवादी' हो जाता है.

ऐसा इसलिए कि विद्यार्थी में सब कुछ आसानी से प्राप्त करने की प्रवृत्ति घर कर चुकी होती है और जब लक्ष्य नीति-रीति से प्राप्त नहीं हो तो वह अनीतिपूर्वक लक्ष्य को प्राप्त करने के मार्ग पर बढ़ जाता है. संघर्ष की प्रवृत्ति नहीं होने के कारण विद्यार्थी 'असफलता' को पचा ही नहीं पता. वर्तमान समय में बढ़ती आत्महत्याओं का यह बहुत बड़ा कारण है.

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डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

लेखक परिचयः देव शर्मा  कोटा  स्थित इलेक्ट्रिकल इंजीनियर और फ़िज़िक्स के शिक्षक हैं.  उन्होंने 90 के दशक के आरंभ में कोचिंग का चलन शुरू करने में अग्रणी भूमिका निभाई. वह शिक्षा संबंधी विषयों पर नियमित रूप से लिखते हैं.

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